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तरुण विजय के साथ जो घटा वह डराने वाला है,भीड़ सांसद की मौजूदगी की गंभीरता नहीं समझती

खरी-खरी            May 26, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। भाजपा सांसद तरुण विजय के साथ जो घटा है वह डराने वाला है। मीडिया तक पहुँची तरुण विजय की तस्वीरों से स्थिति का सही अंदाज़ा नहीं होता है। ‘सत्याग्रह डॉट कॉम’ पर राहुल कोठियाल की विस्तृत और बेहतरीन रपट पढ़कर लगा कि वहाँ की भीड़ तरुण विजय की हत्या भी कर सकती थी। तरुण विजय जल्दी स्वस्थ हो जाएँ मगर इस बहाने बात होनी चाहिए कि स्थानीय स्तर पर समाजों की जड़ता और मूढ़ता इस कदर हावी है कि वो एक सांसद की मौजूदगी की गंभीरता को भी नहीं समझती। उसमें अब भी जातिगत ताकत का वो अहसास बाकी है कि वो जीप पलट सकती है और लोगों को मारने की हालत तक घायल कर सकती है। उत्तराखंड के जौनसार-बावर परिवर्तन यात्रा में तरुण विजय हिस्सा लेने गए थे। यहाँ के एक मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। तरुण विजय ने अपने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की तरह नाटकीय और आसान रास्ता नहीं चुना। कुंभ में समरसता स्नान का विचार कामचलाऊ था। अमित शाह जी की हैसियत और सत्ता प्रभाव का असर था कि मीडिया ने समरसता स्नान की सख़्त समीक्षा नहीं की। इस मामले पर राहुल कोठियाल की तरह एबीपी चैनल के संवाददाता ब्रजेश राजपूत ने बेहतरीन ब्लॉग लिखा है। किस तरह दलित साधु कुर्सी पर बैठे रह गए और सवर्ण साधुओं के लिए उनके आगे कुर्सी लगाकर पहली पंक्ति बना दी गई। इस मायने में तरुण विजय का कदम साहसिक था। वो चुनौतियों का सामना करने निकले न कि समरसता के नाम पर गोलमटोल बातें करने गए। सत्याग्रह पर राहुल कोठियाल ने जिस बारीकी से उत्तराखंड की इस घटना की रिपोर्टिंग की है वो ऐसी घटनाओं के वक्त रिपोर्टर की नज़र और धीरज को फिर से रेखांकित करती है। आप ये रपट पढ़ते वक्त जातिवाद के सामाजिक रूप की भयावह तस्वीर देख सकते हैं। यहां क्लिक करके पढ़ें राहुल कोठियाल की विस्तृत और बेहतरीन रपट राहुल की रिपोर्ट में यह बात उभर कर आती है कि कैसे एक मसले को लेकर भीड़ और आक्रोश का निर्माण होता रहता है जो छोटी सी चिंगारी से भड़क उठता है। जातिवाद का दंश इतना गहरा है कि लोग कानून या मौजूदा राजनीतिक चलन के हिसाब से मान तो लेते हैं मगर मन और मानसिकता से दलित प्रवेश के लिए तैयार नहीं होते। यहीं पर कह दूँ कि मैं अब दलितों के मंदिर प्रवेश से कोई सहानुभूति नहीं रखता। बाबा साहब ने समाज और सत्ता को उसका दायित्व समझाने के लिए किया था। लेकिन तब के और आज के मंदिर प्रवेश की भूमिका में काफी अंतर आ चुका है। दलितों को ख़ुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि उन्हें मंदिर क्यों जाना चाहिए। बाबा साहब ने जब उन्हें राजनीतिक और धार्मिक रास्ता बौद्ध धर्म की तरफ दिखा दिया है तो वे मंदिरों के आसरे क्यों बैठे हैं। क्या वे अंबेडकर को लेकर भ्रमित हो चुके हैं । क्या बौद्ध धर्म के मामले में बाबा साहब से असहमति की कोई समझ बनी है ? उसी तरह शादी के वक्त घोड़ी चढ़ने की प्रथा मुझे मूर्खता लगती है। कुरुक्षेत्र में दलित दूल्हे को लोगों ने घोड़ी नहीं चढ़ने दी। बजाय घोड़ी चढ़ने के उस दूल्हे को एक तख्ती पर यह लिखकर ले जाना चाहिए था कि देखो तुम्हारी