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धीर-धीरे बात इंसान की होगी, तब कांग्रेस-बीजेपी भी नहीं होगी

खरी-खरी            May 21, 2016


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी। निगाहों में सोनिया गांधी और निशाने पर राहुल गांधी। वार भी चौतरफा। कहीं अडंगा लगाने वालों की हार का जिक्र तो कहीं कांग्रेस मुक्त भारत का फलसफा। कोई अखक्कड़पन से नाराज,तो कोई बदलते दौर में कांग्रेस के ना बदलने से नाराज। किसी को लगता है सर्जरी होनी चाहिये, तो कोई फैसले के इंतजार में। लेकिन क्या इससे कांग्रेस के अच्छे दिन आ जायेंगे? यकीनन यह सवाल हर कांग्रेसी को परेशान कर रहा है होगा कि चूक हो कहां रही है? या फिर कांग्रेस हाशिये पर जा क्यों रही है? तो सवाल तीन हैं। पहला,क्या बदलते सामाजिक-आर्थिक हालातों से कांग्रेस का कोई जुडाव है? दूसरा, क्या सड़क पर सरोकार के साथ संघर्ष के लिये कद्दावर नेता बचे हैं? तीसरा, क्या एक वक्त का सबसे महत्वपूर्ण कार्यकत्ता "वोट क्लेक्टर " को कोई महत्व देता है? यकीनन गांधी परिवार के सियासी संघर्ष में कोई बड़ा अंतर नहीं आया। लेकिन गांधी परिवार यह नहीं समझ पाया कि समाज के भीतर का संघर्ष और तनाव बदल चुका है। राजनीति को लेकर जनता का जुड़ाव और राजनीति के जरिये सत्ता की समझ भी आर्थिक सुधार के बाद यानी 1991 के बाद यानी बीते 25 बरस में खासी तेजी से बदली है और इस दौर में कांग्रेस इतनी ही बदली है कि बुजुर्गों को सम्मान देने और युवाओं के पसीने को महत्व देने की कांग्रेसी परंपरा ही कांग्रेस से समाप्त हो चुकी है। दिल्ली के सियासी गलियारे के प्रभावशाली कांग्रेस के बड़े नेता मान लिये गये और 10 जनपथ के भीतर झांक कर बाहर निकलनेवाला सबसे ताकतवर कांग्रेसी माना जाने लगा। तो कांग्रेस का मतलब अगर गांधी परिवार हो गया तो समझना यह भी होगा कि कांग्रेस का संगठन,कांग्रेस का कैडर, कांग्रेस का नेतृत्व,चाहे पंचायत स्तर पर हो या जिले स्तर पर या फिर राज्य स्तर पर । कमान किसी के भी हाथ में हो, कमान थामने वाला अपनी जगह राहुल गांधी या सोनिया गांधी ही है। यानी काग्रसी ना तो गांधी परिवार के औरे से बाहर आ पाया है और ना ही आजादी के संघर्ष के उस नोस्टालजिया से बाहर निकल पाया जहां बात हिन्दू, मुस्लिम, दलित, आदिवासी से बाहर निकल कर इंसान का सवाल सबसे बड़ा हो जाये और इंसान को एक समान मानकर राजनीतिक सवाल देश में उठने चाहिये इससे भी सियासी दलों ने परहेज किया तो वजह राष्ट्रीय राजनीति का दिल्ली में सिमटना हो गया। क्योंकि दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता काम कैसे करती है और सत्ता के लिये कैसी सियासत होती है यह इससे भी समझा जा सकता है कि दिल्ली में असम की जीत को लेकर बीजेपी के जश्न का आखिरी सच यह भी है कि अगर एजीपी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ना होता तो वहां बीजेपी सरकार भी ना होगी और कांग्रेस अगर एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन कर लेती तो इतना निराश भी ना होती । लेकिन सवाल असम की जीत हार का नहीं बल्कि सवाल बीजेपी और कांग्रेस को अब जीत के लिये क्षेत्रीय सहयोगियों की जरुरत लगातार बढ़ रही है यह मौजूदा दौर का सच है। क्योंकि सही मायने में बीजेपी ने अपने बूते हरियाणा, गुजरात, राजस्थान , मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ और गोवा यानी छह राज्यों में सरकार बनायी है। तो कांग्रेस ने अपने बूते कर्नाटक, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम में सरकार बनायी है और देश के बाकी राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग के साथ ही कांग्रेस बीजेपी है। या फिर क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने बूते सरकार बनायी है। यानी बीजेपी हो या कांग्रेस। सच तो यही है कि दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां धीरे—धीरे क्षेत्रिय पार्टियों के आसरे होती चली जा रही हैं और क्षेत्रीय पार्टियो की ताकत यही है वह अपने इलाके को वोटरों को दिल्ली से उनका हक दिलाने से लेकर खुद अपने सरोकार भी वोटरों से जोड़ते हैं। यानी बीजेपी चाहे खुद को पैन इंडिया पार्टी के तौर पर देखे। या कांग्रेस चाहे खुद को आजादी से पहले की पार्टी मान कर खुद ही भारत से जोड़ ले। लेकिन सच यही है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनो आपसी टकराव में सिमट ही रही है और चुनावी जीत के लिये क्षेत्रिय पार्टियों के कंधे पर सवार होकर एक दूसरे के साथ शह-मात का खेल खेल रही है और इस खेल में वोटर कैसे ठगा जाता है और सत्ता कैसे बनती है यह मुस्लिम बहुल टाप चार राज्यों से समझा जा सकता है क्योंकि जम्मू कश्मीर में 68.3 फिसदी मुसलमान है और पीडीपी के साथ बीजेपी सरकार चला रही है।