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हर संकट में राजनीतिक फ़ायदा खोज लेने का फार्मूला है शिवराज के पास

खरी-खरी            Aug 25, 2016


मल्हार मीडिया। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बघेलखंड और बुंदेलखंड इलाकों में बाढ़ पीड़ित और प्रभावितों के हालचाल लेने गये थे। उनके कुछ खास मुद्रा वाले फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हुये। इस पर सरकार ने सफाई भी पेश की। इस घटना के बाद मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार ने मल्हार मीडिया को यह विशेष टिप्पणी भेजी है। पाठक भी गौर फरमायें:— अंग्रेजी की एक उक्ति है ''Fisihing in troubled waters.'' मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पिछले दस सालों से प्रदेश में यही हर रहे हैं। यहाँ तक की उन्होंने इस कला में इतनी विशेषज्ञता पा ली है कि कई बार लगता है जैसे वे किसी आपदा का इंतज़ार ही करते रहते हैं! कैसे कोई आपदा आए और वे उस अवसर को अपनी राजनैतिक फायदे में परिवर्तित करें। अब तो महसूस होता है कि सरकार, पिछले 13 सालों से बजाए पुख्ता प्रशासनिक इंतज़ाम करने के कि बाढ़ और सूखा की स्थिति उतपन्न हो, तो कैसे निबटा जाए, इस बात में ज्यादा रूचि लेती। ये भी सोचती की किसी आपदा की घटना के बाद उससे उत्पन्न जनता के गुस्से से कैसे निबटें। याद कीजिए 2007 का रबी की फसल पर पड़ा पाला। उसके बाद 2008, 2010, 2012 फिर 2013 में मुख्यमंत्री गाँव-गाँव हेलीकाप्टर से घूमे। पटवारियों और सरकारी अमले को जमकर कोसा। कहा कि हम सारे नियम-कायदे बदल देंगे, किसान को अधिक से अधिक मुआवज़ा मिलेगा! लेकिन, हुआ क्या? आज तक कई किसान उस मुआवजे के लिए उन्हीं पटवारियों के चक्कर लगा रहे हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री हड़का आए थे। ओला-पाला, सूखा, इल्ली-प्रकोप, शीत्-लहर, प्याज़ की अधिक पैदावार, हरदा में अतिवृष्टि और रेल हादसा, झाबुआ विस्फोट, उत्तराखंड आपदा, सिंहस्थ आंधी-तूफ़ान और हाल की सतना-रीवा की बाढ़ सब में मुख्यमंत्री चौहान तत्काल रातों-रात घटना स्थल पर पहुँच जाते हैं। टीवी पर दुखी चेहरा बनाकर बयान पर बयान देते हैं। एक-एक आदमी के घर उसी समय बैठने और मातमपुर्सी करने जाते हैं। लोगों को भावनात्मक मरहम लगाते हैं, लेकिन सब तात्कालिक। बाद में अफसर सारा गुड़ गोबर कर देते हैं। उस समय प्रशासनिक अमला जिसे लोगों की मदद के लिए लगना होता है, वह सीएम साहब की सुरक्षा में लग जाता है। सीएम को ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा का प्रोटोकॉल है। तंत्र अपनी आदत के मुताबिक सीएम को जो अच्छा लगे, ऐसी चीज़े और काम करता है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि नौकरी उन्हें भी करना है। इस सबमें होता है कि लोगों का ध्यान सीएम के दौरे पर लग जाता है और तब तक आपदा को हुए कुछ समय भी बीत जाता है। बाद में आपदा-ग्रस्त लोगों को क्या मिलता है, सब जानते हैं। प्रभावशाली लोग अपने अपनों के नाम लिस्ट में जुड़वाते रहते हैं और पूरी राहत कुछ चुनिंदा परिवारों में बंट जाती है। रही सही कसर सामग्री के नाम पर गेंहूँ में मिट्टी मिलाकर पूरी कर ली जाती है। इसमें भी एक मज़ेदार तथ्य यह है कि शिवराजजी जाते वहीं हैं, जहां चुनाव होना होता है या बहुत ज़्यादा मीडिया-कवरेज की संभावना होती है। विश्वास नहीं है तो पूर्व के सभी दौरे और उसके आसपास होने वाले चुनावों की तारीख देख लें। अभी अब शहडोल में चुनाव है और वहीं आस-पास के इलाकों में बाढ़ है। राहत के नाम पर बंटने वाले पैसों का अगर विश्लेषण करेंगे तो उन्ही इलाकों में मात्रा जयादा रहेगी, जहां वोटिंग होना हो। दावा है की इन तथ्यों को कोई झुठला नहीं सकता। पिछले एक दशक में शिवराज सिंह ने चुनाव जीतने का यह जो मॉडल विकसित किया है, वह निरंतर जीत के रूप में तो काम कर रहा है पर प्रदेश का कोई स्थाई भला नहीं कर रहा।भ्रष्टाचार के कारण मैहर में हाउसिंग बोर्ड की ईमारत के गिरने से एक क्रिकेटर की जान चली गई। इमारात बाढ़ से नहीं भ्रष्टाचार से गिरी है। आखिर 5 साल में कोई इमारत तभी गिरेगी, जब वो मिट्टी-गारे से बनी होगी! मुख्यमंत्री बजाए प्रदेश के ठोस विकास और ज़रूरी मुद्दों से निबटने के, भावनात्मक विषयों में राजनीतिक फायदे खोजने में लगे रहते हैं। उन्हें मज़ा भी इसी में आता है। यही कारण है कि कई सरकारी निर्णय सीएम के समय न दे पाने के कारण लंबित है। चाहे प्रदेश के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन का मामला हो या फिर सरकारी अस्पतालों को ठीक करने का! क्योंकि, सीएम के पास समय ही नहीं है। मुख्यमंत्री को वल्लभ भवन में बैठना अच्छा नहीं लगता। इसलिए अफसर भी उन्हें प्रदेश भर में दौड़ाए रखते हैं। प्रश्न यह है कि मुख्यमंत्री के पास पूरी प्रदेश सरकार का अमला है, मंत्रियों की टीम है और एक लाख 58 हज़ार करोड़ का बजट है। फिर उन्हें उज्जैन में तसला-तगाड़ी लेकर क्यों खुद जुटना पड़ता है। उत्तर सीधा सा है, पूरे प्रदेश का तंत्र भ्रष्टाचार के कारण चरमरा गया है। अधिकारियों और कर्मचारियों को पता है कि सीएम का इस पर नियंत्रण नहीं हैं। ध्यान बांटने के लिए यह सब करना लाज़िमी है। शिवराज सिंह एक चुनाव जिताने वाले लोकप्रिय नेता हो सकते हैं, पर अच्छे प्रशासन के लिए वे कभी याद नहीं किए जाएंगे। दिग्विजय सिंह की तरह आपने भी अपना पूरा समय सामाजिक विषयों में नकली गंभीरता दर्शाने में खपा दिया। मध्यप्रदेश तो वहीं का वहीं है। विश्वास नहीं तो बाकी राज्यों से तुलना कर लें! झूठे आंकड़ों से अनपढ़ ग्रामीणों को भरमाया जा सकता है, गूगल सर्च करके पलभर में सच्चाई खोज लेने वाली पीढ़ी को नहीं। लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं और भोपाल में एक राष्ट्रीय पत्रिका के ब्यूरोचीफ हैं।


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