राकेश दुबे।
केंद्र सरकार के इशारों पर चलती “राज्यपाल” नामक संस्था हमेशा विवादों में रही है।
कभी उसकी राज्य सरकार के साथ पटरी नहीं बैठती तो कभी वो समाज के मुद्दों पर केंद्र से भी दो-दो हाथ करने से गुरेज नहीं करते।
इन दिनों अब महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी की देश के गृहमंत्री अमित शाह को लिखी एक चिट्ठी चर्चा में है। इस चिट्ठी में उन्होंने गृहमंत्री से ‘मार्गदर्शन’ मांगा है।
आरिफ मोहम्मद खान,जगदीप धनखड़, अपने राज्य की सरकार से टकरा चुके हैं।
मेघालय, और अरुणाचल के राजभवनों की दस्तान भी जग जाहिर है।
वैसे पश्चिम बंगाल, केरल, मेघालय आदि के राज्यपाल इतर कारणों से भी चर्चा में रहे हैं।
केंद्रशासित राज्यों के लेफ्टिनेंट गवर्नर भी चुनी हुई सरकारों के निर्णयों में बाधा डालने के लिए आलोचना के शिकार होते रहे हैं।
जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और अधिकांश राज्यों में भी कांग्रेस का शासन था, तब भी विपक्ष राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठाया करता था।
आज केंद्र में भाजपा की सरकार है और बहुत-से राज्यों में भी भाजपा का शासन है।
आज भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपालों पर केंद्र सरकार के एजेंटों की तरह काम करने के आरोप लग रहे हैं।
संबंधित राज्य सरकारें, और विपक्ष, राज्यपालों पर यह आरोप लगा रहे हैं कि वे चुनी हुई सरकारों को काम नहीं करने दे रहे, या फिर केंद्र में सत्तारूढ़ दल के इशारों पर उसके हितों के अनुरूप काम करते हैं।
राज्यपाल कोश्यारी पहले भी अपने कहे-किये के कारण विवादों में आ चुके हैं, लेकिन आज सवाल सिर्फ किसी राज्यपाल के बयान के विवादास्पद होने का ही नहीं है।
उपराष्ट्रपति बनने से पहले जगदीप धनखड़ तृणमूल कांग्रेस द्वारा शासित पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे और तब उन पर आरोप लगते रहे थे कि वे ममता बनर्जी की सरकार के काम में अड़ंगे डालते हैं।
वे भी राज्य सरकार से अपनी नाराज़गी छिपाते नहीं थे, खुलेआम सरकार की आलोचना करते थे, जैसे सरकार उनकी नहीं है और वे विपक्ष में हैं।
केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान भी एक अर्से से राज्य की सरकार से टकरा रहे हैं। मेघालय, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी राज्यपालों पर इस आशय के आरोप लगते रहे हैं।
वैसे राज्यपाल का पद शुरू से ही, विवादों में आता रहा है। भले ही इस पद का गठन केंद्र और राज्यों में एक पुल के रूप में किया गया हो, पर हकीकत यह है कि शुरू से राज्यपालों पर केंद्र की सरकार के हितों की दृष्टि से काम करने के आरोप लगते रहे हैं।
जब संविधान-सभा में इस पद को लेकर विचार-विमर्श हो रहा था तब भी कई सवाल उठे थे। एक प्रस्ताव इस आशय का भी आया था कि राज्यपाल मनोनीत नहीं किये जायें, निर्वाचित हों, दुर्भाग्य से किसी ने कभी इस ओर नहीं सोचा।
राज्य की निर्वाचित सरकारों और राज्यपाल में सीधे टकराव की आशंका को देखते हुए यह प्रस्ताव किसी फ़ाइल में बंद हो गया ।
इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने कही महत्वपूर्ण बात याद आती है।
उन्होंने कहा था ‘मेरा मानना है कि यही बेहतर रहेगा कि राज्यपाल राज्य की राजनीति से जुड़ा हुआ न हो... यह और भी बेहतर रहेगा कि वह ऐसा व्यक्ति हो जो राज्य की सरकार को स्वीकार्य हो, पर राज्य के राजनीतिक दल की मशीनरी का हिस्सा न हो।
ऐसा व्यक्ति बाहर का हो, जिसने हाल-फिलहाल की राजनीति में सक्रिय हिस्सा न लिया हो...।’
ऐसी ही बातें बाबा साहेब अंबेडकर समेत अन्य नेताओं ने भी कही थीं, पर आज़ादी के बाद हमने देखा कि अनेक मामलों में यह पद केंद्र में सत्तारूढ़ दल की सरकार के हितों की रक्षा का माध्यम बनकर रह गया।
इस बात के अनेक उदहारण मौजूद हैं , जिनमें केंद्र सरकार ने यह पद ‘अपने आदमियों’ को ही देना ज़रूरी समझा। या फिर उन नेताओं को यह पद दिया गया जिन्हें सक्रिय राजनीति से दूर रखना शीर्ष नेतृत्व को ज़रूरी लगता था।
नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आये तो उन्होंने सभी राज्यपालों और लेफ्टिनेंट गवर्नरों को बदलना ज़रूरी समझा था।
ऐसा नहीं है कि पहले की कांग्रेसी सरकारों ने ऐसा कुछ न किया हो, साठ के दशक में इंदिरा गांधी भी इस पद के दुरुपयोग के उदाहरण प्रस्तुत कर चुकी थीं।
समय-समय पर राज्यपाल की भूमिका के बारे में विचार-विमर्श भी होते रहे हैं, समितियां और आयोग भी गठित हुए हैं।
ऐसा ही एक आयोग सरकारिया आयोग के नाम से गठित हुआ था, इस आयोग ने राज्यपालों की नियुक्ति के बारे में कुछ वैसे ही सुझाव दिये थे जैसे जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में दिये थे।
आयोग ने कहा था, ‘राज्यपाल के पद पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र का प्रमुख व्यक्ति होना चाहिए। वह राज्य के बाहर का होना चाहिए।
हाल की राजनीति में उसकी सक्रियता नहीं होनी चाहिए। सरकारिया आयोग ने यह भी कहा था सत्तारूढ़ दल के लोगों को इस पद पर नहीं बिठाया जाना चाहिए और संबंधित राज्य सरकार से विचार-विमर्श करके ही ऐसी नियुक्ति होनी चाहिए।
आज स्थिति यह है कि राज्यपाल केंद्र के एजेंटों की तरह काम करते रहे हैं, जबकि संविधान निर्माताओं ने इस पद पर राजनीति से ऊपर उठते हुए ऐसी मनीषियों की कल्पना की थी जो राज्य सरकारों को उचित राह दिखाएंगे।
पर यहां तो राज्यपाल केंद्र सरकार से राह दिखाने की बात कह रहे हैं, श्री कोश्यारी का पत्र इस बात का साफ उदाहरण है।
वैसे आदर्श स्थिति में राज्यपाल का पद न तो किसी कृपा का परिणाम होना चाहिए और न ही केंद्र सरकार के हितों को ध्यान में रखकर ऐसी नियुक्ति होनी चाहिए।
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