संजय शेफर्ड।
जिन्दगी की जद्दोजहद में भी ईमानदार कोशिश और बेईमान भरम में बारीक सा फ़र्क होता है। और यही फ़र्क आगे चलकर डिफरेंट पैदा करता है।
मामला सिर्फ बनारस की लड़कियों का नहीं पूरे देश का है। देश का ही क्यों ? समूची दुनिया का है। इस समय दुनिया भर की लड़कियां और महिलाएं अपनी उसी ईमानदार कोशिश में लगी हैं। और सत्ता बेईमान भरम पैदा करने में लगी हुई है। बात बनारस की लड़कियों की है।
और अगर आप यह सोच रहे हैं कि मैं किसी पार्टी विशेष की बात कर रहा हूं तो आप गलत सोच रहे हैं। आपका दिमाग सड़ चुका है, आप संकुचित मानसिकता के बेहद गिरे हुए जीव हैं जिसे इस वक़्त इंसान कहना भी मेरी तरफ से अनुचित लग रहा है। सत्ता का मतलब सिर्फ भाजपा नहीं है और ना ही संघ। सत्ता का मतलब भाजपा भी है, कांग्रेस भी और संघ तथा वामपंथ भी है और इसके आलावा वह तमाम छोटी-बड़ी पार्टियां भी जो सवैंधानिक भारत के ढांचे के निर्माण में सहायक होती हैं।
यह कौन से लोग हैं जो छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी सामाजिक घटना और मानवीय मुद्दे को जाति, धर्म, विचारधारा और राजनीति के चश्में से देख रहे हैं ? एक बार चश्मा हटाकर देखिये। फिर आंख बंद कीजिये, थोड़ी देर के लिए आदमी बन जाइये।
मुझे पता है कि आप सत्ता, समाज और जीवन से कुढ़े हुए हैं और कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहे हैं। क्या आपके दिमाग में एक बार भी यह ख्याल आया कि छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी विक्षिप्त घटना को कम करने के सबसे अहम उपाय कौन-कौन से हो सकते हैं ? नहीं, नहीं सोचा होगा आपने, और सोचेंगे भी कैसे आपकी सोच तो मीडिया और सोशल मीडिया तय कर रहा है। आप एक ऐसी जगह पर खड़े हैं जहां सिर्फ राजनीति ही नहीं, राजनीतिक पार्टी ही नहीं, राजनेता ही नहीं आम जनता तक फेंक और जुमलेबाजी की शिकार है।
आपकी हंसी, आपकी मुस्कराहट, आपके रुदन, हास्य, आंसू, आपके सारे इमोशनस आर्टिफिशल हैं। आप इतना हो हल्ला करके किसका भला करने वाले हैं? किसे सुधारना चाहते हैं? पहले खुदको सुधार कर तो देखिये, पहले खुद को तो इस देश के प्रति जवाबदेह बनाइये। यह जो छेड़छाड़ बलात्कार करने वाले लोग हैं किसी और देश से एक्सपोर्ट करके नहीं लाये गयें हैं। हमीं आप लोग तो हैं जिन्हें एक लड़की अथवा महिला में मां-बहन कम और रखैल रंडी-छिनाल—कुलटा ज्यादा नजर आती है।
यह वही समाज है जो अपने घर-परिवार की लड़कियों को इस बात की आश्वस्ति नहीं दिला पा रहा है कि तुम चाहे किसी की भी बेटी बहन हो, पहले समाज की बेटी बहन हो, पहले इस देश की बेटी बहन हो, तुम्हारी सुरक्षा हम सुनिश्चित करेंगे। यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा है कि तुम इतनी चिंतित क्यों हो? तुम्हारी रक्षा, सुरक्षा, संरक्षा सिर्फ तुम्हारी नहीं हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है। वही आज सड़क पर है।
आज का मतलब हर उस दिन से है जो जब कोई ऊंची चित्कार या फिर धिक्कार उठती है। यह बाहर सड़क पर निकल आता है। तुम्हारे लिए नहीं, खुदके बचाव में, क्योंकि इसे खुदको सभ्य, सुसंगठित और महान भी तो साबित करना है!
