अवधेश बजाज।
आदरणीय कमलनाथजी।
सादर नमन्
मैं जानता हूं कि यह दौर खतों-किताबत का नहीं रह गया। फिर, खरा और खुला खत लिखने वाली कलम का सिर तो कब का कलम कर दिया जा चुका है। यह श्रृंखलाबद्ध तरीके से हुआ। आप तो जानते ही होंगे कि बूचड़खाने से लेकर मांस परोसने वाले ठिकानों तक के एक श्रृंखला काम करती है। जानवर का वध। उसकी खाल उतारना। मांस निकालना। उसके टुकड़े करके खाने के ठिकानों तक पहुंचाना। फिर जानवर के निर्जीव हो चुके टुकड़ों को अलग-अलग आहार का रूप प्रदान करना।
मुझे लगता है कि मीडिया के साथ भी ऐसा ही किया गया। किसी ने उसके लिए कसाईखाना तैयार किया तो किसी ने ऊपर बताये गये बाकी इंतजामात किये। मैं नहीं कहता कि इस सबमें आपकी भी सहभागिता है। किंतु यह कत्लखाने तो पूरी ताकत से आपके राज में भी संचालित हो रहे हैं। निर्विघ्न तरीके से। निर्लज्जता के साथ। निर्निमेष भाव से। नितांत पेशेवर हत्याओं के रूप में। न तो दिल्ली इस काम में पीछे है और न ही देश का दिल यानी मध्यप्रदेश इस सबसे विरत दिखता है।
मैं सन् 1984 से पत्रकारिता में हूं। असंख्य अन्य राजनेताओं की तरह ही आप को भी जानता काफी पहले से था। अलबत्ता, आपसे मुलाकात नवभारत का संपादक रहते हुए हुई। तब हम भोपाल के अशोका लेकव्यू होटल में मिले थे। फिर दिल्ली में आपके फ्रेंड्स कॉलोनी स्थित दौलतखाने में भी जाने का मौका मुझे मिला।
उस दौरान से लेकर बीते साल के दिसंबर तक मुझे भ्रम था कि आपसे मेरी अच्छी वाकफियत है। अब सोचता हूं तो यही महसूस होता है कि आप को मैं कभी समझ ही नहीं सका। क्योंकि तब आप देश-दुनिया के हालात की पूरी जानकारी रखते थे और अब अपने ही प्रदेश के घटनाक्रमों पर जैसे आपकी नजर ही नहीं है।
हां मैं यह मानता हूं कि भाजपा शासनकाल में दो-चार पत्रकार शिवराज सरकार से जबरदस्त तरीके से उपकृत हुए परन्तु उसका बदला पूरी पत्रकार बिरादरी से क्यूं लिया जा रहा है। बीते साल जुलाई से लेकर इस साल अब तक आपके जनसंपर्क विभाग ने अनगिनत छोटे एवं मझौले अखबारों सहित इसी स्तर की न्यूज वेबसाइट्स के विज्ञापनों का भुगतान नहीं किया है साथ ही विज्ञापन देना भी बंद कर दिया है।
संभवत: आप को ईराक पर पहले अमेरिकी हमले की याद होगी। अमेरिका ने बम बरसाये। जवाब में बगदाद ने इजरायल के खिलाफ यही कार्यवाही शुरू कर दी। क्योंकि वह चाहता था कि जेरूसलम पलटवार करे। जिससे अमेरिका की मदद कर रहे इजरायल-विरोधी मुस्लिम देश हाथ पीछे खींच लें। अमेरिका के दबाब में जेरूसलम चुपचाप यह हमले सहता गया। यहां भी ऐसा ही हो रहा है।
हुकूमत ने विज्ञापन का भुगतान बंद कराया। अखबार मालिकों ने इस मिसाइल का मुंह अपने कर्मचारियों की ओर मोड़ दिया। खर्च में कटौती के नाम पर उनकी नौकरी खत्म कर दी गयी। इसकी आड़ में देश के एक बड़े अखबार ने एक झटके में अपने पचास कर्मचारियों की छुट्टी कर दी। अब तो प्रेस फोटोग्राफर्स को खरपतवार की तरह उखाड़ने का प्रबंध भी कर दिया गया है।
ऐसे मीडियाकर्मियों ने पेट पालने की गरज से अपने अखबार या वेबसाइट आरम्भ कीं। अब उन पर भी वज्रपात कर दिया गया है। कोलैटरल डैमेज का अर्थ तो आप जानते ही हैं। जी हां, वही जिसकी आड़ में अमेरिका ने ऊपर बताये गये खाड़ी युद्ध में कई सिविलियंस की मौत को भी सही करार दे दिया था। ऐसा ही तो कुछ यहां भी अखबार वालों की छोटी तथा कमजोर जमात के साथ हो रहा है।
