पदमपति शर्मा।
यह कहने में शायद ही किसी को हिचक होगी कि एक हजार साल बाद देश में वह राज आया है जहां सत्ता का शिखर पुरुष छद्म धर्मनिरपेक्षता का स्वांग नहीं करता और ‘ सबका साथ सबका विकास ‘ के मंत्र का जाप करने के बावजूद भारतीय संस्कृति को बेखौफ ओढ़ता है। देश की विरासत और धरोहरों को सर-आंखों पर रखते हुए अनथक देश की दशा और दिशा बदलने में सतत प्रयत्नशील है। जिस सिस्टम को 15 अगस्त 1947 में बदल जाना चाहिए था, उसको जिन लोगों ने अपने फायदे के लिए बरकरार रखा और लालची मीडिया को अपने पाले में रखते हुए जिन्होंने भ्रष्टाचार को लूटपाट में बदल दिया।
उस विकृत हो चुकी व्यवस्था को बदलने की प्रक्रिया की भी देश ने विगत दो वर्षों के दौरान शुरुआत होते देखा। सड़-गल चुके देश पर राज करने वाले कानून भी एक के बाद एक खत्म किए जा रहे हैं, इसमें भी संदेह नहीं। आम जन को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं को बिचौलियों के चंगुल से निकालने की दशा में भी स्तुत्य प्रयास हो रहा है। सरकार और जनता के बीच इससे दूरी कम होने लगी है। अंत्योदय की दिशा में जबरदस्त कदम उठाए गए हैं।
ग्रामोन्मुखी योजनाएं ही विकास को मंजिल तक पहुँचाएंगी। गांव शहर की ओर नहीं शहर गांव की ओर चल पड़ता अगर भूमि सुधार और जीएसटी जैसे बिल संसद से पारित हो गए होते। बुनियादी सुविधाओं की पहुंच ही गांवों को शहरों के साथ खड़ा करेंगी। जन-धन के अलावा देशवासियों को सुरक्षा बीमा जैसा उपहार कोई मामूली उपलब्धि नहीं और न ही सुरक्षा उपकरणों की खरीद में पारदर्शिता के समावेश को आप कमतर मानेंगे। स्टार्ट अप और मेक इन इंडिया जैसी अवधारणा एनडीए दो के सत्तारूढ़ होने के पहले कल्पनातीत थी, इसे भी हमें निस्संदेह स्वीकार करना होगा।
जो लोग पूछते हैं कि मोदी राज में क्या हुआ..? उनको यह करारा जवाब है। मगर आज की तारीख में करोड़ टके का सवाल यह कि इन उपलब्धियों को जनता के बीच पहुंचाने और उन्हें विपक्षी कुप्रचार के फंदे से बचाने का काम किसका है, मोदीजी और उनके मंत्रिमंडलीय सदस्यों का है ? नहीं, कतई नहीं। यह दायित्व भाजपा के जनप्रतिनिधियों और उसके आम कार्यकर्ताओं का है, जिन्हें लोगों को पिछली सरकारों के पापों को उजागर करने के अलावा वर्तमान सरकार द्वारा किए गए सकारात्मक बदलावों के प्रति जागरूक करना होगा। यह काम उनसे ही संभव है जो संघ से संस्कारित रहने के साथ ही जो निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर देश सेवा के प्रति संकल्पित हों।
यहां भाजपा को आत्मावलोकन यानी खुद में झांकने की जरूरत है। उसके नेतृ वर्ग को यह मंथन करना है कि भाजपा अलग चाल, चेहरा, चरित्र वाला दल आज भी है क्या? क्या उसमें भी कांग्रेसी संस्कृति हावी नहीं हो चुकी है? क्या आप का स्थान मैं ने नहीं ले लिया है, क्या हर कार्यकर्ता देने की बजाय पाने की लालसा नहीं रखता और क्या आज स्थानीय इकाई का चुनाव जीतते ही बोलेरो या क्वालिस का ख्वाब उसका प्रतिनिधि नहीं देखता ? इन तमाम सवालों पर क्या स्थिति है पार्टी की और यदि है वही तो उसका निराकरण भी खोजना होगा, अगर यूपी फतह करनी है।
महज केशव मौर्य को पार्टी का मुखिया नियुक्त करने और मुख्यमंत्री पद के लिए किसी ब्राह्मण की तलाश भर से काम नहीं चलने वाला। चुनाव कार्यकर्ता के बल पर जीते जाते हैं, नेताओं के सहारे नहीं। कांग्रेस की यूपी में दुर्गति का कारण यही है। हम यह हमेशा याद रखें कि वही नेतागीरी की बीमारी भाजपा में भी घर कर चुकी है।