देश की आधे से ज्यादा लड़कियां आठवीं तक आते-आते स्कूल छोड़ देती हैं। कारण आप जानते हैं, लेकिन आपके कान पर जू तक नहीं रेंगता। फिर आखिर आप किसी त्योहारी दिन के शोर शराबे में इतने संवेदनशील, इतने भावुक, इतने जागरूक कैसे हो जाते हैं कि सीधे सीधे सड़क पर आ खड़े होते हैं ?
दरअसल, आप बेवकूफ नहीं, स्मार्ट देश के स्मार्ट सिटीजन हैं, कहीं निकलने से पहले स्मार्ट फ़ोन की बैटरी और पिक्चर क्वालिटी पहले चेक कर लेते हैं। फिर बहुत ही स्वाभिमान, बहुत ही रोष, बहुत ही गुस्से के साथ मोबाइल फ़ोन का कैमरा आन करके यह बताने में लग जाते हैं कि देखो लड़कियों को पुलिस पीट रही है, लड़कियों पर अत्याचार हो रहा है, प्रशासन ने लड़कियों के देह के कपड़े तक फाड़ दिए हैं, सरकार इतने बड़े मुद्दे पर मौन है, इसे अगले चुनाव में खामियाजा भुगतना होगा।
पब्लिक में हो रहा है इसलिए आपको फटे हुए कपड़े दिख रहे हैं, लेकिन यही जब घर के अंदर अंधेरे कमरे में होता है तो उन्हीं लड़कियों की देह पर जगह-जगह पड़ी खंरोच आपकी बौद्धिकता और संवेदना पर रूढ़िवादिता का चोंगा डाल देते हैं। फिर सब कुछ हफतों तक ऐसे चलता है जैसे कि इस देश को बिगाड़ने और ख़राब करने में आपका कोई हाथ नहीं है। अपने ही घर में हो रहे लड़कियों के प्रति लिंग के आधार पर सदियों से चला आ रहा भेदभाव तो कभी हमें नजर ही नहीं आता।
दरअसल, आपको उन लड़कियों की सुरक्षा से कोई लेना देना ही नहीं, आपके सरोकार और मंशा कुछ और ही है, आप दौड़ती-भागती-हांफती दुनिया में कहीं पीछे ना छूट जाएं इसलिए अपनी मौजूदगी बरकरार रखना सीख गये हैं। ईमानदार कोशिश तो रही ही नहीं रही हम सबके जीवन में, हम सब बेईमान भरम के शिकार हो चुके हैं। एक सेंकेंड के 100 वें से भी कम समय में लाइक, कमेंट, शेयर।
आपको लग रहा होगा कि इस दुनिया का सबसे महान काम हमीं कर रहे हैं। समस्या सिर्फ आपकी ही नहीं बाकि हम सब लोग भी यही सोच रहे हैं। त्वरित भावनाओं का उबाल, बौद्धिक स्खलन और नपुंसकता का शिकार समाज। आखिर किसने बनाया हमीं ने तो? अब डैमेज कण्ट्रोल करने में लगे हैं, बिल्कुल उसी तरीके से जैसे सत्ता करती है। हमारे हावभाव, हमारे इंटेंशन, हमारी क्रिया-प्रतिक्रिया सब कुछ पक्ष-विपक्ष की राजनीति से प्रेरित होती है।
सवाल सही गलत का नहीं है, सवाल ईमानदार कोशिश का भी नहीं, सवाल बेईमान भरम का है। इसलिए थोड़ी सी दिमाग की नस को ढीली और दुरुस्त करने की जरूरत है। बनारस की लड़कियों के लिए संवेदना की जो बाढ़ आई हुई है वैसी ही बाढ़ कुछ साल पहले दिल्ली के 16 दिसम्बर को हुए निर्भया मामले में भी सड़क से संसद तक देखने को मिली थी लेकिन हुआ क्या? संवेदना का पूरा समुन्द्र उमड़ पड़ा था लेकिन कुछ नहीं बदला, पाई भर भी नहीं! समझे क्यों ? क्योंकि हम लोग नहीं बदले। इसलिए यह जो सब हो रहा है ना उस पर उत्तेजना में बहने से पहले गहरे में उतरकर थाह लेने की जरूरत है। अपने आपको थोड़ा सा अंदर तक टटोलने की जरूरत है।
हम किस प्रयोजित भरम का शिकार हो रहे हैं? हमारी संवेदनाएं, महिलाओं के प्रति मूल्य उसी वक्त क्यों जागते हैं जब बाहर शोर होता है? हमारी संवेदना को जागने के लिए हर बार धरने प्रदर्शन की जरूरत क्यों पड़ती है? कभी खुद से पूछा? तुम्हारा रोष किसके प्रति है? पुलिस प्रशासन या फिर सत्ता के? क्या तुम्हें कभी खुद के प्रति रोष नहीं आता? समाज और उस मानसिकता के प्रति नहीं आता जो लड़की को एक ऑब्जेक्ट समझती है? तुम किस सुरक्षा की बात कर रहे हो? तुम इस वक़्त किस तरह के साथ की बात बार- बार दोहरा रहे हो? जब तुम उनके साथ घर जैसी समतल जगह पर उन्हें अपने समान्तर नहीं खड़ा कर सके, चौराहे पर एक साथ कैसे चल सकोगे?
