पुण्य प्रसून बाजपेयी।
लाल चौक पर जब 1975 में शेख अब्दुल्ला ने जीत की रैली की तो लगा ऐसा कि समूची घाटी ही लाल चौक पर उमड पड़ी है।1989 में जब रुबिया सईद के अपहरण के बाद आतंकवाद ने लाल चौक पर खुली दस्तक दी तो लगा घाटी के हर वाशिंदे के हाथ में बंदूक है। अब यानी 2016 में उसी लाल चौक पर आतंक के नाम पर खौफ पैदा करने वाला ऐसा सन्नाटा है कि किसी को 1989 की वापसी दिखायी दे रही है तो किसी को शेख सरीखे राजनेता का इंतजार है। वैसे घाटी का असल सच यही है कि कि लाल चौक की हर हरकत के पीछे दिल्ली की बिसात रही । और इसकी शुरुआत आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हो गई।
नेहरु का इशारा हुआ और 17 मार्च 1948 को कश्मीर के पीएम बने शेख अब्दुल्ला को अगस्त 1953 में ना सिर्फ सत्ता से बेदखल कर दिया गया बल्कि बिना आरोप जेल में डाल दिया गया। और आजाद भारत में पहली बार कश्मीर घाटी में यह सवाल बड़ा होने लगा कि कश्मीर कठपुतली है और तार दिल्ली ही थामे हुये है। क्योंकि बीस बरस बाद कश्मीर का नायाब प्रयोग इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ 1974 में समझौता किया तो झटके में जो शेख अब्दुल्ला 1953 में दिल्ली के लिये खलनायक थे, वह शेख अब्दुल्ला 1975 में नायक बन गये।
पहली बार लाल चौक पर कश्मीरियों के महासमुद्र को उतरते हुये दुनिया ने देखा। और हर किसी ने माना अब कश्मीर को लेकर सारे सवाल खत्म हुये। सही मायने में 1982 तक शेख अब्दुल्ला के जिन्दा रहते कश्मीर में बंदूक उठाने की जहमत किसी ने नहीं की। लेकिन 1989 की तस्वीर ने ना सिर्फ दिल्ली। बल्कि समूची दुनिया का ध्यान कश्मीर की तरफ ले गई। क्योंकि अफगानिस्तान से रुसी फौजें लौट चुकी थीं, तालिबान सिर उठा रहा था, पाकिस्तान में हलचल तेज थी और दिल्ली के इशारे पर कश्मीर के चुनाव ने लोकतंत्र पर बंदूक इस तरह भारी कर दी। कि देश के गृहमंत्री की बेटी का अपहरण जेकेएलएफ ने किया।
पहली बार घाटी के सामने दिल्ली लाचार दिखी। तो लाल चौक पर लहराते बंदूक और आजादी के लगते नारो ने घाटी की तासिर ही बदल दी और पहली बार जन्नत का रंग लाल दिखायी देने लगा। एक के बाद एक कर दर्जनों आतंकी संगठनों के दफ्तर खुलने लगे। रोजगार ही आतंक और आतंक ही जिन्दगी में कैसे कब बदलता चला गया इसकी थाह कोई ले ही नहीं पाया। आतंकी संगठनों की फेरहिस्त इतनी बढ़ी कि सरकार को कहना पड़ा कि आतंक के स्कूल हर समाधान पर भारी है। फेरहिस्त वाकई लंबी थी। हिजबुल मुजाहिदिन, लश्कर-ए-तोएबा, हरकत अल-उमर-मुजाहिद्दिन , दुखतरान-ए-मिल्लत, लश्कर-ए-उमर, लश्कर -ए जब्बार, तहरीक उल मुजाहिद्दिन, जेकेएलएफ, मुत्तेहाद जेहाद काउंसिल के साथ दर्जन भर आंतकी संगठन।
