भक्त गालियां क्यों देते हैं वही सदियों पुरानी

खरी-खरी, वीथिका            Mar 19, 2016


chaitanya-naagar-blogerचैतन्य नागर। मनोविज्ञान कहता है कि गालियां अक्सर हंसी-मज़ाक़ का आवरण ओढ़ कर आती हैं। आप अपशब्दों को मज़ाक़ की शक्कर में लपेट कर पेश कर देते हैं, पर ग़ौर से देखें तो भीतर ग़ुस्से में लिपटा लाल-पीला एक चेहरा दिखेगा। आप किसी का मज़ाक़ इसलिए उड़ाते हैं क्योंकि या तो आप उस व्यक्ति से डरते हैं, या फिर सामाजिक ‘शिष्टता’ की परवाह करते हैं। फ्रायड ने गालियों के बारे में कहा कि जिस बन्दे ने अपने दुश्मन को पत्थर से मारने की बजाय, गाली ‘फेंक’ कर मारा, उसी ने सभ्यता की नींव रखी! आपने देखा होगा कि भक्त, और एक ख़ास क़िस्म के राजनीतिक भक्त जो कुछ दिनों से देश में जगह-जगह बेतहाशा गुलाटी मार रहे हैं, वह किसी तर्क में, वाद-विवाद, संवाद में जैसे ही ख़ुद को कमज़ोर पाते हैं, तुरंत गाली-गलौज पर उतर आते हैं। भक्त गाली क्यों देता है? क्या भक्त कायर, सामाजिक नैतिकता की परवाह करने वाला, सभ्यता का ख्याल रखने वाला एक संवेदनशील व्यक्ति है और उसे अपने बदतमीज़ और बदज़ुबान होने की इमेज की फ़िक्र होती है? आप भक्त के भगवान को बुरा भला कहें, वे आपको गालियों से पाट देते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे कोई क्रिएटिव गालियां देते हों, वही सदियों पुरानी गालियां जो इस देश का बच्चा-बच्चा छुटपन से ही गली मोहल्ले स्कूल में सुनता और दोहराता है। वैसे आपको बताऊं काशी में सबसे क्रिएटिव गालियां निर्मित और प्रयुक्त होती हैं। मिठाइयां और गालियां बनाने में बनारस का कोई जोड़ नहीं साहब! मुंह में ठूंसे हुए पान की पीक को भेदते हुए जब बनारसी ह्रदय से गाली का प्रवाह निकल पड़ता है, तो आनंद का जो दुर्लभ कॉम्बिनेशन बनता है, वो बाहरी लोगों को नसीब कहां! हो सकता है जल्दी ही कुछ बड्डे बाहरी लोगों को जल्दी ही नसीब हो जाए! फ़िलहाल, थोड़ा विश्लेषण किया जाए कि भक्त गाली देते क्यों हैं? आइए, ज़रा इस अद्भुत जीव की अंतरात्मा में झांके तो, उसका भी दुःख दर्द समझें! 1. भक्त अपने जीवन में लम्बे समय तक किसी मज़बूत बौद्धिक/भावनात्मक आधार के बग़ैर जी रहा होता है। 2. लम्बी जीवन यात्रा के बाद आख़िरकार उसे एक व्यक्ति, कोई काल्पनिक देवी-देवता या भोंडी विचारधारा प्राप्त होती है जो पायल झनकाती हुई उसके तनहा दिल के आकाश-से सूनेपन को एक झटके में भर देती है। 3. उसे अचानक गहरी मानसिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा का अनुभव होने लगता है। एक ज़मीन मिलती है जहां वह खड़ा हो जाता है, ज़रूरत पड़ने पर आराम से बैठ भी जाता है, पालथी मार कर। चाहे तो शीर्षासन भी कर सकता है। बकालोलासन तो बड़े मजे से कर सकता है। 