जातिवादी सोच की निशानी दुनिया को दिखे इसलिए घोड़ी नहीं चढ़ रहा। कार से जा रहा हूँ। कार्ड पर छपवाना चाहिए था कि दूल्हा राकेश जब रूपवती से बियाह करने जाएगा तो घोड़ी नहीं चढ़ेगा क्योंकि इलाक़े के जातिवादी लोग विरोध करते हैं और हम यह चाहते हैं कि हर बाराती को यह बात बताई जाए। स्वाभिमान की लड़ाई कातरता में क्यों बदल जाती है। क्या अब दलित नेतृत्व समझौतावादी ही हुआ करेगा? क्यों नहीं कोई दलित सांसद खड़ा होकर कहता कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म का रास्ता बताया है जो विहारों की तरफ जाता है न कि मंदिर की तरफ । समरसता, मंदिर प्रवेश, सहभोजन क्या है ? कोई अपने घर बुलाकर अपनी रोज़ की थाली में क्यों नहीं खिलाता। क्या मंदिर प्रवेश से जातिगत अहंकार समाप्त हो गए ? धर्म और संस्कृति के कुछ कचरों को कचरा ही समझना चाहिए। मंदिर प्रवेश पर पाबंदी एक कबाड़ है उसे क्या गले लगाना । कोई दलित नेतृत्व है कि नहीं इस देश में या सबको विधायक सांसद बनना है। अगर यही ख़्वाब है तो मंदिर प्रवेश की नौटंकी छोड़ लालबत्ती वाली कार के लिए अनुष्ठान करना चाहिए। बाबा साहब के इस्तीफे को भी सबने लाल बहादुर शास्त्री का रेल मंत्री पद से इस्तीफ़े का किस्सा बना कर रख दिया है। देश भर में रोज़ कितना कुछ होता है दलितों के साथ। किसी दलित मंत्री विधायक ने इस्तीफ़ा दिया ? क्या बाबा साहब ने यह कर इस्तीफ़ा दिया था कि मेरे बाद अब कोई मत देना। मंत्री बने रहना। राहुल कोठियाल से पुजारी ने कह दिया कि कौन दर्शन के लिए जा रहा है कैसे पता किस जाति का है। फिर मंदिर प्रवेश का क्या फायदा। मंदिरों को अपनी तरफ से जातिवाद तोड़ने दीजिये। उन्हे तख्ती टाँगने दीजिये कि यहाँ हर कोई आ सकता है और बता कर आ सकता है कि किस जाति का है क्योंकि हमारे पुजारी दलितों के घर भी जाते हैं। मंदिर प्रवेश सत्ता प्रवेश की नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके बाद भी तरुण विजय का प्रयास सीमित संदर्भों में साहसिक मानता हूँ। मंदिर और मज़ारों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर चैनलीय आंदेलन हुए। इससे कुछ हासिल नहीं होता । बड़े सवाल वहीं के वहीं रह जाते हैं । तरुण विजय ने अपना फ़र्ज निभाया इसलिए इस मामले में उनके साथ हूँ। उनकी जान सलामत है इससे राहत हुई है। दुआ करूँगा कि जल्दी स्वस्थ हो जाएँ। राहुल कोठियाल की रिपोर्ट पढ़ते समय एक बात की तरफ ध्यान गया। तरुण विजय के साथ गए दलित नेता दौलत कुँवर ने मंदिर प्रवेश के बाद ललकारा था। यह भी एक अतिरेक है। इससे हर चीज़ तात्कालिक बनकर रह जाती है। कायदे से प्रवेश के बाद सबको गले मिलना चाहिए था। अच्छे विचार विमर्श होने चाहिए थे ताकि आगे भी रिश्ता बना रहे। दौलत कुँवर जी को भीड़ लेकर मंदिर में जाने की जरूरत न पड़े। वर्ना इस प्रवेश का क्या फायदा कि एक बार के लिए पुलिस के साथ मंदिर गए और आ गए। मंदिर प्रवेश तो वह हुआ जब एक अकेला दलित भी जा सके। अव्वल तो उसे जाना नहीं चाहिए पर जो जाना चाहता है उसका सम्मान तो करना होगा। दलित नेता कुँवर ने ललकार कर माहौल को बिगाड़ा ही और एक सांसद की जान ख़तरे में डाल दी। इसलिए मन में प्रवेश का आंदोलन चलाइये मंदिर में प्रवेश का नहीं और हाँ तरुण विजय को हो सके तो एक गुलाब का फूल भेज दीजिये। उन्हें अच्छा लगेगा।


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