हेमंत कुमार झा।
उत्तर प्रदेश के बीते विधान सभा चुनावों में जब मतदान के दिन करीब आए तो एक दृश्य आम था।
राज्य के बड़े शहरों में प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे लाखों नौजवानों की भीड़ रेल गाड़ियों पर सवार हो कर अपने अपने कस्बों और गांवों में लौट रही थी ताकि वे वोट डाल सकें।
उनमें से अधिकतर लोग अखिलेश यादव को वोट देने जा रहे थे क्योंकि सात वर्षों की मोदी सरकार और पांच वर्षों की योगी सरकार ने रिक्तियां विज्ञापित करने के मामले में उन्हें नाउम्मीद किया था।
उस भीड़ में हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग के नौजवान थे जिनकी आकांक्षाएं समान थी...नौकरी।
इस मुद्दे ने उस आयु वर्ग के लोगों को सोच के एक धरातल पर ला दिया था।
यह अलग बात है कि मतगणना के बाद योगी सरकार पुनः पूर्ण बहुमत से जीती लेकिन अखिलेश की सीटों की संख्या में भी पिछली बार के मुकाबले ढाई गुने की बढ़ोतरी हुई।
वह भी तब जब मायावती की बसपा ने ज्ञात-अज्ञात कारणों से बीजेपी के लिए बैटिंग की।
बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदल के बाद तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बन कर सत्ता में आए।
इस मामले पर विश्लेषकों की अपनी-अपनी टिप्पणियां रहीं, लेकिन...एक बात जो सबने महसूस की, बेरोजगारी से त्रस्त बिहार के नौजवानों ने इस बदलाव का उत्साह के साथ स्वागत किया।
यह उत्साह जाति और धर्म की सीमाओं से परे था पढ़े-लिखे बेरोजगारों की उम्मीदें अचानक से परवान चढ़ने लगीं।
उन्हें याद आया कि तेजस्वी ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया था। बावजूद इसके कि तेजस्वी मुख्य नहीं, उप ही बने थे, लेकिन उम्मीदें थीं जो ठाठें मारने लगीं।
यानी रोजगार के ऐतिहासिक संकट से जूझ रहे युवा वर्ग की उम्मीदों के सेंटर अब शिफ्ट होने लगे हैं।
उन्हें मोदी-योगी ब्रांड पॉलिटिक्स में और चाहे जो बातें आकर्षित करती हों, लेकिन बात जब रोजी-रोजगार की आती है तो उनकी उम्मीदें कहीं और टिकने लगी हैं।
जीवन के मौलिक सवालों से जूझ रहे नौजवानों की उम्मीदों के सेंटर का शिफ्ट होना भले ही अभी बहुत प्रभावी तथ्य नजर न आ रहा हो, लेकिन, यह संकेत है कि बेवजह के उफान मारते संस्कृतिवाद और विशिष्ट किस्म के राष्ट्रवाद पर सवालों और संदेहों के बादल गहराने लगे हैं।
हिंदी पट्टी, जिसे गोबर पट्टी, काउबेल्ट आदि जैसे कई नाम विश्लेषक देते रहे हैं, भाजपा के उभार का केंद्र रहा।
यहां के नौजवानों में नरेंद्र मोदी को लेकर उत्साह और उम्मीदों का एक अलग ही लेवल बन गया।
यहां उन बातों को दोहराने की कोई जरूरत नहीं है कि मोदी ने देश के नौजवानों से क्या और कितने वादे किए थे।
जरूरत इस बात को दोहराने की है कि रोजी-रोजगार के मामले में मोदी की विफलता ऐतिहासिक रही।
इससे भी अधिक जरूरत इस बात को रेखांकित करने की है कि 'काऊ बेल्ट' कहा जाने वाला यह इलाका, जहां देश के सबसे अधिक बेरोजगार बसते हैं, अब इस मामले में मोदी से कोई अधिक उम्मीद भी नहीं रख रहा।
ये नौजवान मानते हैं कि मोदी ने उन्हें कश्मीर में प्लॉट खरीदने का अवसर मुहैया करवाया, वे यह भी मानते हैं कि माथे पर अजीब सी पट्टी बांध कर किसी धार्मिक जुलूस में मनोरोगियों की तरह चीखने, चिल्लाने, घोर आपत्तिजनक नारे लगाने आदि में पुलिस उन्हें डिस्टर्ब नहीं करती है, सत्ता के आईटी सेल और उसी सेल के अनैतिक एक्सटेंशन बन चुके बड़े-बड़े टीवी न्यूज चैनल इन नौजवानों को यह भी समझाने में बहुत हद तक सफल रहे हैं कि मोदी ने देश का नाम दुनिया में बड़ा किया, वरना अब तक तो नेहरू, इंदिरा आदि को दुनिया में जानता ही कौन था।
हिंदी पट्टी का नौजवान बहुत कुछ ऐसा मानने लगा है जो सत्ता और उसके भोंपू उससे मनवाने की साजिशें रचते रहे हैं।
लेकिन...
ये नौजवान अब गंभीरता से यह मानने लगे हैं कि और सब चाहे जितना मन लगा लो, मोदी जी के राज में नौकरी मिलने से तो रही।
हर क्षेत्र में अंध निजीकरण, लाखों सरकारी पदों को खत्म किया जाना, आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नीतिगत विफलताएं, जीवन के जरूरी सवालों को नेपथ्य में धकेल कर भावात्मक उबाल लाने वाले मुद्दों को हवा देना....देते ही जाना...और बाकायदा यह सुनिश्चित करना कि रोजगार के संकट से मानसिक रूप से टूटते-बिखरते नौजवानों के दिल-दिमाग बेवजह के इन उबालों में उलझे रहें।
कलई तो 2019 से पहले ही उतरने लगी थी, लेकिन पुलवामा और बालाकोट ने माहौल में एक अलग ही उत्तेजना का संचार कर चुनावों को खासा प्रभावित कर दिया था।
इतिहास इस तथ्य को जरूर विश्लेषित करेगा कि पुलवामा क्या था, बालाकोट क्या था।
सत्ता की राजनीति की अंधेरी परतें भी होती हैं और कोई आवश्यक नहीं कि समकालीन पीढ़ी उन परतों में उगी इबारतों को पढ़ ही ले।
बहुत कुछ आने वाली पीढ़ियां भी विश्लेषित करती हैं, अपने अन्वेषण के दायरों को विस्तृत करती हैं।
लफ्फाजी से भरी राजनीति दुनिया के सबसे अधिक बेरोजगारों से भरी हिंदी पट्टी के लिए बहुत भारी पड़ी है।
यहां के नौजवान अब शिद्दत से इसे महसूसने लगे हैं। उनकी उम्मीदों के केंद्र बदल रहे हैं। यही तथ्य इस इलाके में व्यापक राजनीतिक बदलावों का सूत्रधार बनेगा।
जीवन के जरूरी सवालों से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं, यह अहसास समय सबको एक न एक दिन करवा ही देता है।
यह भी तय है कि काऊ बेल्ट कहे जाने वाले इस निर्धन, किंतु राजनीतिक जीवंतता से भरे इलाके में राजनीतिक बदलाव पूरे देश को प्रभावित करेगा...जैसा कि इतिहास में हमेशा होता भी आया है।
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