आशुतोष कुमार।
डर और ग़ुस्से के बीच इतने मीनमेख की जरूरत नहीं है। नसीरुद्दीन शाह के ग़ुस्से के पीछे निस्संदेह एक डर है।
यह भी सच है कि पिछले चार सालों में यह डर जिस तरह प्रत्यक्ष और प्रबल होकर सामने आया है, उस तरह पहले कभी नहीं था। इस डर से कोई बरी नहीं है। न हिन्दू न मुसलमान।
दंगे फ़साद, जनसंहार और हत्याएं हमेशा होती रही हैं। आतंकी घटनाएं भी दुनिया भर में घटती रही हैं।लेकिन आज देश की परिस्थिति गुणात्मक रूप से भिन्न है।
सिर्फ़ यह नहीं आज किसी को कहीं भी क़त्ल या लिंच होना पड़ सकता है, उससे ज़्यादा यह कि उसका क़त्ल या लिंच होना ही उसके गुनाहगार होने का प्रमाण मान लिया जा सकता है। मुखर मध्यवर्ग के एक विराट हिस्से द्वारा भी। सरकारी मशीनरी द्वारा भी। ऐसा पहले नहीं था।
गौरी लंकेश और सुबोध कुमार इसके ताज़ा उदाहरण हैं।
साम्प्रदायिक सोच लंबे समय से मौज़ूद रही है, लेकिन इस देश में उसे सामाजिक वैधता और राजनीतिक समर्थन हासिल नहीं था। हिन्दू या मुसलमान से नफरत अगर थी भी तो एक शर्मिंदगी के साथ। लोग अपनी साम्प्रदायिक सोच को ढंक-तोप कर रखते थे। दंगाई तबीयत का आदमी भी खुद को 'सच्चा सेक्युलर' बताता था।
अब से पहले भारत में सेक्युलरवाद, वैज्ञानिक चेतना, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय और स्त्रीमुक्ति जैसी अवधारणाओं को खुलेआम गालियाँ देना मुमकिन नहीं था।
यह सच है कि नसीर ने एक अलग तरह के डर की बात कही है। यह कि कहीं मेरे बच्चों से कोई धर्म न पूछ ले। धर्म-मुक्त सेक्युलर होना हिन्दू मुसलमान होने से कहीं अधिक डरावना हो गया है। क्योंकि वह इस देश में सबसे अधिक अकेला है।
आख़िर पानसरे, कलबुर्गी और दाभोलकर के हत्यारों का कुख्यात संगठन आज भी कानूनी ढंग से खुलेआम सक्रिय है। और जिनके ख़िलाफ़ सबूत की एक धज्जी नहीं मिल पाई, वे अर्बन नक्सलवाद के नाम पर जेलों में बंद हैं।
यह डर इतना मूर्त और अमूर्त एक साथ है कि सत्ताधारी ख़ेमे से संबद्ध होना भी उससे किसी को बचा नहीं सकता। शायद अफसर और मंत्री भी इस डर से बरी नहीं हैं।
आप कह सकती है कि अगर इतना डर है तो मैं यह सब लिख कैसे रहा हूं। लिखना तो है,क्योंकि
अब लिखना और कहना ही उस डर से लड़ने का तरीका है, चुप रहना नहीं।
चुप रहना उस डर को हावी हो जाने देना है, जो वास्तविक है और सामने मौज़ूद है।
Comments