बिदेस गमन,ऊसर मरन,ताहू पे कछु और! सूर्यप्रताप और अमिताभ की खोपड़ी पीसने में जुटी सरकार

खरी-खरी, वीथिका            Aug 06, 2015


कुमार सौवीर बिदेस गमन, ऊसर मरन, ताहू पे कछु और सूर्यप्रताप और अमिताभ की खोपड़ी पीसने में जुटी है सरकार ऊसर में मरे जंगजू लोगों के बल पर नहीं आता है समाजवाद गर्व से छेडिय़े "न" कहने के अधिकार का आन्‍दोलन पण्‍डीजी जब बांचने लायक रहेंगे, तभी तो काल-पत्री का फलादेश समझा पायेंगे। पूरा मसला ओखली में डाल कर मूसल से कूटने की फितरत की बलि पर चढ़ गयी है। फिलहाल तो अब जो लोग दुखी हों, वे अपना-अपना माथा पकड़े, रेलवे लाइन के किनारे सुबह-सुबह लोटा थामे हुए उकडुू बैठे रहें। बाकी जो मलाई काटने की जुगुत में हैं, उन्‍हें चाहिए कि वे उसी ओखली में रखी खाेपड़ी पर मूसल दर मूसल कूटते ही रहें। जो कुछ करने लायक हैं, वे भी निष्‍प्राण-श्‍लथ भाव से अपना समय काट रहे हैं। निदान फिलहाल कुछ भी नहीं है। तो किस्‍सा यह है कि एक ज्ञानी पंडी जी को एक नदी में उतराती एक खोपड़ी मिल गयी। गांववालों का कहना था कि यह खोपड़ी पहले गांव के श्‍मशान में कुछ दिन पहले एक अघोरी लाया था। उसका कहना था कि यह खोपड़ी किसी तेलिया-मसान की थी। बहरहाल, बाढ में श्‍मशान बह गया, तो साथ ही खोपड़ी भी गप्‍पड़-गुम्‍म, गुम्‍म-गप्‍पड़ करते हुए जल के प्रवाह में कलाबाजी करने लगी। नजारा भयावह लग रहा था। लेकिन डर-फर तो आम आदमी में होता है, जिसमें गूदा ही नहीं होता है। जबकि जो ज्ञानी-मानी होता है, वह डर से नहीं डरता। पण्‍डीजी भी डरते नहीं थे। बल्कि वे हैरान थे कि यह खोपड़ी किसी बेहद सकर्मक बुद्धिशाली व्‍यक्ति की है, जिसमें समाज को बदलने-सुधारने का बेहिसाब माद्दा है। नदी में उसकी उछलती-पलटती खोपड़ी पंडीजी के उद्वेलन और आवेगों को बेहाल कर रही थी। अब चूंकि पंडीजी को इस खोपड़ी के प्रति अपने समाधान के लिए प्रश्‍नों की जरूरत होती थी, और सुयोग से यह प्रश्‍न उस खोपड़ी की माध्‍यम में खुद ही उपस्थित हो गया। पण्‍डीजी ने कुर्ता-बंडी उतर फेंका और लांग बांध कर कूद गये हाहाकार करती गंगा मइया की लहरों पर। निकाल लिया खोपड़ी। लेकिन दूसरों की आंख से बचाके। पंडीजी को भी खूब पता था कि उनके घर में भी प्रशासन नाम का कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। जिसकी जो समझ में आता है, वह वही कानून छांटना शुरू कर देता है। एक ही घर में झौव्‍वा भर कई चाचा-फूफा-मामा-ममिया ससुर, दर-ससुर, बहनाई, साले, दरसाले, बडका बप्‍पा, छोटका बप्‍पा। उस पर उनके दास-दासिया, नौकर-चाकर। उनके चाकर-चाकरी। चाकर्णी यानी महिलाएं तो और तेज होती हैं आजकल। बहुत सोचा पण्‍डीजी ने, आखिरकर अपने निजी कक्ष में उसे पोटली बनायी और कांख में दबाकर निजी-कोठरी में घुस गये। पूजाघर के दो-छत्‍ती पर पीछे घुसेड दिया कि उसका मरण-साइत और क्रिया-कारण बाद में समझेंगे। सुबह कमरा बंद कर के पूजन किया फिर खोपड़ी को अनावृत किया। मंत्र पढ़ा। लेकिन एक तत्‍व ही मिल पाया। बिदेस गमन, ऊसर मरन, ताहू पे कछु और। अब यह कछु और। नया-काम-धाम क्‍या है, असमंजस कठिन। पंडीजी चकराये। खोपड़ी वापस बांध कर