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बैंक से मिलने वाले नोट पर जा टिका लोकतंत्र का नया राग

खरी-खरी            Dec 18, 2016


punya-prasun-bajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी।

जब संसद सड़क के सामने छोटी लगने लगे तो फिर नेताओं का रास्ता जाता किधर है? सड़क के हालात बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश के करीब 55 करोड़ लोगों ने वोट डाले लेकिन आज की तारीख में शहर दर शहर गांव दर गांव 55 करोड़ से ज्यादा लोग सड़क पर उस नोट को पाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं जिसका मूल्य ना तो अनाज से ज्यादा है और ना ही दुनिया के बाजार में डॉलर या पौंड के सामने कहीं टिकता है। फिर भी पहले वोट और अब नोट के लिये अगर सड़क पर ही जनता को जद्दोजहद करनी है तो क्या वोट की तर्ज पर नोट की कीमत भी अब प्रोडक्ट नहीं सरकार तय करेगी। क्योंकि मोदी सरकार को 31 फीसदी वोट मिले।

यानी खिलाफ के 69 फीसदी वोट का मूल्य संसदीय राजनीति में कोई मायने रखता ही नहीं है। ठीक इसी तरह 84 फीसदी मूल्य के नोट के खत्म होने के बाद 16 फीसदी मूल्य की रकम महत्वपूर्ण हो गई। यानी रोजाना चार हजार रकम के खर्च करने का समाजवाद सड़क पर आ गया। तो क्या समाजवाद के इस चेहरे के लिये देश तैयार हो चुका है या फिर जिस संसद की पीठ पर सवार होकर लोकतंत्र का राग देश में गाया जा रहा है, पहली बार संसदीय लोकतंत्र को ही सड़क का जनतंत्र ठेंगा दिखाने की स्थिति में आ गया है। और यहीं से बड़ा सवाल निकल रहा है कि आखिर बुधवार की सुबह जब संसद शुरु हुई तब राजनीतिक सत्ता के कर्णधारों का रास्ता गया किस तरफ। क्योंकि संसद का महत्व तो तभी है जब संसद में जनता के हित में कोई निर्णय हो या फिर संसद के सरोकार जनता से जुड़े।

और सच यही है कि पहली बार राजनीतिक सत्ता ने संसदीय राजनीति की धारा के खिलाफ निर्णय लिया है। नया संकट उस पारंपरिक राजनीति के सामने है जो अभी तक ये सोचती रही कि संसद के दायरे से सड़क को संभाला जा सकता है। तो सवाल तीन हैं, पहला क्या संसद छोड़ सड़क की राजनीति को थामना ही अब हर राजनीतिक दल की जरुरत है? दूसरा ,क्या संसदीय राजनीति के भीतर का भ्रष्टाचार नई परिभाषा गढ रहा है? तीसरा, क्या संसदीय राजनीति का चेहरा इतना विकृत हो चला है कि पीएम ने खुद को ही जनता के साथ जोड़ लिया है।

यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद ही जब सड़क के जनतंत्र को संभालने की स्थिति में नही होगा तो क्या ये कहा जा सकता है कि भारत बदल रहा है। या फिर फेल भारत सफल होने के लिये छटपटा रहा है। क्योंकि बीते 70 बरस की सियासत ने दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश को बाजार में बदल दिया है, नागरिकों को कन्ज्यूमर बना दिया है। उत्पादन से बड़ा नोट हो गया है। खेती से ज्यादा कमाई सेवा क्षेत्र ने समेट ली और संसद की नुमाइन्दगी भी रईसों के इर्द-गिर्द घुमड़ने लगी, नीतियां पैसे वालों के लिये बनने लगीं। योजनाओं के दायरे में 80 फीसदी नागरिक पैकेज पर टिक गया। 20 फीसदी उपभोक्ता के लिये बजट बनाया जाने लगा तो ऐसा फैसला चाहे अनचाहे देश को ऐसे मुहाने पर खड़ा तो कर ही गया है, जहां से हर राजनेता का रास्ता अब संसद की तरफ नहीं सडक की तरफ जाता है। क्योंकि सडक की सियासत का रास्ता अभी भी एक रुपये को महत्व देता है और संसद के भीतर 500 या दो हजार के नोट मायने रखते हैं। कभी नोट को ध्यान से देखिये तो सिर्फ एक रुपये की जिम्मेदारी भारत सरकार लेती है, बाकि हर नोट पर रिजर्व बैंक धारक को नोट देने का वायदा करता है।

ये ठीक उसी तरह है जैसे खेत खलिहानों में किसानों को बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मिल सके इस जिम्मेदारी की बात तो भारत सरकार करती है। लेकिन उपजाये गये अनाज की कीमत बाजार में होगी क्या ये भारत सरकार नहीं बल्कि मंडी चलाने वाले दलाल तय करते हैं। तो सोचना शुरु कीजिये आखिर क्यों देश की इकनॉमी नोटों की अर्थव्यवस्था पर चलायी जा रही है ना कि उत्पादन, खेती और मानव संसाधन पर, आखिर ऐसे हालात क्यों बनाये जा रहे हैं, जहां किसान की फसल नोट के सामने बेबस है। उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवा छात्र अनपढ़ करोड़पति के सामने बेबस हैं और अपनी ही कमाई को लेने के लिये हर नागरिक बैंक के सामने बेबस हैं।