कितना दु:खद संयोग है ना कि इन घटनाक्रमों के तार विनाशकारी युद्ध से जुड़ रहे हैं।
जनसंपर्क महकमे के अफसरान कहीं सद्दाम हुसैन जैसे क्रूर तो कभी अमेरिका जैसे मनमानी पर आमादा नजर आते हैं। हो सकता है कि क्रूरता एवं मनमानी की इस पनपती विष बेल को वल्लभ भवन से निरंतर खाद दी जा रही हो। आप जानते हैं ना कि गोबर और कचरा, दोनो ही बेहद उर्वरक खाद के लिए महत्वपूर्ण एवं सर्वाधिक विश्वसनीय तत्व होते हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि इस विष बेल की खाद भी उन साहबी दिमागों की उपज होगी, जिनमें मीडिया संबंधित ज्ञान के नाम पर गोबर भरा हुआ है। उनके भी, जिनके हृदय एवं मस्तिष्क के की गहराई मीडिया-विरोधी खुराफातों वाले कचरे के चलते उथलेपन में तब्दील होकर रह गयी है।
हां मैं यह मानता हूं कि प्रदेश का खजाना खाली है आप विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। इसी की आड़ लेकर आपके अफसर कहते हैं कि बजट नहीं है। यदि यह सच है तो फिर इस बात का सच भी बता दीजिए कि पिछले सात माह में छह बड़े अखबारात कुछ चहेते केबल नेटवर्क और एक इवेन्ट कंपनी को पेमेंट कैसे हो गया मेरी जानकारी के अनुसार कुछ केबल नेटवर्क और यूट्यूब चैनलों को जो डीएवीपी से सेंक्सन नहीं हैं को पांच से सात लाख रुपए दिया जा रहा है।
छह माह में ढाई करोड़ रुपए का पेमेंट कहां से हो गया। इस भारी-भरकम भुगतान के लिए पैसा कहां से आ रहा है? और उनके नुमाइंदे जनसंपर्क के अफसरों के साथ ठाठ से चाय पीते हैं। और बाकी अखबारनवीस वहां जाकर हर रोज अपमान का घूंट पीने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनसंपर्क का संचालन कौन कर रहा है?
यह महकमा आपकी सरकार के अधीन है या किसी और अधिक असरकार के हाथों में इसका नियंत्रण सौंपा जा चुका है। प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में एक स्वयंभू विदुषी मीडिया को भाजपा तथा कांग्रेस में विभाजित करने पर उतारू हैं।
आमतौर पर किसी भूत को उतारने के लिए ओझा को बुलाया जाता है। लेकिन यहां तो गोया कि ओझा को ही भूत को और सिर चढ़ाने का ठेका दे दिया गया है। जो हो रहा है, उसे देखकर इस अटकल में कोई संदेह नहीं दिखता कि आपकी पार्टी के प्रदेश मुख्यालय से ही जनसंपर्क विभाग को उन समूहों/पत्रकारों की सूची दी गयी है, जिनके भुगतान होने हैं तथा जिन्हें और भी विज्ञापन दिये जाने हैं। यहां मेरी एक व्यक्तिगत उलझन भी है।
तीन दशक से अधिक की पत्रकारिता में मैं ने हमेशा गलत को गलत ही लिखा। न श्यामाचरण शुक्ल तथा विद्याचरण शुक्ल को बख्शा और न ही सुंदरलाल पटवा से लेकर कैलाश जोशी के लिए कोई मुरव्वत की। दिग्जिवय सिंह और शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल की विसंगतियों को भी मैं ने खुलकर शब्द प्रदान किये।
तो यह बता दीजिए कि आपकी सरकार की नजर में मेरा मूल्यांकन भाजपाई पत्रकार के तौर पर होगा या कांग्रेसी? यह व्यथा मेरे जैसे उन हमपेशाओं की भी है, जिनकी संख्या को षड्यंत्रपूर्वक कम किया जा रहा है। मामला उन बलात नसबंदियों से बहुत अलग नहीं है, जिनका साक्षात्कार आपने 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के बीच निश्चित ही किया होगा।