असम में 34.2 फीसदी मुसलमान है और एजीपी व बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रहे हैं। फिर बंगाल और केरल में करीब 27 फिसदी मुसलमान हैं और पहली बार दोनों ही राज्यों में बीजेपी उम्मीदवारों ने चुनावी जीत की दस्तक दी है। तो सवाल कई हैं। मसलन , क्या बीजेपी को मुस्लिम विरोधी बताना बीजेपी को ही लाभ पहुंचाना है? क्या खुद बीजेपी चाहती है कि वह हिन्दुत्व के रंग में दिखे जिससे मुस्लिम विरोध की सोच बरकरार रहे? फिर वोटर धर्म-जाति में बंटता है लेकिन सत्ता का चरित्र हिन्दु-मुस्लिम , दलित आदिवासी नहीं देखता? क्योकि सारा खेल वोट बैंक बनाकर सत्ता तक पहुंचने का है और सत्ता का गठबंधन वोट बैंक की थ्योरी को खारिज कर कामन मिनिमम प्रोग्राम पर चलने लगता है। तो हो सकता है कि वाक़ई आज लगभग 68 साल बाद कांग्रेस देश में अपने राजनीतिक सफ़र के आख़िरी पड़ाव पर हो और बीजेपी बुलंदी पर। लेकिन सवाल ये भी है कि बीजेपी की ये बुलंदी कहीं उसके भी ख़ात्मे की शुरूआत तो नहीं। क्योंकि 1984 में में बीजेपी अगर लोकसभा में 2 सीट पर सिमट के रह गई तो कांग्रेस के पास 403 सीटें थीं। आज तस्वीर उलट चुकी है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस को जनता ने आज नकार दिया है, क्या कल को इन्हीं हालात पर बीजेपी नहीं पहुंच सकती है? इसकी बहुत बड़ी वजह ये है बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति का लगभग एक सा होना। क्योंकि दोनों ही पार्टियों ने अपने राजनीतिक सफ़र में फूट डालो शासन करो नीति को ही अपनाया। 1989 में विश्व हिन्दू परिषद के रामजन्मभूमि शिलान्यास आंदोलन के दौरान भागलपुर में दंगे हुए। तो बिहार में शासन कांग्रेस का था। 1992 में बीजेपी की अगुवाई में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी तो केन्द्र में कांग्रेस थी। 1992 में महाराष्ट्र में शिवसेना के भड़काने पर दंगे हुए तो केन्द्र और महाराष्ट्र में शासन कांग्रेस का था। श्रीकृष्णा रिपोर्ट ने बाल ठाकरे और शिवसेना को दंगों के लिये दोषी माना लेकिन कांग्रेस सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। ऐसे ही ना जाने कितने उदाहरण हैं जिसमें साफ़ है कि दंगे अगर बीजेपी या उसके सहयोगियों के भड़काने पर हुए तो कांग्रेस ने समाज को बांटने वाले इन दर्दनाक हादसों पर रोक लगाने के लिये सही कदम नहीं उठाए। समाज बंटता गया और कांग्रेसी सत्ता चलती रही। जब तक चल सकी। आज बीजेपी भी उसी राह पर है। अफ़वाहों के दम साप्रदायिक हिंसा। बीफ़ के नाम पर हत्याएं। केन्द्र की ख़ामोशी। नारों की कसौटी पर देश द्रोह और देश भक्ति का तय होना। इतिहास को दोबारा लिखे जाने की कोशिश और इसके बरक्स हर साल 1 करोड़ दस लाख नौजवानों का रोज़गार के बाज़ार में उतारना और उसमें से ज़्यादातर का बेरोज़गार रह जाना। शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी के 6 फ़ीसदी के आबंटन की मांग। तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय किये गए जीडीपी के 1.2 फ़ीसदी हिस्से को लगभग दोगुना करने की दरकार। और देश की बड़ी आबादी पर सूखे का क़हर....। जाहिर है विकास के अकाल से लेकर पानी के सूखे से जूझते लोगों को नारा नहीं नीर चाहिये। कांग्रेस समाज को बांटने का काम छुप कर करती थी। बीजेपी की सियासत खुली है तो वह कमोबेश खुल कर रही है। और आखरी सवाल बीजेपी को लेकर इसलिये क्योकि कश्मीरी पंडितो के सवाल धाटी में अब भी अनसुलझे हैं। जबकि सत्ता में पीडीपी के साथ बीजेपी ही है। तो बात कांग्रेस से शुरु हुई और खत्म बीजेपी पर हुई तो समझना होगा कि आने वाले वक्त में कांग्रेस या बीजेपी की गूंज से ज्यादा क्षेत्रिय दलों का उभार इसलिये होगा क्योकि धीर धीरे बात हिन्दु-मुसलमान की नहीं इंसान की होगी


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