हेमंत पाल।
केरल और बिहार के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शराबबंदी का नारा बुलंद होने लगा है। लेकिन, शराबबंदी की मांग को लेकर जो कुछ किया जा रहा है, उसमें जनसमर्थन कम प्रपंच ज्यादा नजर आ रहा। प्रदेश सरकार को सद्बुद्धी के लिए शराब दुकान के सामने यज्ञ और प्रार्थना जैसे प्रपंच किए जा रहे हैं कि जनजागृति आए, सरकार चेते और शराबबंदी लागू करने पहल हो! इस बात से इंकार नहीं कि शराब की वजह से अपराध बढ़ रहे हैं! इससे सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित होती हैं। मध्यप्रदेश में तेजी से बढ़े अपराध, विशेषकर महिला अपराधों में बढ़ोत्तरी की मुख्य वजह शहरों से गाँव तक शराब ही रहा है। इसलिए कहा जा रहा है कि बिहार की तरह मध्यप्रदेश में भी शराबबंदी की जा सकती है। लेकिन, इसका जवाब कौन देगा कि सरकार को शराब व्यवसाय से मिलने वाले करीब 8 हज़ार करोड़ के राजस्व की पूर्ति कहाँ से होगी? जिन राज्यों में पहले शराबबंदी की थी, वहाँ शराब बिक्री फिर क्यों शुरू करना पड़ी? इस बात की भी पड़ताल जाना चाहिए कि इसके पीछे क्या कारण थे?
मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों में महिलाओं द्वारा शराब की दुकान हटानें और उन्हें स्थानांतरित करवाने लिए कई आंदोलन हुए! इन आंदोलनों को सफलता भी मिली। महिलाओं के विरोध के माध्यम से उठे इन आंदोलनों से नारी मन की पीड़ा को आसानी से समझा जा सकता है। प्रदेश में बढ़े अपराधों के साथ आत्महत्याओं के मामलो में भी शराब एक मुख्य कारण रहा है। यह बात अलग है कि राज्य को प्राप्त होने वाले राजस्व का एक बड़ा करीब 8 हज़ार करोड़ रुपए सालाना शराब व्यवसाय से ही मिलता है। कई राज्यों की सरकारें आपराधिक प्रवृत्तियों एवं बीमारियों की रोकथाम के लिए नशीले पदार्थों की बिक्री कम करने एवं उसे प्रतिबंधित करने पर विचार कर रही हैं! लेकिन, मध्यप्रदेश में सरकार शराब के माध्यम से अधिक राजस्व पाने के लिए 'नई आबकारी नीति' में शराब ज्यादा बिक्री के लिए शराब कारोबारियों छूट देती रही है।
सरकार के पिछले दो कार्यकाल में प्रदेश में शराब की दुकानों की संख्या लगातार बढ़ाई गई! पूर्व वित्त मंत्री रहे राघवजी ने तो इसे प्रदेश की आय बढ़ाने का आसान फार्मूला ही माना था। शराब की खुली बिक्री बढ़ाने के लिए आउटलेट खोलने एवं शराब से वैट टैक्स कम करने के प्रस्ताव भी कैबिनेट में विचारार्थ रखे गए। 10 लाख से ज्यादा आयकर देने वालों को 100 बोतल शराब घर में रखने की छूट देने का प्रावधान भी किया गया। लेकिन, सरकार को मिली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद सरकार को अपने कदम वापस लेना पड़े।
फिर भी सरकार ने शराब की बिक्री बढ़ाने का एक गुपचुप तरीका ईजाद कर लिया! प्रदेशभर में शराब की दुकानें रात साढ़े 11 बजे तक खुली रखने की छूट दी गई। वहीं, रेस्टोरेंट में रात 12 बजे तक शराब परोसे जाने की छूट दी गई! जबकि, राजस्थान और दिल्ली में शराब दुकानों के खुलने एवं बंद होने के बीच का समय घटाया गया है। इसलिए कि शराब पीकर होने वाले उत्पात को काबू किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अपने फैसले में राजमार्गो पर संचालित शराब की दुकानों को हटाने हेतु आदेशित किया जा चुका है, लेकिन राज्य में हाईवे से शराब की दुकाने हटाने की कोई पहल अब तक नहीं जा सकी है।