असर इसी का हुआ पहली बार गृह मंत्रालय ने माना कि घाटी में 30 हजार से ज्यादा आतंकवादी हैं। सेना ने मोर्चा संभाला तो घाटी ग्रेव यार्ड में बदली। 1990 से 1999 तक 20 हजार से लोग मारे गये। इनमें पांच हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी थे। इसके बाद घाटी में अमन चैन का दावा करने वाले हर प्रधानमंत्री के दौर को देख लें तो आंकडे डराते हैं।। क्योंकि 1999 से 2016 यानी वाजपेयी से मोदी तक के दौर में 22504 लोग मारे गये। वाजपेयी के दौर में सबसे ज्यादा 15627 मौतें हुईं तो मनमोहन सिंह के दस बरस की सत्ता के दौर में 6498 लोगो की मौत हुई। तो मोदी के दो बरस के दौर में 419 लोगो की मौत हुई। यानी 22 हजार मौतें या कहें हत्याओं में नागरिक भी और सुरक्षा कर्मियो की लंबी फेहरिस्त भी और आतंकवादी भी। लेकिन इस सिलसिले् को रोके कौन और रुके कैसे यह सवाल दिल्ली के सामने इस दौर में बडा होता चला गया।
कश्मीर की सियासत बिना दिल्ली के चल नहीं सकती इसका एहसास बखूबी हर राजनीतिक दल को हुआ। कभी नेशनल कान्फ्रेंस तो कभी पीडीपी। बिना कांग्रेस या बिना बीजेपी के दोनो सत्ता में कभी आ नहीं पाये और कश्मीरी सियासत ने दिल्ली को ही ढाल बनाकर सत्ता भी भोगी और जिम्मेदारियों से मुंह भी चुराया। इसीलिये जो सवाल नेशनल कॉन्फ्रेंस की सत्ता के वक्त पीडीपी उठाती रही, वही सवाल अब पीडीपी की सत्ता के वक्त नेशनल कान्फ्रेंस उठा रही है।
दोनों दौर में कश्मीरी राजनीति ने खुद को कैसे लाचार बताया या बनाया, इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि फिलहाल घाटी में सड़क पर सिर्फ सेना है, सीआरपीएफ है, पुलिस है, सीएम अपने मंत्रियों के साथ कमरे में गुफ्तगू कर दिल्ली की तरफ देख रही हैं। उमर अब्दुल्ला ट्वीट कर राजनीतिक समाधान खोजना चाह रहे हैं, तमाम विधायक अपने घरों में कैद हैं, जो यह कहकर खुद को कश्मीरी युवकों के साथ खड़े कर रहे है कि बुरहान को जिन्दा पकड़ना चाहिये था । एनकाउंटर नहीं करना चाहिये था।
तो क्या वाकई हालात 1989 वाले हो चले हैं। लेकिन घाटी में मरने वालों की फेहरिस्त देखें तो सड़क पर गुस्सा निकालते मारे गये 15 लड़कों का जन्म ही 1990 के बाद हुआ है। शब्बीर अहमद मीर [तंगपूरा बटमालू ] , अरफान अहमद मलिक [नेवा ], गुलजार अहमद पंडित [मोहनपोरा शॉपिया ], फयाज अहमद वाजा [ लिट्टर ], साकिब मंजूर मीर [खुंदरु अचाबल], खुर्शिद अहमद [हरवात, कुलवाम ] , सफीर अहमद बट [चरारीगाम ] ,अदिल बशीर [ दोरु ] , अब्दुल हमीद मौची [अरवानी ], दानिश अय्यूब शाह [ अचबल ], जहॉगीर अहमद गनी [ हासनपुरा, बिजबेहरा ] , अजाद हुसैन [ शॉपिया ] , एजाज अहमद ठॉकुर [ सिलिगाम, अनंतनाग ] , मो. अशऱफ डार [हलपोरा, कोकरनाग ] , शौकत अहमद मीर [ हासनपौरा, बिजबेहरा ] , हसीब अहमद गनई [डाईगाम, पुलवामा ] तो सभी का जन्म 1990 के बाद हुआ । हर की उम्र 18 से 26 के बीच और ये सभी बीते 72 घंटों में आंतकवादी बुरहान के मारे जाने के बाद सुरक्षाकर्मियो का विरोध करते हुये सडक पर निकले और मारे गये। तो क्या वाकई कश्मीर घाटी के हालात एक बार 1989 की याद दिलाने लगे हैं।