4. वह गहन भक्ति भाव का अनुभव करता है। श्रद्धा, समर्पण, और उससे उपजे ‘आनंद’ में लहालोट होता है, दूसरों को अपने जैसा बना कर उसकी सुरक्षा का भाव और मजबूत हो जाता है। वह लगातार अपनी बौद्धिक और मानसिक ऊर्जा इस भक्ति भाव में इन्वेस्ट करता चला जाता है। अपने सभी वैचारिक और भावनात्मक अंडे वह एक ही टोकरी में भरता चला जाता है। अंध-भक्ति में उसे यह समझ नहीं आता कि जहां एक अंडा सड़ा हो, बाकी को तो सड़ना ही है। (शाकाहारी इसे अंडे की जगह सेब पढ़ें!) 5. एक दिन भक्त को अचानक कोई अ-भक्त मिलता है जो अपनी बौद्धिक और तार्किक क्षमता से उसके भक्ति भाव पर प्रहार करता है। भक्त तिलमिला उठता है। वह यह तो समझता है कि वह गलत है, पर उसके पास कोई चारा नहीं बचता। मूढ़ता की चट्टानों से सर टकरा-टकरा कर इतना श्रम और समय देकर उसने अपनी बुद्धि को कुंद किया होता है, कि अब वह चाहे तो भी रूठी हुई प्रज्ञा उसके पास लौट कर नहीं आ पाती। यदि आती भी है तो किसी साध्वी के रूप में। वह उसे नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। पर सामाजिक, कानूनी व्यवस्था आसानी से इसकी अनुमति नहीं देती। तभी उसके कुंद मस्तिष्क में यह विचार उपजता है कि वह गाली गलौच का सहारा ले, जिससे वह भी बचा रहे और अ-भक्त भाग खड़ा हो; भक्त के पावों तले से खिसकी हुई ज़मीन वापस लौट आए। तो वह बल भर गरियाता है, अधिकतर गालियां अ-भक्त के परिवार वालों, स्त्री-पुरुषों के देह के अधोभाग में स्थित अंगों के विकृत नामों से उत्पन्न होती हैं। गाली देना भक्त की मजबूरी होती है। वह भक्त कोई संघी या भाजपाई हो यह ज़रूरी नहीं, वह मुल्ला, ओवैसी-वादी भी हो सकता है, मंदिर-मस्जिद के तबेले की भैंस या भैंसा हो सकता है, या फिर आशिक-माशूक भी हो सकता है। भक्त का रंग केसरिया हो ज़रूरी नहीं। कभी-कभी लाल और हरा तो अक्सर होता है। भक्त की कोई जाति नहीं होती; वह अवर्ण, कुवर्ण, सवर्ण कोई भी हो सकता है। पर गालियां तरह-तरह के धर्म और जाति को जोड़ने का अद्भुत काम करती हैं। सभी एक ही तरह की गालियां देते हैं। जैसे मधुशाला मेल कराती है, वैसे गालियां भी वैर ख़त्म करती हैं, और सभी को एक ही धरातल पर खड़ा करके मेल बढ़ा देती हैं। साध्य कोई भी हो, साधक में क़रीब-क़रीब एक ही जैसे गुण पाए जाते हैं। जहां आई भक्ति, ग़ायब हुई दिमाग़ की शक्ति। गधे को आप चाहे जितना सिखा पढ़ा लो, वह अधिक से अधिक अच्छा गधा बन सकता है, पर रहेगा गधा ही; घोड़ा तो बनने से रहा। (डिस्क्लेमर: गधे का अपमान इस ब्लॉग लेखक का मक़सद नहीं। वह उसे घोड़े से बेहतर भी नहीं मानता। ये शब्द प्रतीकात्मक हैं और किसी जीवित या मृत इंसान इसे दिल पे लेकर नए सिरे से गालीबाज़ी न करने लगे। लेखक भक्ति की हद तक पशुप्रेमी है। गधा, उल्लू, बकरी, मुर्गा, सुअर, गाय या इस तरह के सभी प्रताड़ित जीवों का तो वह ख़ास तौर पर बहुतै बड़ा प्रेमी है!) हंसा जाई अकेला ब्लॉग से साभार


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