राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश में हजारों की तादाद में ऐसे मामले सामने आये हैं जिनमे किसानो ने कर्ज चुका दिया है और वे फिर भी बकायेदार है। हाड़-तोड़ मेहनत कर कर्जा चुकाने वाले किसान का नाम जब बकायेदारों की सूची में दिखता तो ऐसा लगता है देश में किसान और किसानी के साथ मजाक हो रहा है।
एक ओर कर्जमाफी के वादे और दूसरी ओर पूरा कर्जा चुकाने वालों के नाम के आगे बकायेदारी, मजाक नहीं है तो क्या है ?
वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद कृषि क्षेत्र के सामने चुनौतियां कई स्तरों पर बढ़ती गयीं। भले ही जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी सिमटती रही, लेकिन आज भी देश की आधी आबादी अपने रोटी-रोजगार के लिए कृषि निर्भर है। चुनावी साल में किसानों की चिंता और इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों से लोकलुभावन बजट की उम्मीद स्वाभाविक ही है।
सरकार किसानों को उर्वरक, बीज, यूरिया आदि पर सब्सिडी के माध्यम से राहत देती है। अब सभी प्रकार की सब्सिडी को मिला कर कैश के रूप में राहत देने का प्रावधान किया जा रहा है। अगर यह प्रस्ताव लागू होता है, तो सरकार को सालाना इसके लिए 70 हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे।
हालांकि,चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा लक्ष्य के मुकाबले लगभग 115 प्रतिशत के स्तर को पार कर चुका है। ऐसे में अंतरिम बजट में राजकोषीय घाटा पूरा करने की चुनौती एक बड़ी चिंता होगी, लेकिन किसान मतदाताओं को नजरअंदाज करने का जोखिम केंद्र या ताजा-ताजा बनी सरकारेन कतई नहीं उठाना चाहेगी।
ऐसे में उम्मीद है कि सरकार किसानों को राहत देने के लिए नये विकल्पों का इस्तेमाल कर सकती है। केंद्र ने बीते बजट में न्यूनतम समर्थन मूल्य को उत्पादन लागत से 1.5 गुना करने का वादा किया था। इस प्रकार की लाभकारी योजनाओं का फायदा किसानों को तभी हो सकता है, जब वह अपने उत्पादों को उचित/ सरकारी चैनलों तक पहुंचा पाये।
अमूमन, छोटे और मझोले किसान गांव में ही अपने उत्पादों को गैरवाजिब दामों पर बेच देते हैं, जिससे वे ऐसी योजनाओं के फायदे से वंचित रह जाते हैं और इसका फायदा बिचौलिये उठा लेते हैं।
देश में छोटे कृषकों की संख्या 80 प्रतिशत से अधिक है और यही वर्ग कीमतों की बढ़ोतरी, आय में कमी और कर्ज के बोझ में दबे रहने को मजबूर है। कृषि उत्पादन से जुड़ी समस्याओं,मौसम की मार और कर्ज में दबे निराश किसान अक्सर आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठा बैठते हैं।
कृषि संकट से किसानों को उबारने के लिए तमाम राज्य सरकारें कर्ज माफी को अपना चुनावी मुद्दा बनाती हैं, लेकिन यह कोई ठोस समाधान नहीं है, यह नीति आयोग भी मानता है।
समस्या यह भी है कि कृषि संकट के जाल में फंसे ज्यादातर किसान संस्थागत ऋण तक नहीं पहुंच पाते।
महाजनों के कर्ज के चंगुल में फंसने के बाद उनके लिए उबर पाना मुश्किल हो जाता है। बिचौलियों की धोखाधड़ी और महाजनों के कर्ज के साथ ही बैंको के मकड़जाल से किसानों को मुक्त कराने के लिए बड़े स्तर पर कृषि सुधार की पहल करनी होगी।
मध्यप्रदेश में आज कर्ज चुकाने वालों के नाम पे निकली बकायेदारी इस समस्या का बेशर्म उदाहरण है। अगर कुछ करना ही है तो ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहन और रोजगारपरक नीतियां बनाकर स्थायी समाधान खोजने की कोशिश होनी चाहिए।
कॉरपोरेट को मिलनेवाली सब्सिडी और करों में राहत की तर्ज पर ग्रामीण उद्यमियों को भी प्रोत्साहित करने जैसे फैसले लेने होंगे, तभी कृषि और किसानों का कल्याण हो सकेगा। अभी तो किसान और किसानी को मजाक बना रखा है।
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