राकेश दुबे।
हमारे देश भारत का कोई मुकाबला नहीं है, एक और दो जून की रोटी मेहनतकश को मुश्किल से भी मयस्सर नहीं है , वहीं पिछले 5 सालों में कॉर्पोरेट जगत का 10 लाख करोड़ बकाया ऋण माफ किया गया है। यह जानकारी पूरी तरह सही एवं प्रमाणिक होकर संसद में मौजूद है।
दुर्भाग्य देश के बहुत से अर्थशास्त्रियों द्वारा कॉर्पोरेट टैक्स घटाने की जरूरत को भी न्यायोचित ठहराने का यत्न किया गया और किया जा रहा है।
कुछ अध्ययन तो निर्णयात्मक तौर पर दर्शाते हैं कि न तो टैक्स में छूट देने से अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी हुई व न ही इससे और ज्यादा रोजगार के अवसर ही पैदा हुए।
आसानी से मिला पैसा अति-धनाढ्यों ने अपनी जेब में रख लिया।आर्थिक असमानता के ध्रुव और दूर –दूर जरुर जाते दिखे |
भारत में जहां इन दिनों ‘रेवड़ी संस्कृति’ चर्चा में है और अखबारों में किसान सहित गरीब तबके को मुफ्त की सुविधाओं या वस्तुएं देने के खिलाफ लेख आ रहे हैं वहीं कॉर्पोरेट्स जगत की भारी-भरकम कर्ज माफी, जो किसी भी तरह खाए-अघाए अमीरों को अमृत देने से कम नहीं है, पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है।
इक्का-दुक्का टीकाकारों द्वारा कॉर्पोरेट्स को मिलने वाली सब्सिडी, ऋण-माफी, टैक्स-हॉलीडे, प्रोत्साहन राशि, कर-छंटाई इत्यादि बांटे जा रहे हैं, उचित ठहराया जा रहा है।
भारत के बैंकों ने जो अतिरिक्त प्रयास किये वे किस तरह अति धनाढ्यों की जेबों में गए विचार का विषय तक नहीं बना।
अभी तक जिस तरह आजाद होकर स्टॉक मार्केट ने खेल का आनंद का लिया है, अब उस पर लगामें कसने वाली हैं और ऐसा करने की बहुत जरूरत भी है।
स्टेनले मार्गन के रूचिर शर्मा ने एक लेख में विस्तार से समझाया है कि किस तरह कोरोना महामारी के दुष्काल में छापी गई 9 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की अतिरिक्त मुद्रा, जिसका उद्देश्य लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था को संभालना था, यह करने की बजाय स्टॉक मार्केट के रास्ते अति-अमीरों की जेबों में चली गई।
यह भारी-भरकम पैसा ही असल में रेवड़ी है, बदनाम दूसरा तबका है।
भारत में, 2008-09 वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान, तीन चरणों में 1.8 लाख करोड़ की अतिरिक्त मुद्रा छापी गई थी। सामान्य रूप में यह राहत उपाय एक साल या उसके आसपास वक्त तक खत्म कर दिया जाना चाहिए था।
किंतु उद्योगों को 10 साल की अवधि में लगभग 18 लाख करोड़ की आर्थिक खैरात मिली। इसकी बजाय अगर यही धन कृषि में लगाया जाता तो किसानों को प्रधानमंत्री किसान योजना के अंतर्गत मिलने वाले 18 हजार रुपये वार्षिक सीधी आर्थिक सहायता के अलावा मदद मिल जाती।
जिस पर किसी अर्थ शास्त्री ने सोचा तक नहीं, सरकार तो सरकार है |
याद कीजिये , सितंबर 2019 जब एक अन्य टैक्स माफी के रूप में 1.45 लाख करोड़ रुपये उद्योगों को दिए गए।
यह वह समय था जब ज्यादातर अर्थशास्त्री सरकार को ग्रामीण बाजार में मांग को बढ़ाने के लिए आर्थिक राहत देने की सलाह दे रहे थे।
एक ओर कर्ज-संस्कृति को बिगाड़ने का दोष किसानों के माफ किए गए 2.53 लाख करोड़ पर मढ़ा जाता है तो वहीं यह भ्रम फैलाया जाता है कि कॉर्पोरेट जगत की कर्ज माफी से अर्थव्यवस्था को बल मिलता है।
अब संसद को सूचित किया गया है कि पिछले 5 सालों में कॉर्पोरेट जगत का 10 लाख करोड़ बकाया ऋण माफ किया गया है।
किसानों की कर्ज माफी की बनिस्बत, जिसमें बैंकों का बकाया राज्य सरकारें भरती हैं, कॉर्पोरेट्स का सारा ऋण से छोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं ऐसे लगभग 10 हजार से ज्यादा लोगों की सूची है जो कर्ज चुकाने की हैसियत रखने के बावजूद जान-बूझकर नहीं चुका रहे हैं।
सरकार का सारा नजला गरीब उपभोक्ता और किसानों पर गिरता है और जारी है।
पिछले बजट दस्तावेजों में ‘राजस्व माफी’ नामक एक अन्य श्रेणी भी थी।
एक लेखक प्रसन्ना मोहंती ने अपनी किताब‘एक बिसरा वादा : भारतीय अर्थव्यवस्था को किसने पटरी से उतारा’, में साफ किया है कि कैसे अपरोक्ष कराधान को सशर्त और बिना शर्त श्रेणियों में बांटकर भारत में सकारात्मक रूप दिया गया।
जिसके फलस्वरूप 2014-15 में कॉर्पोरेट्स को ऋण माफी के जरिए मिला 5 लाख करोड़ से ज्यादा किताबों में दिखा, लेकिन बाद में इसे उपरोक्त वर्णित आंकड़ेबाजी से सिकोड़कर 1 लाख करोड़ दर्शा दिया गया।
इस विशालकाय कर-माफी और छूट को छिपाने को सुन्दर नाम दिया -कर प्रोत्साहन का राजस्व पर प्रभाव। सवाल यह है कि इस आंकड़ेबाज़ी से देश जिसमें अधिसंख्य गरीब बसते हैं, उन्हें क्या मिला ?
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