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जोशीमठ त्रासदी की सूचनाओं पर पाबंदी

खरी-खरी            Jan 19, 2023


राकेश दुबे।

और सरकार का फ़रमान जारी हो गया है कि “जोशीमठ त्रासदी और जमीन धंसने में आई तेजी दर्शाने वाली इसरो की सेटेलाइट तस्वीरें एवं उपलब्ध वैज्ञानिक व संस्थानों की सूचनाओं को मीडिया व सोशल मीडिया पर प्रसारित न किया जाये।“

फ़रमान को हुकुम मान कुछ संस्थानों  ने उन तस्वीरों को अपनी वेबसाइट से हटा दिया है , ये तस्वीरें वो थी जिनमें कुछ दिनों में जोशीमठ के पांच सेंटीमीटर से ज्यादा धंसने की बात कही गई थी।

इन रिपोर्टों में दरअसल, कहा गया था कि अप्रैल, 2022 के बाद के सात महीनों में जहां जमीन 8.9 सेमी धंसी थी, वहीं 27 दिसंबर के बाद महज बारह दिनों में जमीन पांच सेमी धंसी है। सरकार की दलील है कि रिपोर्ट के निष्कर्ष यहां के लोगों में असुरक्षा व भय पैदा करने वाले हैं।

इस तर्क के साथ यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि घरों व सड़कों में आई दरारों के बाद विस्थापन की प्रक्रिया में सरकारी तंत्र सुस्त था और यही सुस्ती ऐसी सूचनाओं पर पर्दा डालने की वजह बन रही है।

 सब मानते हैं कि इसरो की सूचनाएं प्रमाणिक व वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती हैं। सोशल मीडिया और प्रिंट की रिपोर्टों का आधार यही रहा है। यही वजह है कि उसकी रिपोर्ट पर लोगों का ज्यादा भरोसा होता है, तभी लोगों ने इस रिपोर्ट पर ज्यादा ध्यान भी दिया।

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि विगत में तमाम वैज्ञानिक अनुसंधान व विषय विशेषज्ञों की रिपोर्टों की उत्तराखंड की तमाम सरकारों ने अनदेखी की है।

 इसमें कोई शक नहीं , विधायक व मंत्री चुने हुए प्रतिनिधि तो होते हैं, लेकिन वे भूगर्भ व पर्यावरण विषयक मुद्दों के विशेषज्ञ नहीं हो सकते। ऐसे में यदि तथ्यपरक व वैज्ञानिक रिपोर्ट सामने आती है तो उसका उपयोग समस्या दूर करने और रीति-नीतियों के निर्धारण में होना चाहिए।

 निस्संदेह मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना होता है। साथ ही यह भी जरूरी है कि ऐसी रिपोर्ट विषय विशेषज्ञों के शोध-अनुसंधान व सर्वेक्षणों पर आधारित होनी चाहिए।

सुनी-सुनाई बातों से जहां लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है, वहीं कई तरह की अफवाहों को भी बल मिलता है।

 

बहरहाल, सरकारों को ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया हमेशा एक सचेतक की भूमिका में रहा है और उसने विभिन्न मुद्दों पर लोगों को जागरूक ही किया है।

यह मीडिया की सक्रियता और सजगता का ही परिणाम था कि जोशीमठ को लेकर पूरे देश में विमर्श हुआ और केंद्र तथा राज्य सरकार हरकत में आई। धंसाव के बाद पानी के रिसाव ने जोशीमठ व देश के लोगों की चिंताएं बढ़ा दी थीं।

यह बात जरूरी है कि मीडियाकर्मियों को विज्ञान सम्मत व तार्किक रिपोर्ट के द्वारा जनता को जागरूक करना चाहिए। जरूरी है कि रिपोर्ट समाज के किसी वर्ग में भय व असुरक्षा की भावना न पैदा करे, लेकिन मुद्दे की प्रासंगिकता व संभावित निष्कर्षों पर सार्थक विमर्श जरूरी है।

 

जोशीमठ के मामले में उत्तराखंड सरकार भी नहीं चाहती कि संवेदनशील सूचनाएं सार्वजनिक विमर्श में आयें। वहीं दूसरी ओर देश के गृहमंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में हुई बैठक के उपरांत एनडीआरएफ को इस बाबत निर्देश दिये गये ,जिसके बाद एनडीआरएफ ने पत्र लिखकर बारह सरकारी संगठनों व एजेंसियों को कहा कि उनके विशेषज्ञ अपना विश्लेषण और निष्कर्ष मीडिया व सोशल मीडिया पर जारी न करें।

इसरो भी इन एजेंसियों में शामिल रही, जिसके बाद इसरो ने अपनी वेबसाइट से उन तस्वीरों को हटा दिया जो जोशीमठ का हाल बयां कर रही थीं। निस्संदेह, सत्य के तथ्य सार्वजनिक होने चाहिए, लेकिन वे तथ्यपरक हों, न कि भय फैलाने वाले। वहीं सूचनाओं पर अंकुश लगाना लोकतांत्रिक व्यवस्था में तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता। बहुत संभव है कि विश्व की दूसरी एजेंसियां ऐसे ही तथ्य सार्वजनिक विमर्श में ले आएं।

 

वैसे वैश्विक सूचना तंत्र के बीच सूचनाओं पर अंकुश लगाना आज के दौर में संभव नहीं है। इससे दूसरे देशों में अच्छा संदेश नहीं जायेगा। बहुत संभव है कि बाहर से आने वाली सूचनाएं अनियंत्रित व अवास्तविक हों और समाज में भ्रम व अफवाहों को जन्म दें।



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