हेमंत कुमार झा।
रूस-यूक्रेन युद्ध और इससे उपजा गम्भीर भू-राजनीतिक तनाव भूमंडलीकरण के अंतर्विरोधों का स्वाभाविक निष्कर्ष है।
इस संकट को किसी न किसी रूप में आना ही था। यूक्रेन पर रूस हमला नहीं करता तो ताइवान पर चीन कर देता, या फिर, उत्तर कोरिया को लेकर ऐसा कोई उपद्रव उठ खड़ा होता कि दुनिया सांसत में आ जाती।
जवान होते बच्चों को स्वप्न दिखाया गया कि दुनिया अब एक विश्वग्राम में तब्दील हो रही है और वैश्विक अर्थव्यवस्था इतनी एकात्म होती जाएगी कि व्यापारिक अनिवार्यताएं युद्धों को अव्यवहारिक और अप्रासंगिक बना देंगी।
लेकिन, नीतिगत विफलताओं से जर्जर होती अर्थव्यवस्था ही संकट में आने लगी। कहाँ तो विश्वग्राम की संकल्पना में अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक बनने वाली थीं, दुनिया को एक स्थायित्व और सह अस्तित्व का आधार देने वाली थी, कहाँ एक दूसरे का मांस नोचने की नौबत आ गई।
अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस और चीन इन पांच देशों की हिस्सेदारी विश्व हथियार व्यापार में 75 प्रतिशत से भी अधिक है। ब्रिटेन भी इस क्षेत्र का बड़ा खिलाड़ी है। उनके बाजारों को सबसे अधिक चमक हथियारों की बिक्री से ही मिलती है।
2008 की ऐतिहासिक मंदी के बाद खास कर पश्चिमी दुनिया अभी तक इसके दुष्प्रभावों से उबर नहीं सकी है। लाख कोशिशों के बावजूद बाजार में गतिशीलता नहीं आ सकी तो हथियार का बाजार ही इन देशों के लिये उद्धारक की भूमिका में आया।
दुनिया जानती है कि अमेरिका के राष्ट्रपति का जब चुनाव होता है तो बड़ी हथियार कम्पनियां उसमें बड़ी मात्रा में पैसा लगाती हैं और उम्मीद करती हैं कि चुने जाने के बाद अगला राष्ट्रपति उनके हथियारों की अबाध बिक्री के लिये बाजार तैयार करेगा।
कमोवेश हर राष्ट्रपति ने इस अलिखित कांट्रेक्ट का पालन किया। बाजार की मंदी से घटती सरकारी आमदनी में भी हथियार व्यापार से प्राप्त टैक्स एक मजबूत सहारा बना।
ऐसा कोई अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं हुआ जिसने नाटो के विस्तार की कोशिशें न की हों। तब जबकि, सोवियत संघ के विघटन के बाद इसकी प्रासंगिकता नहीं रह गई थी।
लेकिन, नाटो को प्रासंगिक बनाए रखने के लिये चीन को और उसके बाद रूस को नए शैतान के रूप में रंग रोगन कर सामने लाया गया। यह ऐसा विश्वग्राम था जहां शक्ति और हितों के टकराव के अनेक द्वीप बनने लगे और दुनिया महाविनाश की आशंकाओं से सदैव घिरी रही।
नियम है कि जो भी नया देश नाटो का सदस्य बनेगा वह अपने रक्षा बजट में नए सिरे से भारी निवेश करेगा ताकि उसके पास अत्याधुनिक संहारक अस्त्र और डिफेंस इंफ्रास्ट्रक्चर हो, ताकि वक्त पड़ने पर नाटो की सेना उनका उपयोग कर सके।
जो भी नया सदस्य बना, उसने अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन आदि से बड़ी मात्रा में हथियार खरीदे, वहां की कम्पनियों को अपने 'डिफेंस इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंट' के बड़े-बड़े ठेके दिए।
इस लाइन में पूर्व सोवियत प्रभाव वाले देश भी जुड़ते गए और वे अपनी जनता की मौलिक जरूरतों को दरकिनार कर अपने रक्षा बजट को बेतहाशा बढ़ाते गए।
अब, जो नाटो से नहीं जुड़े और जिन्हें इसके विस्तार से खतरा था, वे भी पूरी ताकत से डिफेंस इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास और हथियारों की खरीद में लग गए।
हथियार कम्पनियों की चांदी होती रही। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि के अपने खरीदार थे, रूस-चीन जैसे बड़े हथियार उत्पादक देशों के अपने खरीदार थे।
दुनिया का भू-राजनीतिक तापमान बढ़ाए रखने के लिये राष्ट्रवाद एक प्रभावी औजार बन कर सामने आया। तो, इसे बढ़ावा देना विश्व हथियार आर्थिकी के लिये जरूरी था।