प्रदेश सरकार ने हर साल 20 फीसदी बढ़ने वाले दुकान आवंटन शुल्क को भी घटाकर 15 फीसदी कर दिया गया! प्रदेश में फिलहाल करीब 2748 देशी और 936 विदेशी शराब की दुकानें संचालित हो रही हैं। प्रदेश सरकार ने जब से शराब पर 5 फीसदी वैट टैक्स लगाया है, शराब की बिक्री में 8 से 10 फीसदी की गिरावट आई। इसलिए सरकार उक्त प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही है। सरकार ने सिगरेट से वैट टैक्स की दर को भी कम किया है, ताकि सिगरेट की बिक्री में आई गिरावट को रोका जा सके। प्रदेश पर फिलहाल राजकोषीय घाटा करीब 13500 करोड़ रुपए का है। राज्य पर कर्ज भी 1 लाख करोड़ से ज्यादा का है। बढ़ रहे स्थापना के मुकाबले प्रदेश सरकार को शराब के माध्यम से मिल रहा राजस्व एक बड़ी राहत है। यदि सरकार प्रदेश में शराबबंदी का फैसला करती है, तो राजस्व की पूर्ति हो पाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में मजबूर होकर सरकार को नए कर लगाना पड़ेंगे, जो उसके लिए काफी भारी पड़ेगा! हरियाणा सरकार ने शराबबंदी लागू करके लोगों पर अन्य टैक्स लगाए थे, जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ा था।
शराबबंदी करने वाला बिहार नया राज्य है, जहाँ चुनावी वादे के तहत नीतीश सरकार ने एक अप्रैल से शराबबंदी कर दी। राज्य में शराबबंदी की मांग करने वाली अधिकांश महिलाएं दलित वर्ग की हैं! वे मुख्यमंत्री से यह शिकायत करती रही हैं कि शराब ने उनका घर बर्बाद कर दिया, इसलिए राज्य में शराब पर प्रतिबंध लगाया जाए। लेकिन, शराब से करीब 4 हज़ार करोड़ से ज्यादा का राजस्व कमाने वाली सरकार के पास इसकी भरपाई का कोई ठोस विकल्प नहीं है! इतने बड़े नुकसान की भरपाई का और कोई रास्ता भी नहीं है। अगर दूसरी चीजों पर टैक्स लगाकर राजस्व की भरपाई कोशिश की गई, तो लोगों का गुस्सा सरकार पर फूटेगा। पिछले साल बिहार ने शराब बिक्री से 3300 करोड़ का राजस्व कमाया गया। ये राजस्व दूसरे करों से करीब 800 करोड़ रुपए ज्यादा था। इस साल सरकार को शराब से 4000 करोड़ से ज्यादा की कमाई होती।
माना जा रहा है कि चुनावी घोषणा के दबाव में यह सरकार को यह जल्दबाजी महंगी पड़ सकती थी। शराबबंदी के मामले में हरियाणा का प्रयोग काफी ख़राब रहा! जब बंसीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे, तब उन्हें 21 महीने में शराबबंदी के अपने फैसले को पलटना पड़ा था। जिन महिला आंदोलनकारियों की पहल पर बंसीलाल ने शराबबंदी लागू की थी, उन्हीं महिलाओं ने फिर मुख्यमंत्री से शराब बिक्री चालू करने की भी मांग की थी। क्योंकि, उनके पति दिल्ली और पंजाब की सीमा पर बने ठेकों से शराब पीकर लड़खड़ाते हुए देर रात घर पहुँचते थे और कई बार दुर्घटना शिकार हो जाते।
शराबबंदी का नारा महिलाओं की जरूरत से शुरू होता है और उन्हीं से इस नारे को ताकत मिलती है। लेकिन, पुराने अनुभवों से ऐसा लगता है कि हड़बड़ी और बिना तैयारी के शराबबंदी के नियम को लागू करना नुकसानदेह सिद्ध होता है। जिन महिलाओं की मांग का ख्याल रखकर इस तरह के नियम को लागू किया जाता है! बाद में वे हीं उसे हटाने की अपील करती देखी गई हैं। हरियाणा के गांवों में महिलाओं ने अपनी शिकायतें मंत्री के पास पहुंचानी शुरू कर दी थीं कि उनके पति शाम होते ही सीमा से सटे पंजाब, उससे आगे राजस्थान या दूसरे राज्यों में भी निकल जाते हैं और फिर अक्सर अवैध शराब हाथ में होने की वजह से पुलिस की गिरफ्त में आ जाते हैं। विपक्ष ने भी बंसीलाल सरकार को राजस्व में कमी से होने वाले घाटे और महंगाई पर घेरना शुरू कर दिया था।