तो क्या भारत की इकनामी धीरे—धीरे व्यवसायिक बैंकों के खाली खातों में रकम लिखकर और भरकर आगे बढ़ कर रही है। यानी देश को बाजार में बदलने के बाद उपभोक्ता संस्कृति का असल चेहरा अब सामने आ रहा है जब बाजारों की चकाचौंध भी दुनिया के सबसे ज्यादा उपभोक्ता वाले देश में इसलिये थम गई है क्योंकि ना दिखाई देने वाली इकानामी यानी नोट की कीमत सोना, चादी, जमीन, घर , अनाज से भी ज्यादा कीमती हो गई है और नोट के जरीये राजनीतिक सत्ता ही जनता से सिर्फ वायदा कर रही है कि अच्छे दिन आ जायेंगे। ठीक उसी तरह जैसे नोट पर रिजर्व बैक धारक को वायदा करता है। यानी सच पर अभासी सच हावी हो चला है और अभासी सच का हथियार है बैंकिंग सर्विस यानी बैंकिंग सर्विस ही अब देश की इकनॉमिक सर्विस होगी, ये संकेत तो साफ हो चले हैं।

तो जिस बैंक की टकटकी लगाये हर आदमी आज देश में देख रहा है उस बैंकिंग सर्विस का सच भी समझ लीजिये। यही वह बैंक हैं, जिनसे विजय माल्या कर्ज लेकर बिना चुकाये लंदन भाग सकते हैं यही वो बैंक है, जिनसे कर्ज लेकर ना चुका पाने पर किसान खुदकुशी करता है। ये वही बैंक हैं जिनका देश के 20-30 औघोगिक घरानों के पास बैंक का सवा लाख करोड़ से ज्यादा पड़ा है लेकिन वह बैंक को लौटा नहीं रहे और बैंक ले नहीं पा रहा।
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ऐसे में दो सवालों को समझना होगा पहला, बैंकों में पैसा देश के नागरिकों का ही है। दूसरा,बैंक का 90 फीसदी पैसा सरकार या उघोगपति कर्ज पर लेते हैं। यानी आज जिस तरह जनता अपने ही रुपयों को पाने के लिये नोट बदल रही हैं। अगर देश के नागरिक सोच लें कि वह बैंकों से सारा पैसा निकाल लेंगे तो क्या बैंक उसे सारा पैसा देने की स्थिति में होगा? यकीनन नहीं। तो जरा बैंकिंग सर्विस के जरीये उन हालातों को समझें जहा आप एक लाख रुपये बैक में जमा कराते हैं। बैंक उद्योगों से ब्याज लेकर 90 हजार रुपये कर्ज में दे देता है। 90 हजार लौटने पर बैंक 81 हजार फिर ब्याज लेकर कर्जपर दे देता है। यानी जनता के पैसे से बैंक ब्याज लेकर जनता के पैसे को ही उद्योगों या कारपोरेट को कर्ज देता है। बैंक की अपनी लागत कुछ नहीं होती, लेकिन बैंक का टर्न ओवर बढता जाता है औऱ इस प्रक्रिया में रुपये की कीमत गिरती जाती है।

यानी अगर लोग ये सोच लें कि कि बैंक से रुपया निकाल कर वह जमीन, सोना या अनाज ही खरीद लें तो बैक के पास इतनी रकम होगी ही नहीं। यानी जो बड़े बुजुर्ग आज बैंक की लाइन में खड़े होकर अपने ही पैसों के लिये तरस रहे हैं अगर वह ये सोच रहे होंगे कि पहले का समय ही ठीक था, जब सामान बदलकर जिन्दगी चलती थी तो समझना होगा कि 1933 में बैंकों ने गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म इसीलिये किया ताकि रुपये की ताकत खत्म हो जाये। यानी पहले जितना रुपया लेकर बैंक में व्यक्ति का जाता था उतने का सोना-चांदी मिल जाता था। अब ये संभव नहीं है कि जितना रुपया आपने बैंकों में जमा किया उस कीमत में एक बरस बाद उतना ही सामान मिल जाये जो जमा करते वक्त था और अगर किसी देश को रुपये की जरुरत होगी तो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ देशों को कर्ज देते हैं। देश कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में नोट छापते हैं फिर महंगाई बढती है, समाज में असमानता बढ़ती है। और माना यही जाता है कि बैंकिंग सर्विस के जरीये ही सत्ता अपने नागरिकों पर और ताकतवर देश कमजोर देशों पर राज कर अपनी नीतियों को लागू कराते हैं। तो लोकतंत्र का नया राग संसद से नहीं बैंक से मिलने वाले नोट पर जा टिका है।



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