या फिर आंतक को जिस तरह अब के युवा आजादी के सवालों से जोडते हुये रोमान्टिीसाइज कर रहे हैं वह 1989 के आतंक से कहीं आगे के हालात हैं। क्योंकि आजादी के नारे तले जो विफलता बार—बार दिल्ली की रही और जो सियासत घाटी में खेली जाती रही। असर उसी का है कि घाटी के अंदरुनी हालात इतने तनावपूर्ण हैं कि हर छोटी सी चिंगारी उसमें भयानक आग की आशंका पैदा कर रही है। ये चिंता इसलिए ज्यादा है क्योंकि नारे लगाने या पत्थर चलाने वाली पीढ़ी आधुनिक तकनालाजी के दौर की पीढी है। पढी लिखी पीढी है विकास और चकाचौंध को समझने वाली पीढी है और उसके सरोकार लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं।
जाहिर है ऐसे में याद महात्मा गांधी को भी कर लेना चाहिये। क्योंकि बंटवारे के ऐलान के साथ जिस वक्त देश में सांप्रदायिक हिंसा का दौर शुरु हो गया था-कश्मीर घाटी में शांति थी। या कहें लोगों में ऐसा मेलजोल था कि महात्मा गांधी भी दंग रह गए। 1 अगस्त 1947 को कश्मीर पहुंचे बापू ने उस वक्त अपनी प्रार्थना सभा में कहा भी- "जब पूरा देश सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहा है, मुझे सिर्फ कश्मीर में उम्मीद की किरण नजर आती है" या विभाजन के बाद सजिस तरह देश सांप्रदायिक हि्सा में जल रहा था उस वक्त जिस कश्मीर की शांति में गांधी को एकता की उम्मीद दिखी और जिस कश्मीर की संस्कृति में उन्हें हिन्दू मुसलमान सब एक लगे-वो घाटी आजादी के 68 साल बाद एक ऐसे मोड़ पर है,जहां गांधी की सोच बेमानी लग रही है या कहें कि सरकारों ने जिस तरह घाटी को राजनीति की बिसात पर मोहरा बना दिया-उसमें मात गांधी के विचारों की हो गई।
क्योंकि-आज का सच यही है कि कश्मीर जल रहा है! आज का सच यही है कि घाटी में एक आतंकवादी के पक्ष में हुजूम उमड़ रहा है। आज का सच यही है कि घाटी में आजादी के नारे भी लग रहे हैं और लोग सेना के सामने आकर भिड़ने से नहीं घबरा रहे। सबके जेहन में एक ही सवाल है कि कश्मीर का होगा क्या? वैसे यही सवाल महात्मा गांधी से भी पूछा गया था कि आजादी के बाद कश्मीर का क्या होगा, तो गांधी ने जवाब दिया था "-कश्मीर का जो भी होगा-वो आपके मुताबिक होगा। " इतना ही नहीं, 27 अक्टूबर 1947 को महात्मा गांधी ने एक सभा में कहा-, " मैं आदरपूर्वक कहना चाहता हूं कि कश्मीर को राज्य में लोकप्रिय शासन लाना है। ऐसा ही हैदराबाद और जूनागढ़ के मामले में भी है। कश्मीर के वास्तविक शासक कश्मीर के लोग होने चाहिए। " यानी गांधी ने कश्मीर के लोगों की इच्छा को सर्वोपरि माना लेकिन सरकारों ने लोगों को ही हाशिए पर डाल दिया। नतीजा इसी का है कि घाटी के भीतर एक छटपटाहट है, और बुरहान उस आक्रोश को निकालने की तात्कालिक वजह।
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