हेमंत कुमार झा।
इतिहास की सबसे गरीब विरोधी सरकार चलाते हुए भी नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में जिन शब्दों का सबसे अधिक प्रयोग करते रहे हैं उनमें से एक है गरीब'।
उनकी नीतियों ने सुनिश्चित किया कि गरीब गरीब बने रहें, अपनी न्यूनतम जरूरतों के लिये जूझते रहें और उनकी सरकार उन्हें नियमित रूप से कुछ किलो अनाज और नमक की पोटली आदि देकर उनकी राजनीतिक सहानुभूति हासिल करती रहे।
ऐसे गरीब वोटर अब नई राजनीतिक शब्दावली में 'लाभार्थी' कहे जाते हैं और जैसा कि विश्लेषकों का मानना है, हालिया विधानसभा चुनावों में इन लाभार्थियों के बड़े हिस्से ने मोदी जी की पार्टी को वोट किया।
विपक्ष के किसी भी नेता में इतना नैतिक बल नहीं और न ही मतदाताओं के साथ उनका ऐसा प्रभावी संवाद है कि कोई उन गरीबों को यह समझा सके कि मोदी राज में श्रम कानूनों में जितने भी संशोधन हुए हैं वे उनके ही श्रम और मानवीय अधिकारों की कीमत पर कारपोरेट वर्ग का हितपोषण करने वाले हैं।
राजनीतिक विमर्शों की वैचारिक शून्यता का आलम यह है कि चुनावों में अंधाधुंध निजीकरण कोई मुद्दा बन ही नहीं सका, न ही कोई नेता उन गरीबों को यह समझा पाने के काबिल साबित हुआ कि यह निजीकरण उनके भविष्य को आर्थिक गुलामी की ओर धकेलने वाला है।
80 करोड़ लोगों को कोई भी अर्थव्यवस्था अनंत समय तक मुफ्त में राशन और अन्य लाभ नहीं दे सकती और, न ही यह कोई ऐसा रास्ता है जिस पर चल कर गरीबों का कभी आर्थिक सशक्तिकरण हो सकता है।
निर्धनता उन्मूलन के लिये रोजगार सृजन सबसे अधिक प्रभावी उपाय है लेकिन इस मामले में सरकार किस हद तक असफल साबित हुई है, इस पर अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं।
प्रधानमंत्री बनने के अपने पहले चुनावी अभियान में नरेंद्र मोदी जिस एक शब्द का सबसे अधिक प्रयोग करते रहे थे वह था 'रोजगार'। अक्सर वे इसे 'नौकरियाँ' शब्द से भी संबोधित किया करते थे।
किसी प्रधानमंत्री ने बेरोजगार नौजवानों को इतने सब्जबाग नहीं दिखाए जितने मोदी जी ने, और, सत्ता में आने के बाद किसी प्रधानमंत्री ने इस तरह बेरोजगारों की उम्मीदों की ऐसी की तैसी भी नहीं की।
लेकिन, तब भी, मोदी जी नाउम्मीदी से टूटते इन बेरोजगार नौजवानों के प्रिय नेता बने रहे तो इसके लिये मीडिया की वाहवाही बनती है जिसने 'चेतनाओं की कंडीशनिंग' का सफल प्रयोग कर अपने कारपोरेट आकाओं की दीर्घकालीन आर्थिक योजनाओं को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नरेंद्र मोदी की राजनीति और कारपोरेट प्रभुओं के मंसूबे आपस में इतने घुलते-मिलते गए और उन्होंने मिल कर ऐसा मायाजाल रचा कि एक पूरी पीढ़ी का बड़ा हिस्सा अपने हित-अहित के बारे में सोचने-समझने की शक्ति खो बैठा।
विश्व इतिहास में कुछ नेता ऐसे हुए हैं जिनके बारे में जब हम पढ़ते हैं तो ताज्जुब होता है कि आखिर क्यों और कैसे एक लंबे दौर तक उनके देश के अधिकतर लोग उनका राजनीतिक समर्थन करते रहे और तब तक करते रहे जब तक वे और उनके देश बर्बादियों के कगार पर नहीं पहुंच गए।
मोदी जी के सबसे मुखर समर्थक हैं नौकरी पेशा शहरी और छोटे-मंझोले व्यवसायी। इन वेतन भोगी नौकरीपेशा लोगों का मन ही जानता होगा कि मोदी राज में बीते सात-आठ वर्षों में उनकी आर्थिक सेहत और उन पर पड़ने वाले टैक्सों के बोझ का हाल क्या हो गया।
छोटे और मंझोले व्यापारी देख रहे होंगे कि उनकी दुकानों के सामने किसी बड़े कारपोरेट घराने के मॉल्स की चेन खुलती जा रही है और एक दिन उनके बच्चे बेरोजगार होकर उन्हीं मॉल्स में नौकरी करने को विवश होंगे। पूंजी की माया के आगे तमाम मानवीय और सामाजिक तर्क बेमानी हैं और इस माया को पसरने में सरकारी नीतियां खुल कर मददगार बन रही हैं।
हालांकि, इन वेतनभोगी मध्यवर्गीय शहरियों और व्यापारियों की राजनीतिक चेतना की दाद देनी होगी जब आजकल किसी भी चुनाव में वे बेहद गम्भीर शैली में सवाल उठाते हैं, "विकल्प क्या है?"
