राकेश दुबे।
देश की अदालतों में चार करोड़ से ज़्यादा मुक़दमे लम्बित हैं। पिछले दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने इस बड़ी समस्या की तरफ राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया है।
उन्होंने कहा कि देश में शीघ्र न्याय के लिये करोड़ों मुकदमों का बोझ कम करना जरूरी है, जिसके लिये पर्याप्त संख्या में अदालतें होनी चाहिए।
न्याय जगत में कहावत है कि देर से मिला न्याय भी अन्याय जैसा ही होता है,जो कालांतर सामाजिक असंतोष व हताशा का कारक बनता है।
वैसे भी भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में सुचारु न्याय व्यवस्था के लिये जरूरी है कि अदालतों को पर्याप्त संसाधन मिलें व जरूरी संख्या में न्यायाधीशों की नियुक्ति हो।
कई बार देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण और उनके पूर्ववर्ती न्यायाधीशों ने इस समस्या की तरफ राष्ट्र का ध्यान खींचा है।
शीघ्र न्याय और करोड़ों मुकदमों का बोझ कम करने के लिये पर्याप्त संख्या में अदालतें होनी चाहिए। विचार शीघ्र होना चाहिए, मुख्य न्यायाधीश ऐसा भी कई बार कह चुके हैं। यहां तक कि पिछले साल ट्रिब्यूनलों में रिक्त पदों का भी सवाल भी उठा था।
सवाल यह है कि केंद्र व राज्यों में रही सरकारों को यह क्यों नहीं लगता कि पर्याप्त संख्या में अदालतों की स्थापना के लिये वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराये जाएं जिससे न्याय तक आम आदमी की शीघ्र पहुंच बन सके।
यह संकट नया नहीं है, न्यायाधीशों व अदालतों की तादाद में कमी से लंबित मुकदमों की संख्या करोड़ों में जा पहुंची है।
गाहे-बगाहे कई मुख्य न्यायाधीश इस संकट की ओर सत्ताधीशों का ध्यान खींचते रहे हैं। कुछ तो तल्खी के साथ अपनी बात को सरकार के सामने रख चुके हैं।
यहां तक कि सेवानिवृत्ति पर इस मुद्दे पर बोलते हुए एक मुख्य न्यायाधीश की आंखों से आंसू तक छलक पड़े थे।
कमोवेश देश के सभी विधि आयोग देश में न्यायालयों के विस्तार की संस्तुति कर चुके हैं, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस पहल होती नजर नहीं आ रही है।
यही वजह है कि पिछले दिनों सरकारों का यह रवैया तेलंगाना के न्यायिक अधिकारियों के सम्मेलन में एक बार फिर उभरा है।
ऐसे में सरकारों को भी मंथन करना होगा कि न्यायपालिका में नियुक्तियों में विलंब क्यों है।
क्यों राज्यों में न्यायालयों की क्षमता कका विस्तार नहीं हो पा रहा है? क्यों लोगों को न्याय मिलने में तीस-चालीस साल का समय लग जाता है?
किसी सभ्य समाज में शीघ्र न्याय न केवल संवेदनशील विषय है बल्कि सामाजिक शांति के लिये भी एक अपरिहार्य शर्त है, परंतु पुराने मुकदमों के निस्तारण में देरी और नये मुकदमों का तेजी से बोझ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इन मुकदमों के बढ़ने में राज्य प्रशासनों की चूक भी निहित होती है, इसमें सुधार की गुंजाइश है।
एक सुझाव यह भी है कि शासन-प्रशासन चाहे तो कई गैर-फौजदारी मामलों का निस्तारण विवेक-सम्मत ढंग से किया जा सकता है, जिससे गंभीर मामलों के निष्पादन में लगी अदालतों पर अतिरिक्त बोझ न पड़े। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि लंबित मुकदमों से न केवल शासन-प्रशासन की बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि भी खराब कर रहे है कि यहां की न्यायिक प्रक्रिया संवेदनशील नहीं है।
वहीं चुनाव के दौरान जागरूक नागरिकों व सामाजिक संगठनों को राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडे में त्वरित न्याय की जवाबदेही को शामिल करना चाहिए।
साथ ही कुछ वैकल्पिक उपायों पर भी विचार करना चाहिए, जैसे न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाने, सेवानिवृत्त जजों की सेवाएं लेने, कुछ अवकाशों में कटौती, दो पालियों में मुकदमों का निस्तारण आदि।
लोक अदालतों की उपयोगिता व विस्तार पर फिर नये सिरे से विचार किया जाना जरूरी है, जिससे अदालतों पर मुकदमों के बोझ में तो किसी हद तक कमी लायी जा सके। ऐसे ही कुछ अभिनव प्रयास विचाराधीन कैदियों के बाबत भी किये जाने चाहिए, ताकि किसी निर्दोष का भविष्य बच सके।
Comments