नितेश कुमार पाल।
गुरूवार को एक ओर देश के दक्षिणी तटीय क्षेत्र की सहयाद्री पर्वतमाला में बने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के बाद पूरा केरल जल रहा था। वहीं केरल जो चार महीने पहले पानी में डूबा हुआ था। देश का सबसे शिक्षित राज्य एक तरह से दंगों की चपेट में था।
दूसरी ओर देश के उत्तरी हिस्से में पाकिस्तान की सीमा से लगे गुरदासपुर में देश के प्रधानमंत्री भाषण दे रहे थे। यहां प्रधानमंत्री अपनी सरकार की खुबियां जनता को गिना रहे थे। इस दौरान साहब ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम लिए बगैर ही कहा कि कांग्रेस ने तो 1984 के दंगों के आरोपी को ही मुख्यमंत्री बना दिया। अखबार जगत में रहने के चलते मुझे पता ये है ये दोनों खबरें शुक्रवार को प्रथम पेज पर होंगी।
मैं इन दोनों खबरों को एक साथ देख रहा था, तो उसमें मुझे देश की राजनीति का गंदा आइना दिख रहा था। दंगे जिन्हें किसी भी सूरत में, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी व्यवस्था में सही नहीं ठहराया जा सकता है। दंगे हमेशा गंदी यादें ही छोड़कर जाते हैं, ये किसी न किसी का जीवन उजाड़ते हैं, ये नस्लों पर असर डालते हैं। उन दंगों पर राजनीति हो रही थी।
एक ओर देश के प्रमुख 34 साल पहले हुए दंगों के दर्द पर बात कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर देश का ही एक राज्य दंगो में झुलस रहा था। भूत को याद किया जा रहा था, वर्तमान की अनदेखी कर।
केरल में जो दंगे हो रहे हैं वो महिलाओं के अय्यपा स्वामी के दर्शन करने के कारण हो रहे हैं। कहा जा रहा है महिलाओं के मंदिर में जाने से मंदिर अपवित्र हो गया। उन्हीं महिलाओं को लेकर जिनके नाम पर दो दिन पहले तक देश की संसद में सभी नेता प्रवचन दे रहे थे।
महिलाओं के हक की दुहाई दे रहे थे, महिलाओं के नाम पर धार्मिक बातें संसद में हो रही थी। सभी पार्टियों के नेता महिलाओं के हक को लेकर जिस तरह से चिंता जाहिर कर रहे थे उससे लग रहा था देश की आधी आबादी भी बची हुई आधी आबादी के बराबर का हक रखती है। लेकिन आज जब केरल से जुड़ी खबर पढ़ रहा था तब पढ़ने में आया कि जो लोग कल तक महिलाओं को अधिकार की बात कर रहे थे वे आज महिलाओं के मंदिर में जाने पर ही इतने हिंसक हो गए। बवाल मचा हुआ है। फिर भी उस पर कोई बोल नहीं रहा है, बस बीते की चिंता की जा रही है। क्या आज जो हालात हैं उस पर बात नहीं होना चाहिए।
क्या देश की साढ़े तीन करोड़ की आबादी जो दिनभर बंधक और डर में रही उस पर देश के मुखिया या किसी नेता को नहीं बोलना चाहिए। केरल में जो हो रहा है क्या उसे नेता सही मानते हैं, और नहीं मानते तो विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं?
ये सब न सोचें ये सब राजनीति का हिस्सा है, एक ओर महिलाओं के प्रति संवेदना जताकर अल्पसंख्यक आबादी की महिलाओं के वोट के साथ ही बहुसंख्यकों को भी बहुत कुछ जताकर वोट जुगाड़ने की राजनीति है।
दूसरी ओर केरल में भी कमोवेश राजनीति में शीर्षस्थ होने की राजनीति की जा रही है। राजनीति में केवल दर्द को याद दिलाया जाता है, दर्द को मिटाया नहीं जाता, दर्द से डराया जाता है दर्द की दवा नहीं की जाती।
लेखक राजस्थान पत्रिका में रिपोर्टर के पद पर कार्यरत हैं। यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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