कृष्णकान्त अग्निहोत्री
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस तर्क में दम है कि विश्व हिन्दी सम्मेलन ‘भाषा’ का सम्मेलन है और अब तक इसे विश्व हिन्दी साहित्य सम्मेलन बनाए रखा गया था, लेकिन हिन्दी भाषा के साहित्यकारों की उपेक्षा करना उचित नहीं है। सम्मेलन का पंडाल बहुत ही सुंदर और आकर्षक बना है, और अंदर मुंशी प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी चौहान सहित पत्रकार राजेन्द्र माथुर तक के फोटो हैं, लेकिन प्रभाष जोशी का फोटो नहीं है क्योंकि प्रभाष जी ने बाबरी मस्जिद का गिराने का विरोध किया था। जाहिर है माथुर और जोशी दोनों ही मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे देश के बड़े पत्रकार हैं।
यकीनन इस सम्मेलन में हिंदी की सेवा करने वाले लोगों को ही शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन क्या लेखकों, साहित्यकारों और कवियों ने हिन्दी भाषा की सेवा नहीं की है। आयोजक इसे केवल ‘भाषा’ का सम्मेलन कह रहे हैं, साहित्यकारों का नहीं, तो क्या उन्हें ‘भाषा’ और ‘साहित्य’ का संबंध समझ में नहीं आता, जबकि किसी भी भाषा और साहित्य का तो चोली-दामन का साथ होता है। भाषा यदि ‘खून’ है, तो साहित्य उसका हीमोग्लोबिन’ है, दोनों को एक दूसरे से अलग कैसे किया जा सकता है? निश्चित रूप से आप हिन्दी को बढावा देने वालों, उसका प्रचार-प्रसार करने वालों और भाषा की सेवा करने वालों को दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में स्थान दें, फिर भी इसमें स्थानीय और प्रादेशिक स्तर के लेखकों और साहित्यकारों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए था। ऐसा लगता है मानों कि सम्मेलन के जरिए ‘भाषा’ और ‘साहित्य’ को अलग करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल यह एक तरह से नेताओं का आयोजन है क्योंकि 129 लोगों की समिति में केवल 21 लेखक हैं, ऐसे में इस सम्मेलन से क्या उम्मीद लगाई जाए?
दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की आलोचना करने वाले इसके समापन अवसर पर बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन को आमंत्रित किए जाने पर आपत्ति उठा रहे हैं। उनका तर्क है कि क्या नामवर सिंह या हिंदी के किसी लेखक को किसी भी फिल्मी आयोजन में बुलाया गया है? यह अलग बात है कि अमिताभ को इसका निमंत्रण देना गलत इसलिए भी नजर नहीं आता है, क्योंकि अमिताभ ने अपनी तरह से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया है और उन्हें इस अवसर पर शुद्ध और खरी हिन्दी बोलने का तरीका बताने के लिए आमंत्रित किया जाना बताया जा रहा है, हालाकि वे इसके साथ ही अपने पिता हरिवंश राय ‘बच्चन’ की कुछ कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति देंगे। वे हिंदी फिल्मों के बड़े अभिनेता हैं, और लोकप्रिय भी हैं, सो इसमें कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए। हां, लेकिन उनका गुजरात का ब्रैंड एम्बेसेडर होना, उनकी छबि को विवादित बनाता है।
दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के आलोचकों का यह भी आरोप है कि इसमें ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे ‘हिन्दी’ को ‘हिन्दू अथवा हिन्दुत्व’ से जोडने की कोशिश की जा रही है। इस सम्मेलन को हिंदी प्रदेश में रखने का भी कोई औचित्य समझ से परे है, क्योंकि हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में तो हिन्दी बोली ही जाती है और लोकप्रिय भी है। इसे दक्षिण अथवा पूर्वोत्तर के किसी प्रदेश में आयोजित किया जाता, तो वहां लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति आकर्षित किया जा सकता था और हिन्दी के उपयोग से वे अवगत होते। भले ही वहां के अखबारों में इसके समाचार संकलन अंग्रेजी में होते, लेकिन विश्व हिन्दी सम्मेलन हिन्दी भाषा को लेकर है, भाषा से तो वहां की गैर हिन्दी भाषी जनता प्रभावित होती।
और चलते-चलते... दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजक भारत का विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री जनरल (सेवानिवृत्त) वी के सिंह की साहित्यकारों पर टिप्पणी ने इस आयोजन को विवादों में ढकेल दिया है, लेखकों के मामले में उनका लेखन-कौशल और विचार महत्व रखते हैं, जैसे कि सैनिकों की बात करते वक्त हम उनके शौर्य और साहस की बात करते हैं, उन्हें कैंटीन से मिलने वाली रियायती शराब या छावनियों के जश्नों की नहीं। जनरल साहेब ने कहा था, ‘भारतीय लेखक आते हैं, खाते हैं, शराब पीते हैं और पेपर पढ़ कर चले जाते हैं।' सिंह के कथित बयान से पूरे देश की लेखक बिरादरी का अपमान हुआ है और इससे पूरे देश के साहित्यकार और लेखक आहत हैं।
अंत में... आयोजक कह रहे हैं कि यह सम्मेलन हिंदी भाषा को बाजार और रोजगार की भाषा बनाने के लिए भी किया गया है... तो ऐसे में भी बाजार भाषा के पास जाता है, भाषा को बाजार के पास लाना उचित नजरिया नहीं हो सकता है।
लेखक पीटीआई में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं।
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