राकेश दुबे।
भारत की आज़ादी और भारत में आज़ादी को लेकर कभी भी और कहीं भी बहस होती रहती है।
आज तक देश में किसी राजनीतिक दल ने उन विचाराधीन कैदियों की बात नहीं की जो जेलों में हैं। इनकी संख्या कोई छोटी- मोटी नहीं बल्कि 4.27 लाख से अधिक है।
देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने कुछ दिन पहले संविधान दिवस के अवसर पर बिना जमानत और सुनवाई के लंबे समय से जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का भावनात्मक निवेदन किया है।
जिस कार्यक्रम में उन्होंने यह मुद्दा उठाया उसमें देश के प्रधान न्यायाधीश समेत सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश तथा केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू भी उपस्थित थे।
राष्ट्रपति की इस अपील को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने देशभर के राज्य सरकारों और जेल अधिकारियों को ऐसे तमाम कैदियों के बारे में 15 दिन के भीतर जानकारी देने का निर्देश दिया है।
इस कवायद के बाद सभी आंकड़े राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकार को सौंपे जायेंगे।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने अपने अंग्रेजी भाषण से इतर हिंदी में बोलते हुए गरीब कैदियों और उनके परिजनों के कष्ट को रेखांकित किया था तथा उनके लिए कुछ करने का आह्वान किया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जुलाई में एक संबोधन में अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से जेलों में बंद रखने पर चिंता जतायी थी, लेकिन कुछ हुआ नहीं।
बीते पिछले वर्ष के आंकड़ों के आधार पर कुछ माह पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई उसके अनुसार, हमारे देश में विचाराधीन कैदियों की संख्या 4.27 लाख से अधिक हो चुकी है।
देश की सभी जेलों में बंद कुल कैदियों में 77 प्रतिशत विचाराधीन हैं| राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने संबोधन में यह भी रेखांकित किया है कि देश की जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी हैं।
उनकी इस बात में भी दम है कि नये जेल बनाना विकास की निशानी नहीं है, देश के हर राजनीतिक दल को इस पर विचार करना चाहिए।
यह बात सर्व ज्ञात है कि अधिकांश अपराधों की जद ने राजनीतिक प्रश्रय होता है।
भावावेश में किये गये अपराधों की संख्या का प्रतिशत कम ही होता है।
आज देश की जेलों में 5.54 लाख कैदी हैं, जबकि जेलों की अधिकतम क्षमता 4.26 लाख लोगों के लिए ही है।
सब जानते हैं, विचाराधीन कैदी वे होते हैं, जो आपराधिक मामलों में आरोपित होते हैं तथा अदालतों में उनकी सुनवाई हो रही होती है।
देश का सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के अनेक निर्णयों एवं निर्देशों में कहा जा चुका है कि जमानत देने में अदालतों का रवैया नरम होना चाहि।
हाल ही में पूर्व और वर्तमान प्रधान न्यायाधीश भी ऐसी ही राय व्यक्त कर चुके हैं।
इसके बावजूद ऐसा देखने में आता है कि मामूली अपराधों में भी अदालतें जमानत देने में संकोच करती हैं।
राष्ट्रपति मुर्मू की यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि कई बार पुलिस द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध बहुत सारी ऐसी धाराएं भी लगा दी जाती हैं, जो अपराध उस व्यक्ति ने किया भी नहीं होता।
अनेक रिपोर्ट में यह तथ्य भी रेखांकित हुआ है कि जेलों में कैदियों में बड़ी संख्या अनपढ़, मामूली रूप से शिक्षित और वंचित लोगों की है और इनके परिजन अदालतों का खर्च वहन नहीं कर पाते हैं।
कई बार जमानत की साधारण शर्तें नहीं पूरी कर पाने की स्थिति में भी कैदियों को जेल में ही रहना पड़ता है।
सरकार से आशा की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद जेलों में अकारण या लम्बे समय से विचारधीन कैदियों की स्थिति में जल्द सुधार होगा।
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