श्रीकांत सक्सेना।
हमारे मुल्क में हुक्मरां हैं या फिर रियाया, शासक और शासित।
खुशहाली और सुकूनियत का भ्रम बनाए रखने के लिए पश्चिमी देशों के समान एक मोटा,पिलपिला दलाल वर्ग यहां लगभग नहीं है।
बिना रीढ़ का, बात-बे-बात तालियां बजाता हुआ।
बाज़ार के अंधड़़ में सूखे पत्ते के सामान हवा के रुख के मुताबिक उड़ता हुआ मध्यवर्ग।
अपने इर्द-गिर्द हो रहे अनाचार से बेख़बर रेत में मुंह छिपाए,आँखें मूंदे हुए।
बिल्कुल निस्पृह ढोंगी संत की तरह।
अधिक शिष्ट शब्दावली में कहें तो आप इसे दलाल वर्ग न कहकर मध्य वर्ग कह सकते हैं।
इस वर्ग के सपने एंटीलिया में बैचैनी से घूमते हैंतो इसके आदर्श होरी की झोंपड़ी में बसते हैं।
दोनों वर्गों के लिए संविधान के प्रावधानों की व्याख्याएं अलग-अलग हैं।
विमर्श का स्थान समाप्त प्रायः है।
संसद से लेकर स्टूडियो तक सभी फ़ैसले फेफड़ों की ताक़त के आधार पर होते हैं।
मुश्किल यह है कि हर फ़ैसले की जान जिस तोते में बसी है,वह तोता भी यही पोपला,पिलपिला मध्य वर्ग है।
संसद हो,स्टूडियो हो या फिर सड़क इस तोते की सहमति के बिना कहीं कुछ होता भी नहीं।
इसलिए पूंजी को जिसके पास असली ताक़त है।
उसे भी ये लाज़मी है कि ये लिजलिजा वर्ग उसके साथ रहे सो गाहे बगाहे कुछ टुकड़े फेंकना ज़रूरी है।
शुभमस्तु।
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