आशीष एनके पाठक।
भगवन आदिशंकराचार्य की तपोभूमि ज्योतिर्मठ! नारायण बद्रीनाथ के शयन की भूमि ज्योतिर्मठ! देवभूमि के पूज्य देवस्थलों की केन्द्रभूमि ज्योतिर्मठ!
या कहें तो लोभी मनुष्य के विकासवादी अत्याचार के कारण फट रही पहाड़ की छाती पर टूट कर बिखर रहा ज्योतिर्मठ।
कुछ भी कह लीजिये, आज का सच यही है कि हमने अपने ही हाथों अपना एक पवित्र देवस्थान ध्वस्त कर दिया है।
पुराण बताते हैं, हमारे पापों के कारण एक दिन माँ गंगा विलुप्त हो जाएंगी। इसे विज्ञान की भाषा में समझना हो तो सरस्वती नदी के उदाहरण से समझें।
सरस्वती नदी पर शोध करने वालों के अनुसार हिमालय क्षेत्र में हुए किसी बड़े भूस्खलन के कारण नदी की धारायें अपनी दिशा बदल गईं और सनातन सभ्यता की जन्मदात्री माता सरस्वती का अस्तित्व समाप्त हो गया।
जोशीमठ से जो शुरू हुआ है, क्या वैसा ही नहीं है? मनुष्य के जिन पापों के कारण माँ गङ्गा को धरा छोड़ना है, उसकी शरुआत हो चुकी है।
हम यदि तनिक भी समझदार होते तो जोशीमठ की दरारें आज विमर्श का सबसे बड़ा मुद्दा होतीं, पर ऐसा है नहीं।
हम बहाने ढूंढ रहे हैं कि कैसे अपने पापों को किसी और के माथे मढ़ सकें। हमें बस एक संकेत चाहिये, हम इसे चीन का षड्यंत्र बता कर स्वयं को मुक्त कर लेंगे।
सरकार जोशीमठ के नागरिकों की सुरक्षा को लेकर चिंतित होने के दावे कर रही है। देश के बुद्धिजीवी भी उन्हें बचाने की चिन्ता में गल रहे हैं।
जोशीमठ को बचाने की बात कहीं नहीं हो रही। होगी भी नहीं, क्योंकि हम जोशीमठ के होने का मूल्य ही नहीं समझ रहे हैं।
सुनने में तनिक कड़वा है पर सच है कि आधुनिक संसाधनों के साथ यदि आप पहाड़ों की ओर जा रहे हैं तो अधर्म कर रहे हैं।
यदि आप देवभूमि के पवित्र तीर्थों की यात्रा में सुविधाएं ढूंढते हैं तो पाप करते हैं।
इस विनाश का पाप आप ही के माथे लगेगा यदि आप छुट्टियां मनाने के लिए हिमालय क्षेत्र में प्रवेश करते हैं।
आपको समझना होगा कि हिमालय सभ्यता की तपोभूमि है, असभ्यता का ऐशगाह नहीं...
30 साल पहले तक चार धाम की यात्रा जीवन की अंतिम यात्रा होती थी। इसके बाद लोग उधर ही गल जाते थे, या वापस लौट कर पूर्णतः सन्यासी जीवन व्यतीत करते थे।
हमने देखे हैं यात्रा के पहले महीनों से लहसुन प्याज छोड़ देने वाले लोग, लोभ मोह ईर्ष्या झूठ आदि गृहस्थी के सामान्य अवगुणों से पीछा छुड़ा लेने वाले लोग!
हम बदरी केदार जाते थे मन की शांति के लिए, परलोक सुधारने के लिए। अब जाते हैं रील बनाने के लिए, ट्रैकिंग के लिए, नदी में बोटिंग के लिए, फेसबुक इंस्टा पर वायरल होने के लिए...
जब केदारनाथ में दारू पी कर रील बनाना फैशन हो जाय, तो धरती फटेगी। जब पैसा कमाने के लोभ में सरकारें मैदान और पहाड़ के बीच का अंतर भूल जांय, तो धरती फटेगी।
जब माँ गंगा का जल हमें मोक्षदायी अमृत से अधिक विद्युत परियोजना का कच्चा माल लगने लगेगा तो धरती फटेगी। आप रोक पाएंगे? नहीं।
पहाड़ों के विनाश को रोकना है तो इस फर्जी विकास को रोकना होगा।
तीर्थ और पर्यटन स्थल का भेद हम सम्मेद शिखर जी के विरोध से सीख लें तो बेहतर, नहीं तो प्रकृति सब कुछ रोक देगी। प्रकृति अपने अपराधियों को कभी माफ नहीं करती।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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