अब प्रदेश में निष्कलंक पत्रकारिता के बंध्याकरण के प्रयास तो खैर ‘यत्र, तत्र और सर्वत्र’ वाला आचरण बन चुके हैं। समूचे वल्लभ भवन सहित मंत्रालय की नयी एनैक्सी में पत्रकार नहीं पाये जाते हैं, लेकिन पत्रकारिता वहां के नाबदानों के जरिये गटर तक बहा दी गयी है।
आप मीडिया से गुरेज करने लगे हैं। आप से मिलना नामुमकिन की हद तक कठिन हो गया है। इससे पहले तक बहुत सहज तथा सरल उपलब्ध रहे मुख्यमंत्री का ऐसा परिवर्तित स्वरूप मातहत अफसरों पर भी हावी है। वे पत्रकारों से मिलना तो दूर, उनके फोन कॉल तक रिसीव नहीं कर रहे। विधानसभा परिसर में कई महत्वपूर्ण स्थानों पर पत्रकारों का आगमन निषिद्ध कर दिया गया है।
जबकि जरूरत यह थी कि मंत्रालय सहित विधानसभा से भी दलालों की आवाजाही निषिद्ध की जाती। मगर ऐसा नहीं किया गया। देश में बरतानिया हुकूमत के समय कई महत्वपूर्ण जगहों पर ‘इंडियंस एंड डॉग्स नॉट अलाउड’ लिखा जाता था।
क्या ऐसा नहीं लगता कि आपके शासन में ऐसे ही कई विशिष्ट ठिकाने ‘रियल मीडिया एंड जेनुइन जर्नलिज्म नॉट अलाउड’ वाली शैली में ढाल दिये गये हैं! सच बताइएगा, कहीं आपका मकसद मीडिया को दिव्यांग की श्रेणी में लाकर ‘पग बिना चले, सुने बिनु काना’ वाली हालत में ला देने का तो नहीं है!
चाटुकारिता न तो मेरे शब्दकोष में है और न ही किसी भी किस्म का कोष मुझे इस लिजलिजे आचरण के करीब भी ला सकता है। फिर भी लिख रहा हूं कि आप यकीनन समझदार, अनुशासन पसंद, योग्य प्रशासक और कुशल राजनीतिज्ञ हैं।
हालांकि अब आप को देखकर लगता है कि यह सारे भाव आपके भीतर से तिरोहित हो रहे हैं। आप डरे हुए दिखते हैं। दबाव से झुके हुए प्रतीत होते हैं। भयावह चुनौतियां आपके सामने मुंह पसारे खड़ी हैं। आप एक फैसला लेते हैं और कमोवेश तुरंत ही उसे बदल देते हैं। इससे अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। आप ने कहा था कि वक्त है बदलाव का।
इस बदलाव को बदला में तब्दील मत होने दीजिए। पार्टीजनों तथा मंत्रियों को समझाइए कि पंद्रह साल की भूख छह महीने में ही मिटाने का अनाचार न करें। कसाईखाने में भी गर्भवती पशु का वध नहीं किया जाता। तो फिर क्यों ऐसा हो रहा है कि बाणगंगा की ढलान पर नव-विकसित कसाईखाना उन पत्रकारों को भी मार डालने पर आमादा है, जिनके गर्भ में आज भी वास्तविक पत्रकारिता का भ्रूण जीवित है और जिनकी कलम की स्याही में तैरते सच के शुक्राणु अब तक खत्म नहीं हुए हैं!
अंत में एक बात और। आप को खाली खजाना विरासत में मिला, यह पूरी तरह सच है। मेरा सुझाव यह कि ऐसे में आपकी सरकार से सामाजिक हितार्थ की उम्मीद बढ़ जाती है। बेपटरी कर दीजिए मेट्रो ट्रेन की अवधारणा को। मत बिछाइए स्मार्ट शहरों का जाल।
आप नरेंद्र मोदी नहीं हैं, तो फिर क्यों नया भारत की तर्ज पर नया मध्यप्रदेश बनाने पर आमादा हैं। कम बजट में कल्याणकारी योजनाओं का सूत्रपात कीजिए, इसी में आपके भविष्य के कल्याण के सूत्र भी छिपे हुए हैं।
लेखक बिच्छू डॉट कॉम के संपादक हैं।
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