लाठीचार्ज, पुलिस की मार, सत्ता की बेरुखी, यह सब बहुत ही सामान्य सी बात है और असामान्य भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इन सबके लिए तो लड़कियों ने अब खुदको तैयार कर लिया है। तुम्हारे साथ की जरूरत वहां है जहां वह घर-परिवार के बीच रहकर भी हर बार अलग-थलग और अकेली पड़ जाती हैं। शुरुआत एक बार अपने-अपने घर से करके देखो? एक बार आदमी बनकर देखो।
और हां, एक बात बता दें! सत्ता और प्रशासन कभी किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार नहीं करती। यह तुम्हारे और हमारे किये प्रजातांत्रिक बलात्कार का सिर्फ और सिर्फ डैमेज कण्ट्रोल करती हैं।
क्योंकि तुमने उन्हें चुना है और तुम्हारे प्रति उनकी कुछ जवाबदेही बनती है, उस जवाबदेही को पूरा नहीं करने के एवज में वह एक तरह से तुम्हारा ही बचाव करती हैं, जानते हो क्यों? क्योंकि इस देश के आलावा एक दुनिया भी है, वहां भी छवि बरकरार रखनी होती है। क्या तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा कि दिल्ली की छवि रेप कैपिटल की बनने के बाद भारतीय पर्यटन विभाग को कितना नुकसान उठाना पड़ा था ?
हर इंसान के अन्दर एक शैतान भी कहीं छुपकर बैठा है, क्या पता वह कब बाहर आ जाये। क्या पता धरने-प्रदर्शन के दौरान ही? इसलिए शुरुआत घर से, वैवाहिक बलात्कार भारतीय संविधान के मुताबिक कोई जुर्म नहीं है। यह वही संविधान है जो तुम्हें अपनी खुदकी बीबी का बलात्कार करने की पूरी आजादी देता है लेकिन कोई भी देश किसी की बीबी अथवा रखैल नहीं होता है।
मैंने कहा था ना कि जिन्दगी की जद्दोजहद में भी ईमानदार कोशिश और बेईमान भरम में बारीक सा फ़र्क होता है। और यही फ़र्क आगे चलकर डिफरेंट पैदा करता है। डिफरेंट आएगा । सोचना कि तुम खुद चल रहे हो कि तुम्हें कोई और चला रहा है। बहुते नादान हो बे, बलात्कार गली, मुहल्ले और घर में हुआ है और तुम सलूशन सड़क पर ढूढ रहे हो? एक बात बताओ सुई जहां गिरी है, वहीं मिलेगी कि कहीं और ?
खैर, इस समय तुम सुई थोड़े, सुई के बदले में दरअसल तलवार ढूँढ रहे हो! ई बात हम अच्छी तरह से जानत हैं। हम सबकी अपनी ढफ़ली,अपना-अपना राग है। हमने भी मल्हार छेड़ दिया है। जय हो!
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