दो-छत्‍ती पर रख दिया। ठीक उसी तरह जैसे सूर्यप्रताप सिंह और अमिताभ ठाकुर को ढक्‍कन बनाकर उन्‍हे पोटली में बांद कर दो-छत्‍ती पर टिका दिया था। यह खोपड़ी असामान्‍य थी। एक ने 33 साल पहले आईएएस की नौकरी ज्‍वाइन की थी और कई बेमिसाल काम-कारनामे कर-गुजारा था। उधर आईपीएस सन-91 का था। बहुत माहिर था अपने काम में। यह दोनों ही अपने दायित्‍वों और लक्ष्‍यों को लेकर विदेश गमन गये थे। देश और समाज की चिन्‍ता में विदेश गमन। लेकिन नतीजा, कभी रामवीर जैसे गुण्‍डों ने उसे झंपडियाय दिया तो कभी सीएम आवास में खिल्‍ली उड़ा दी गयी। नतीजा राजनीतिक ऊसर ने उन्‍हें बर्बाद करने की कोशिश की। बची खोपड़ी। नदी में डूब रहे थे, और अब उनकी खोपड़ी ही शेष बची थी जो पंडीजी ने उन्‍हें पोटली में बांध कर दो-छत्‍ती पर रख दिया। खैर, पंडीजी अमराई पर निकल गये। जबकि कनखी से देख रही थीं छोटके बप्‍पा वाली चचाइन। उनकी समझ में कुछ आया ही नहीं। दो-छत्‍ती की ओर हाथ बढाया तो वही पोटली नीचे गिरी और मूसल में टक्‍क से गिरी। खोला तो पाया कि यह तो खोपड़ी है, लेकिन गिरने के चलते कई टुकड़े हो चुकी है। खोपड़ी चिटकते देखते ही चचाइन बेहाेश हो गयीं। कई और मौसेरी-ममेरी और ननदी-भौजी लोगों ने मिल कर उन्‍हें चेहरे पर छींटा मारा तो चचाइन होश में आ गयीं। चौपाल चुपचाप बनी। तैयार किया गया कि मामला गोल कर लिया जाए। किसी को समझ में ही नहीं आया, जब उन्‍होंने ओखली में मूसल से गिरी खोपडी को टूटते देखा था, तो उसे फौरन उसे भुसैला या गोबरही अथवा भारी वजन देकर तालाब में क्‍यों नहीं निपटा दिया। अभी यह सोचा ही जा रहा था कि अभी घर की नंद-भौजाइयों ने मूसल थामा और दे हाय दे हाय की ध्‍वनि देते हुए ओखली में उन खोपडि़यों को कूट कर पाउडर बना दिया और फिर वही पोटली में उसे बांध कर दो-छत्‍ती पर रख दिया। शाम को पंडीजी लौटे तो पोटली उतारी। अगर-धूप लगाया। आचमन कराया। पोटली खोली। तो चौक गये। लेकिन चूंकि ज्ञानी थे, इसलिए समझ गये कि जिस आदमी की खोपड़ी की करम-गति नायाब थी। सद्गति इसी को कहते हैं कि एक को निलम्‍बन मिल गया तो दूसरे का वीआरएस जैसा गंगाजल तक मुहैया नहीं। उधर अब खबर है कि यादव सिंह के मामले की पैरवी के लिए यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपना वकील खड़ा करेगी। प्रदीप शुक्‍ला को मण्‍डलेश्‍वर वाली गद्दी बनाने की तैयारी हो चुकी है। उनकी पत्‍नी आराधना को एक नहीं, दो पद दिये गये हैं। यादव सिंह की सुरक्षा बढा दी गयी है। पत्रकारों के दलाल-शिरोमणि कभी उधर से माल खींच रहे हैं तो कभी इधर से। यादव और गायत्री प्रजापति का नाम दबाने के लिए। नाम कम छपेगा, तो मामले पर राख भी जल्‍दी ठण्‍डी होगी। फिर चुपचाप खैंच लिया जाएगा फाइल से नाम। वंश तो इन्‍हीं लोगों के नाम पर चलता है ना। देश तो इन्‍हीं लोगों के बलते चलेगा। इन ऊसर में मारे गये लोगों से तो समाजवाद आने से रहा। वह दौर गया जब समाजवादी धीरे-धीरे आता था। अब तो जिसके पास भी आता है, हनहनउव्‍वा आता है। छप्‍पर फाड़ के आता है। बिदेस गमन, ऊसर मरन, ताहू पे कछु और।


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