राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश विधानसभा का अंतिम सत्र नज़दीक है, साल के अंत में विधानसभा चुनाव होंगे । पिछले विधान सभा चुनाव उसके परिणाम और सत्ता परिवर्तन का खेल किसी से छिपा नहीं है।
प्रदेश के नागरिक संसदीय लोकतंत्र के खेल के नए दांव-पेंच देखेंगे।
भारत की अनुभवजन्य वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए संविधान सभा में यह फैसला लिया गया था कि संसदीय लोकतंत्र ही देश का शासन चलाने के लिए सबसे उपयुक्त होगा।
तमाम जांच-परख और उतार-चढ़ाव के बावजूद उनकी बुद्धिमत्ता तो खरी उतरी,लेकिन समय बीतने के साथ ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कई विचलन और चुनौतियां भी देखी गई हैं।
इसमें कई दोष घुस चुके हैं। इनमें सबसे खराब दोष सत्ता और पैसों के लालच में दल-बदल करना है।
दुर्भाग्य से कुछ वर्षों से हमारा लोकतंत्र केवल चुनावों तक ही सीमित कर दिया गया । समय-समय पर चुनाव कराना, उनमें जीत या हार, एक लोकतांत्रिक देश होने के हमारे दावे को स्वीकार्य नहीं कर सकता है। इसमें और भी बहुत कुछ है।
अपना प्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया जातिवाद, सांप्रदायिकता, धन और बाहुबल जैसे कई कारकों से खराब हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति लोगों को निष्पक्ष रूप से सही और स्वतंत्र विकल्प चुनने में अक्षम बनाती है।
इन समस्याओं के अलावा, सबसे बुरी बीमारी जो हमारे लोकतंत्र में घर कर गई है, वह है राजनीतिक दल-बदल, मध्यप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद का घटनाक्रम अद्वतीय था ।
लोकतांत्रिक प्रणाली का मूल सिद्धांत है कि निर्वाचित प्रतिनिधि को प्रमुख रूप से अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेह और अपने राजनीतिक दल के प्रति वफादार होना चाहिए।
व्यक्ति उस वक्त सच्चा प्रतिनिधि नहीं रह जाता जब वह अपनी पसंद या लाभ के अनुसार लोगों की इच्छा और भावना के विपरीत कार्य करता है। यह आचरण लोकतंत्र को दूषित कर देता है।
राजनीतिक पंडितों के अनुसार राजनीतिक दल-बदल दो प्रकार के होते हैं- एक जनता से और दूसरा दल से। दोनों ही मामलों में यह जनादेश के साथ विश्वासघात और राजनीतिक व्यवस्था का विध्वंस है।
कोई भी व्यक्ति या कोई पार्टी अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने के वादे के साथ चुनाव लड़ती है और दूसरे दलों के सामने सार्वजनिक रूप से अपनी स्थिति बताती है। लोग उसकी नीतियों और जनता से किए गए वादों के आधार पर अपनी पसंद बनाते हैं।
फिर यदि निर्दलीय निर्वाचित प्रतिनिधि या किसी दल का सदस्य जनता के जनादेश के विपरीत व्यवहार करता है तो यह केवल राजनीतिक दल-बदल ही नहीं है, राजनीतिक धोखा भी है। ऐसी स्थिति में जनता खुद को ठगा महसूस करती है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया से इस विश्वासघात की कोई सजा नहीं होती, इस प्रकार का दल-बदल सदन के बाहर होता है साम, दाम,दंड और भेद के साथ।
हालांकि प्रतिनिधि सदनों में राजनीतिक दलों के दल-बदल को रोकने के लिए एक कानूनी ढांचा मौजूद है। बावजूद इसके, स्वार्थी लोग इसकी खामियों का फायदा उठाते हैं और एक राजनीतिक दल के दो-तिहाई से अधिक सदस्य थोक में दलबदल कर लेते हैं।
चुने हुए प्रतिनिधियों को सरकार बनाने या गिराने के लिए पाला बदलने पर सत्ता और पैसों का लालच दिया जाता है। इस प्रकार का हथकंडा जनादेश को अर्थहीन बना देता है।
यह देश में लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।
इस राजनीतिक बीमारी से निपटने के लिए गंभीरता से कोई विचार न तो किया गया और न ही किया जा रहा है। इस गिरावट को रोकने के लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति भी प्रदर्शित नहीं होती दिख रही है।
अब तो किसी भी हाल में चुनाव जीतना और सरकार बनाना जुनून के स्तर तक पहुंच गया है।
राजनीतिक प्रक्रिया में आ चुकी यह विकृति रोकने को कठोर उपाय किए जाने की जरूरत है।
निर्वाचित प्रतिनिधियों के कदाचार का मुकाबला करने के लिए मतदाताओं द्वारा ‘राइट टू रिकॉल’ के उपाय पर विचार किया गया और बहस हुई, पर नतीजा सिरे नहीं चढ़ा।
निर्वाचित प्रतिनिधियों में दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति रोकने का एकमात्र तरीका वर्तमान दल-बदल विरोधी अधिनियम को खत्म कर एक सरल और एकल प्रावधान के साथ इसे बदलना प्रतीत होता है।
“यदि कोई आजाद या पार्टी का सदस्य निर्वाचित होता है और चाहे किसी भी इरादे या कारण से किसी अन्य पार्टी में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे देता है, तो उसे उस कार्यकाल में सदन में फिर से चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
या, उसके दोबारा निर्वाचित होने तक किसी भी सार्वजनिक कार्यालय में प्रवेश से रोक दिया जाए।“ यह प्रावधान लोगों द्वारा चुनी गई सरकार को स्थिरता प्रदान कर सकता है, जो कि दल-बदल विरोधी अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य है।
इस निमित्त देश में एक ऐसा कानूनी ढांचा विकसित किया जाना चाहिए जो यह सुनिश्चित करे कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव के दौरान नागरिकों से किए गए वादों का हर हाल में पालन करे, दल बदल की स्थिति में पारदर्शी संव्यवहार हो।
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