जब हरियाणा में शराबबंदी ख़त्म करने की घोषणा की गई, तो वहां इतना जश्न हुआ था, जितना शायद शराबबंदी लागू होने पर भी नहीं हुआ! हरियाणा में शराबबंदी के 21 महीनों में इससे जुड़े किस्सों की भयावहता ने तमाम हदें लांघ दी थीं। शराबबंदी से हुए राजस्व के नुकसान के अलावा उन 21 महीनों के दौरान प्रदेश में शराब से जुड़े करीब एक लाख मुकदमे दर्ज किए गए थे। इस दौरान करीब 13 लाख शराब की बोतलें बरामद की गईं थी। वहाँ जहरीली शराब पीने की एक घटना में भी 60 लोग मारे गए थे। विरोध के कारण प्रदेश के मंत्रियों का गांवों में जाना मुश्किल हो गया था। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने शराबबंदी का फैसला वापस ले लिया और शराबबंदी को अपना मिशन बताने वाले खुद बंसीलाल ने भी शराबबंदी हटाने के पक्ष में ही अपनी राय दी!
अगस्त 2014 में केरल सरकार ने शराबबंदी की घोषणा की थी, जिसे बार और होटल मालिकों ने चुनौती दी थी। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने शराबबंदी पर केरल सरकार के फैसले को बहाल रखा और फैसला दिया कि अब वहां सिर्फ पांच सितारा होटलों में ही शराब परोसी जाती है। लेकिन, चोरी छुपे कितनी शराब बिकती है, ये बात तभी सामने आती है जब जहरीली शराब पीने से लोगों के मारे जाने का कोई हादसा होता है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मिजोरम और हरियाणा में शराबबंदी के प्रयोग नाकाम हो चुके हैं। आंध्र में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने यह कहकर शराबबंदी हटा दी थी, कि इसे पूरी तरह लागू कर पाना संभव नहीं।
शराबबंदी वाले राज्य में सबसे बड़ा संकट इसकी तस्करी है, जिसे रोकना आसान काम नहीं।शराबबंदी के दौर में गांव के घर-घर में शराब बनाने का कारोबार शुरू हो जाता है। ऐसे में कहाँ से जहरीली शराब बनकर कब लोगों तक पहुंच जाती है, यह पता लगाना तक प्रशासन के लिए चुनौती बनता है। इसी जहरीली शराब की वजह से देश के अलग-अलग इलाकों से बड़ी तादाद में लोगों के मरने की खबरें आती रही हैं। ऐसी हर घटना के बाद समझा जाता है कि दूसरी जगहों के लोग सस्ती शराब को लेकर सावधानी बरतेंगे और शराब से मरने की घटनाएं सामने नहीं आएंगी।
एक पहलू यह भी है कि शराबबंदी का सीधा असर राज्य की पर्यटन व्यवस्था पर भी नकारात्मक पड़ता है। केरल की तरह शराबबंदी के दौर में भी फाइव स्टार होटलों को शराब बेचने के मामले में छूट रहती है, लेकिन हर पर्यटक की पहुंच वहां तक नहीं होती। देखा गया है कि शराबबंदी के कारण पर्यटन उद्योग को तो मार झेलनी ही पड़ती है, राज्य में बेरोजगारी में भी इजाफा होता है। शराबबंदी का पहला असर डिस्टिलरीज के बंद होने के तौर पर सामने आता है। एक बड़ा तबका इन डिस्टिलरीज के अलावा ठेकों, अहातों, होटलों, रेस्तराओं और परिवहन से भी जुड़ा है। शराबबंदी के बाद ऐसे लोग अक्सर बेरोजगारी का शिकार हो जाते हैं और कई बार अपने हालात से तंग आकर गलत कदम उठा लेते हैं। फिर शराबबंदी के कारण इससे जुड़े बहुत से दूसरे उद्योग भी बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं, जिनके कारण राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर गहरी चोट लगती है। जाहिर है, शराबबंदी के बाद के नतीजों के कई आयाम हैं, जिनकी अनदेखी किसी भी राज्य और उसके प्रशासन पर भारी पड़ सकती है।