ज्यादा नहीं तीन दशक पहले तक जनसंघ, जनता पार्टी और फिर भाजपा में तब्दील पार्टी के कार्यकर्ता को देख कर जो श्रद्धा उपजती थी, उसका लोप हो चुका है पहनावे से लेकर आचरण तक सब कुछ में साफ नकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है। कारण, स्पष्टत: कैडर बेस कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया का समाप्त होना है, दल के कर्णधारों को सोचना होगा कि राम मंदिर आंदोलन और मोदी लहर में पार्टी का जबरदस्त देशव्यापी विस्तार जरूर हुआ पर सिक्के का दूसरा पहलू यह कि पार्टी के मूल चरित्र में भटकाव भी होने लगा जो दुखद है। नेता जिन पर पार्टी के कार्यों को जनता के बीच ले जाने की जिम्मेदारी है, वे संघ से दीक्षित न होने की वजह से नितांत अनपढ़ लगते हैं।
इस समय देश में सहिष्णुता, सहनशीलता, दलित उत्पीड़न, जेएनयू और बेमुला प्रकरण को अनावश्यक उन लोगों द्वारा उछाला जा रहा है जिन्हें अपनी दुकानें बंद होती नजर आ रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि भाजपा ने मुखर होकर इनकी तार्किक काट नहीं की, आक्रमण का जवाब जबरदस्त प्रत्याक्रमण से नहीं दिया गया। संघ में जन्म से ही जातिवाद का स्थान नहीं रहा है, गांधीजी तक ने 82 साल पहले सार्वजनिक तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छुआछूत से मुक्त रहने को लेकर मुक्त कंठ से सराहना की थी। दलित उत्थान की बात राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ वोटों तक ही सीमित रही है।
संघ ही देश का एकमात्र सामाजिक संघटन है जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने वनवासी आश्रमों के माध्यम से आदिवासी, अकलियत और दलित सेवा में जुटा है। हो सकता है कि इधर सोच में बदलाव आ गया हो। क्योंकि संघ के उदर से जन्मे दल के प्रवक्ता मनुवादी आरोपों के प्रत्युत्तर में सामने वाले को संघ की दलित सेवा के बारे में बता कर खामोश नहीं कर पाते। संघ के सामाजिक उत्थान की कोशिशों को सामने लाने का दायित्व पार्टी का है, उसका नहीं। मैंने बचपन से ही देखा है संघ में सहभोज की परम्परा। कौन बनाता है, कौन खाता है और कौन खिलाता है, किसी की जाति का पता नहीं होता।
याद है हमें साठ के दशक में जयप्रकाश नारायण ने जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो आंदोलन किया था जो टांय टांय फिस होकर रह गया था। समय आ गया है कि विश्व हिंदू परिषद आगे आए और संतों को साथ लेकर देश में समरसता आंदोलन के तहत ‘ हर हिंदू को जनेऊ से जोड़ो और जात तोड़ो।’ अभियान चलाए साथ ही मोदी सरकार से यह मांग की जाय कि आवेदन में मजहब और जति के कालम मिटा दिए जाएं। जो आरक्षण के तहत हैं, वे संख्या डाल दें बस। दूसरा यह कि जो जनसंघ के जमाने के कार्यकर्ता हैं और जिनको रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है, उन्हें झाड़पोंछ कर कूड़ेदान से बाहर निकालते हुए उन्हें सक्रिय करें आज की पीढ़ी को उत्प्रेरित करने के लिए।
मैंने सुना कि उनके लिए कहा जाता है कि वे कहीं नहीं जाने वाले.. मगर ऐसी फब्ती कसने वाले शायद नहीं जानते कि उनकी निष्क्रियता पार्टी की भारी क्षति है। मैं बनारस में जब पुरनियों को देखता हूं और नयो से तुलना करता हूं तो एक टीस सी उठती है, दिल में दर्द होने लगता है। यदि भाजपा यह सोचती है कि मोदी के बल पर वह चुनावी वैतरणियां पार कर लेगी तो वह दिवा स्वप्न देख रही है…दिल्ली और बिहार में लगे सदमे के बावजूद।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह आलेख उनके फेसबुक टाईमलाईन से लिया गया है।
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