बात केवल हथियार की ही नहीं थी। बाजार को मुक्त करने के नाम पर उस पर कब्जा करने की योजनाएं बड़ी साजिशों की अपेक्षा रखती थीं। आखिर, जनमत को तो अपने अनुकूल करने के लिये चेतनाओं की कंडीशनिंग तो करनी ही होगी।
भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण, जो भी कहें, के नाम पर दुनिया के बाजारीकरण का जो अभियान चला उसमें वैश्विक कारपोरेट शक्तियों की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने ऐसी राजनीतिक शक्तियों को प्रश्रय दिया जो उनके अनुकूल नीतियां लागू करें और जनता को भ्रमित करने के लिये तरह-तरह के वितन्डों का इस्तेमाल करें।
राष्ट्रवाद विश्वग्राम की संकल्पना में इस शब्द की बहुत अधिक प्रासंगिकता नहीं थी, लेकिन विश्व राजनीति में इसे नई आक्रामकता के साथ नए स्वरूप में प्रासंगिक बनाया गया।
यह भूमंडलीकरण के सिर के बल खड़े हो जाने जैसा था। अमेरिका ने ट्रंप को ताज पहनाया, भारत ने मोदी को, तुर्की ने एर्दोआन को, रूस का प्रो पुतिन कारपोरेट वर्ग वहां के लोकतंत्र की भ्रूणहत्या कर नए राष्ट्र निर्माण में लगा, शी जिनपिंग के रूप में एक अलग राग छेड़ा गया जिसमें उन्हें 'राष्ट्र' के लिये अपरिहार्य बता कर आजीवन राष्ट्रपति घोषित कर दिया गया।
उधर, ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर होना एक प्रतीक बना कि सामूहिकता के बरक्स राष्ट्रीय हित अधिक महत्वपूर्ण हैं।
महज तीन चार दशकों में ही भूमंडलीकरण का ज्वार थम चुका है और यूक्रेन संकट के बाद अब हाल यह है कि हर देश एक दूसरे को संशय की निगाह से देख रहा है। अचानक से देशों का रक्षा व्यय बढ़ गया है। हथियारों के निर्माण और उनकी बिक्री में ऐतिहासिक तेजी आ गई है।
सबसे बड़े हथियार निर्यातक देश अमेरिका के बाजार में चहल-पहल बढ़ गई है। यूक्रेन को नाटो में शामिल कर रूस को नकेल पहनाने की मंशा रखने वाले और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये यूक्रेन में अतिराष्ट्रवादी तत्वों को बढ़ावा देने वाले अमेरिका ने ताजा बयान दिया है कि "दुनिया को लंबे युद्ध के लिये तैयार रहना चाहिये।"
यही तो अघोषित वादा रहा है अमेरिकी राष्ट्रपतियों का अपनी हथियार कम्पनियों से...कि दुनिया को हमेशा युद्ध और आशंकाओं के 'मोड' में रखना है,ताकि हथियारों का बाजार गुलजार रहे।
संचार साधनों ने तकनीकी रूप से दुनिया को बहुत हद तक विश्वग्राम में बदल दिया है, लेकिन यह ऐसा विश्वग्राम है जहां संशय है, आशंकाएं हैं, भय है, अविश्वास है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के रूप में सबसे बड़ी विश्व संस्था हमेशा की तरह इस वैश्विक संकट के दौर में निरुपाय सी शांति की महज अपील कर पा रही है, जिसे न कोई सुन रहा है न मान रहा है।
जिन संसाधनों को निर्धनता उन्मूलन, बीमारियों के उन्मूलन, शिक्षा के प्रसार और आम लोगों के जीवन स्तर के सुधार में लगना था वे एक दूसरे को मारने-काटने के उपकरण खरीदने के काम में लग रहे हैं।
यूक्रेन संकट खत्म होगा, चाहे जिस रूप में खत्म हो, चाहे इसके जो राजनीतिक निष्कर्ष सामने आएं, लेकिन एक निष्कर्ष तो सामने आ गया कि दुनिया का हर देश अपने रक्षा बजट को लेकर नए सिरे से विचार करने लगा है। दुनिया का हथियार बाजार एक नई चमक के साथ उफान पर है।
भूमंडलीकरण के अंतर्विरोधों ने विश्वग्राम के आदर्शों को शीर्षासन की अवस्था में ला खड़ा किया है। कमजोर लोगों और कमजोर देशों का मांस नोंच कर, उनका खून पी कर मोटे होते जाने की अभिलाषाएं जब तक जिंदा रहेंगी, जब तक इन शैतानी अभिलाषाओं को जमींदोज करने वाली मानवीय शक्तियां एक होकर मजबूती के साथ उनके प्रतिरोध में खड़ी नहीं होंगी, तब तक दुनिया में शांति और सह अस्तित्व का माहौल बन ही नहीं सकता।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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