शराब एक अरसे से हमारे समाज को नासूर की तरह साल रही है। इसके कारण कितने ही परिवार उजड़ गए और कई लोगों को लाचारी का मुंह देखना पड़ा। दुर्भाग्य की बात यह है कि तंबाकू पर रोक लगाने के लिए तो फिर भी सरकार गंभीर दिखाई देती है, लेकिन शराब के प्रति वैसी तत्परता नहीं दिखाई जाती। यह राज्यों का विषय है और चूंकि उनकी आमदनी का मुख्य जरिया भी है, इसलिए सरकार इसके प्रति गंभीरता से मुंह मोड़ लेती है, जिसका हश्र समाज को भुगतना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि यह नीति चिरस्थायी तौर पर लागू हो, न कि एक अरसे बाद सरकार अपने खाली होते खजाने से त्रस्त होकर इसे वापस ले ले। जैसे हरियाणा और आंध्र प्रदेश व दूसरे राज्यों में हुआ।
भारतीय संविधान के निर्देशक नियमों में धारा-47 के मुताबिक चिकित्सा उद्देश्य के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पेयों और ड्रग्ज पर सरकार प्रतिबंध लगा सकती है। जिनमें तत्कालीन मद्रास प्रोविंस और बॉम्बे स्टेट व कई अन्य राज्य शामिल थे, ने शराब के खिलाफ कानून पारित किया था। 1954 में भारत की एक चौथाई आबादी इस नीति के तहत आ गई। तमिलनाडु, मिजोरम, हरियाणा, नगालैंड, मणिपुर, लक्षद्वीप, कर्नाटक ने शराबबंदी तो लागू की। लेकिन, सरकारी खजाना खाली होते देखकर यह पाबंदी हटा दी गई। इस नीति का लाभ सिर्फ इसे लागू करने वाली एजंसियों और अवैध शराब बनाने वालों को पहुंचा जिन्होंने खूब धन कमाया।
शराबबंदी का समर्थन करने वाले अकसर गुजरात को उदाहरण के रूप में सामने रखते हैं! वहां 1960 से शराबबंदी है और कोई भी राजनीतिक पार्टी जो सत्ता में हो, राज्य में शराबबंदी से पाबंदी हटाने का सोच भी नहीं सकती। लेकिन, गुजरात में कुछ लोगों ने ऐसी बीमारी खोज ली है, जिसका इलाज शराब से ही संभव है। गुजरात में 60 हजार से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जिनके पास शराब खरीदने और पीने का परमिट है। सिविल अस्पताल के डॉक्टर से ऐसी बीमारी का सर्टिफिकेट ले लिया जाता है, जो सिर्फ शराब पीने से ही ठीक हो सकती है।इस आधार पर 'प्रोहेविशन विभाग' परमिट जारी करता है। जिनके पास पीने के लिए परमिट नहीं होता उनके लिए अवैद्य शराब बेचने वाले मौजूद हैं जो एक फोन पर ये सुविधा उपलब्ध कराते हैं। गुजरात को शराब पर पाबंदी से होने वाले टैक्स भरपाई के लिए केंद्र सालाना 1200 करोड़ देता है। ये राशि 1960 से ही मिल रही है! लेकिन, ये समस्या स्थाई है।
मध्यप्रदेश में यदि शराबबंदी का फैसला किया जाता है, तो सरकार को सबसे पहले इसके राजस्व के नुकसान की भरपाई का विकल्प ढूँढना होगा। नए कर लगाकर इसकी पूर्ति जाने से सरकार को लोगों की नाराजी झेलना पड़ सकती है। ये फैसला सारे पक्ष देखकर किया जाए, सिर्फ लोगों की वाहवाही लूटना उसका मकसद न हो। क्योंकि, मध्यप्रदेश की सीमा जिन राज्यों से लगती है, उनमें गुजरात के अलावा किसी भी राज्य में शराबबंदी नहीं है। ऐसे में वहाँ से अवैद्य शराब की आवक होने लगेगी, जो सरकार के लिए नया सरदर्द होगा।
लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं।
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