राकेश कुमार पालीवाल।
भ्रष्टाचार को हमने समय के साथ बहुत सीमित कर दिया है। आजकल इसका अर्थ केवल इसी सन्दर्भ में लिया जाता है जब कोई राजनीतिक व्यक्ति या सरकारी कर्मचारी किसी का गलत या सही काम करने के लिए घूस लेता है।
भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ भ्रष्ट आचार यानि भ्रष्ट आचरण से है।यह एक बहुत व्यापक दृष्टिकोण है। यदि हम किसी व्यक्ति से उसकी योग्यता से अतिरिक्त किसी भी कारण से विशेष अनुकम्पा या द्वेष प्रकट करते हैं वह भी भ्रष्टाचार के दायरे में ही आता है।
यदि हम धर्म, जाति, वर्ग ,भाषा या क्षेत्रीयता आदि के आधार पर भेदभाव बरतते हैं वह भृष्ट आचरण ही है। यदि हम अपनी चाटुकारिता करने वाले को अन्य योग्य व्यक्ति पर वरीयता देते हैं तब भी हमारा आचरण भृष्ट ही कहा जाएगा।
भारतीय संस्कृति और परम्परा के अंतर्गत नैतिकता से इतर कोई भी कर्म भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है। अपने और अपने प्रिय परिजनों और मित्रों के बड़े दोषों को नजरअंदाज कर विरोधियों के राई के समान छोटे दोषों को पहाड़ की तरह बड़ा बनाकर प्रस्तुत करना भी भ्रष्टाचार ही है और इस तरह का भृष्टाचार विचारधारा से प्रतिबद्ध बहुत से बौद्धिक लोग भी करते हैं।
दरअसल ऐसा करने से वे खुद अपनी छवि धूमिल कर रहे होते हैं। हम तब तक नैतिक प्रगति नहीं कर सकते जब तक हम पहले अपने भृष्ट आचरण को ठीक नहीं करते।क्या हम इस विषय में ईमानदारी से कोशिश करने का प्रयास करने के लिए तैयार हैं।
लेखक गांधीवादी विचारक और आयकर विभाग में प्रिंसीपल कमिश्नर हैं।
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