इतिहास सलाम करेगा ऐसे लोगों को जो खुद आर्थिक रूप से खोखले होते गए, मध्य वर्ग से निम्न मध्य वर्गीय जमात में गिर कर अपनी चोटें सहलाते रहे लेकिन देश की चिंता ऐसी और इतनी कि
"विकल्प क्या है" की रट लगाते खुद की और अपने बालबच्चों की तकदीर में आर्थिक गुलामी की इबारतें लिखते रहे।
कितने तो ऐसे हैं जो कमाते-खाते निम्न मध्य वर्ग से गिर कर निर्धन बन 'लाभार्थी वर्ग' में शामिल होने को मजबूर हुए और 'मोदी झोला' ले कर मुफ्त राशन की लाइनों में लग गए।
यूं ही ऐसा नहीं हुआ कि बीते कुछ वर्षों में देश के शीर्षस्थ कारपोरेट घरानों की हिस्सेदारी मीडिया व्यवसाय में हैरतअंगेज तेजी से बढ़ती गई और आज दर्जनों चैनल उनके इशारे पर नैरेटिव सेट करने की मुहिम में लगे हैं।
उन चैनल वालों को पुरस्कृत किया जाना चाहिये जो करोड़ों लोगों को यह समझाने में सफल होते रहते हैं कि उनकी आर्थिक बदहाली और बेहिंसाब बेरोजगारी के लिये विपक्ष का नाकारापन जिम्मेदार है।
पहली बार ऐसा देखा-सुना जा रहा है कि बेलगाम बढ़ती महंगाई के समर्थन में वे लोग तर्क दे रहे हैं जिनके बच्चों को वाजिब पोषण तक नहीं मिल रहा, निजीकरण के समर्थन में वे लोग तर्क दे रहे हैं जिन्हें अपने बच्चों को निजी क्षेत्र में पढ़ाने की औकात नहीं।
नरेंद्र मोदी और उनके दौर की राजनीति आने वाले समय में राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के शोधार्थियों के लिये दिलचस्प केस स्टडी साबित होगी।
मनोविज्ञान के शोधार्थी इस पर शोध करेंगे कि आखिर वह कैसी मनो-सामाजिक अवस्था थी जिसमें सरकारी नौकरी की नियमित पेंशन पाने वाला रिटायर बूढ़ा किसी बेरोजगार नौजवान को यह समझा रहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण जरूरी है क्योंकि उनमें कामचोरी है, भ्रष्टाचार है।
सकारात्मक पहलू यह है कि 18-20 से 30-35 वर्ष आयु वर्ग के पढ़े-लिखे और नौकरी की तैयारियों में मुद्दत से लगे युवाओं का मोहभंग तेजी से होने लगा है और वे मीडिया के द्वारा गढ़े जा रहे नैरेटिव्स को संदेह की नजरों से देखने लगे हैं, रोजगार सृजन को लेकर राजनीतिक पाखंड को समझने लगे हैं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे राजनीतिज्ञ-कारपोरेट के उस गठजोड़ को भी गहरे संशय से देखने लगे हैं जो अंध निजीकरण के माध्यम से उनके भविष्य को दांव पर लगाने को तत्पर है।
युवाओं में बढ़ता मोहभंग और इससे उपजी निराशा भविष्य की राजनीति को सकारात्मक दिशा दे सकती है क्योंकि, जैसा कि एक चर्चित कहावत में कहा गया है, "आप कुछ दिनों के लिये सब को मूर्ख बना सकते हैं, सब दिनों के लिये कुछ को मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन सब दिनों के लिये सब को मूर्ख नहीं बना सकते।"
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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