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भीड़ की नहीं, पुलिस की ताकत बनिए

खरी-खरी            Jun 05, 2016


sanjay-singhसंजय कुमार सिंह। मथुरा में जो हुआ वह बेहद चिन्ताजनक और शर्मनाक है। कानून हाथ में लेने के मामलों पर राजनीति का नतीजा है कि आज ऐसी स्थिति बन गई है कि राजनीति के धुरंधरों को भी सांप सूंघ गया है। घाघ राजनीतिज्ञ जो अब कर रहे हैं वही दादरी के समय किया होता तो कल की घटना ना होती, बीच की कई घटनाएं निश्चित रूप से नहीं हुई होतीं। अखलाक के घर में मांस पक रहा था (या फ्रीज में मांस रखा था) जो उस समय बकरे का लग रहा था और महीनों बाद आई प्रयोगशाला रिपोर्ट में Cow or its Progeny (गाय या उसकी संतान) का हो गया। इसपर हमने हत्या के समय तो कई पोस्ट लिखे ही थे। इतने दिनों बाद मथुरा के प्रयोगशाला की रिपोर्ट आई तो भी कई पोस्ट लिख डाले। कुछ लोगों को उस समय असहिष्णुता की बात करना बुरा लगा था इसलिए अब (जब मांस गाय का ही था) सत्तारूढ़ दल के सांसद ने मांग कर डाली कि हत्या के बदले राज्य सरकार ने मृतक के परिवार को जो मुआवजा दिया है उसे वापस ले लिया जाना चाहिए। कुल मिलाकर, कल तक जो कहा जा रहा था वह संक्षेप में यही था कि जब यह ‘साबित’ हो गया है कि मांस गाय का था तो हत्या जायज थी और ऐसे आदमी के लिए उसके आश्रितों को दिया गया मुआवजा वापस ले लिया जाए। और हत्यारों पर से मुकदमा भी वापस लिया जाना चाहिए। अगर आप भीड़ को सजा देने का अधिकार देंगे, हत्या का मुकदमा वापस लेने की दलीलें देंगे (और गलती नहीं मानेंगे) तो भीड़ भी गलती करेगी। भुगतेंगे हम और आप। सजा देने का अधिकार केवल कानून को है। हर मामले में, हर समय। अपराधी कोई हो। किसी भी वर्ग या संप्रदाय का। अगर बहुमत से अपराध जायज होने लगे तो मथुरा में बहुमत (या मजबूत वर्ग) ने पुलिस को ही मार दिया। जिसकी लाठी उसकी भैंस का यही नुकसान है। कानून का शासन नहीं रहेगा। कानून का शासन रहे इसके लिए हम पुलिस प्रशासन पर निर्भर हैं। राजनीतिज्ञों की बात अलग है। पर आप तो राजनीति समझिए। पुलिस अफसर या सिपाही सुपरमैन नहीं होता है। अमूमन वह ब्लैक बेल्ट धारक कोई जूडो कराटे एक्सपर्ट भी नहीं होता है। फिल्मों की बात अलग है। वास्तविक जीवन में ऐसा संभव ही नहीं है। भीड़ को संभालने की उसकी ताकत हम आप ही हैं। अगर हम भीड़ का समर्थन करेंगे। हत्या औऱ मारपीट के पक्ष में तर्क खोद निकालेंगे तो पुलिस क्या करेगी। पिटेगी ही ना? जब भीड़ हमपर हमला करेगी तो पुलिस वाले भी डर कर छिप गए तो? मुमकिन है सांप्रदायिक दंगों में कई बार पुलिस इसीलिए नहीं पहुंचती हो। लेकिन क्या आप चाहेंगे कि पुलिस ऐसी ही हो जाए? अभी जो हालात हैं, उसमें अदालत में सुनवाई की जरूरत ही नहीं रह गई है। त्वरित न्याय होगा तो कुछ गलतियां भी होंगी। देशद्रोह से लेकर गो हत्या तक के मामलों में हम ‘कार्रवाई’ कर चुके हैं। आगे बढ़ते हुए (भले नतीजे में या इस मामले से कोई संबंध ना हो तब भी) पुलिस को कार्रवाई नहीं करने दे रहे हैं। अब भीड़ के खिलाफ कैसे बोलेंगे? पुलिस वाले मरने के लिए थोड़े हैं। वो आपको जान जाएंगे तो छोड़ देंगे। आप आपस में लड़िए मरिए। फैसला करते रहिए। कानून का राज नहीं होगा तो यही होगा। आज कोई, कल कोई और मरेगा। उसमें कभी-कभी पुलिस वाले भी होंगे पर ऐसा रोज नहीं होगा। ज्यादा दिन नहीं चलेगा रोज मरने के लिए तो आप और हम ही बचेगें। मुझे पता है आज माहौल गर्म है तो लोग इसे पढ़कर चुप रह जाएंगे। वीरता पूर्ण प्रतिक्रिया और कमेंट नहीं देंगे। पर मैं यह नहीं समझ पाता कि हत्या (या मारपीट का ही) बचाव कैसे किया जा सकता है। सब कुछ जनता कर देगी तो पुलिस प्रशासन अदालत सब क्या करेंगे? और हमारे देश के सांसद यह नहीं समझते उन्हें कोई समझा भी नहीं सकता। तो परेशान होने की बात भी नहीं है। जाहि विधि रखे राम ताहि विधि रहिये। इन्हीं लोगों ने अयोध्या में राम को भी तंबू में ला दिया है। फेसबुक वॉल से।


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