सुंदर चंद ठाकुर।
क्या यह हास्यास्पद नहीं कि सरकार ने सिर्फ इसलिए टीवी पर कंडोम के विज्ञापन सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक दिखाने बंद कर दिए, क्योंकि बच्चों द्वारा इन विज्ञापनों को देखने का डर उसे आक्रांत किए हुए था। मानो बच्चे टीवी पर कंडोम के विज्ञापन न देखें, तो उन्हें सेक्स नाम की चीज के बारे में कुछ पता ही न चलेगा।
वैसे, अगर उन्हें वाकई कुछ पता न चले, तो क्या तब सरकार खुश होगी? क्योंकि एक दूसरी विचारधारा भी तो है जो सेक्स एजुकेशन की बात करती है कि बच्चों को जितनी जल्दी यह शिक्षा दी जाए, वे उतना ही सेफ हो सकेंगे। क्या सरकार को इस बात का अहसास भी है कि ऐसा कदम उठाकर वह असल में कितना बड़ा अपराध कर रही है?
जी हां! मेडिकल पत्रिका ‘लैंसेट ग्लोबल हेल्थ’ में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के मुताबिक भारत में 2015 में 1.56 करोड़ गर्भपात हुए। सरकारी आंकड़ों में भारत में प्रतिवर्ष सिर्फ 7 लाख गर्भपात ही दर्ज हैं। क्योंकि इनमें प्राइवेट अस्पतालों और घरों में दवाओं के जरिए गर्भपात करवाने के आंकड़े शामिल नहीं। खैर, आंकड़ों की बात हम बाद में करेंगे।
पहले यह बता दें कि ‘पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा का क्या कहना है। उन्होंने सूचना एवं प्रसारण विभाग के इस विचार को पीछे ले जाने वाला कदम बताते हुए कहा है कि इससे भारत में सेक्स और प्रजनन संबंधी हमारी दशकों की उन्नति बेकार हो जाएगी।
हालांकि भारत में सिर्फ 5.6 प्रतिशत आदमी ही कंडोम का इस्तेमाल करते हैं, पर इस देश में यह सबसे पुराना और सबसे महफूज गर्भनिरोधक है। दरअसल कंडोम दो संतानों के बीच पर्याप्त फासला रखने का काम तो करते ही हैं, बल्कि सेक्स से होने वाली दूसरी बीमारियों के संक्रमण को भी रोकते हैं। यह किसी से नहीं छिपा है कि आजकल बच्चों की पहुंच कंडोम के विज्ञापनों की तुलना में कहीं ज्यादा तथाकथित 'अनैतिक' और खतरनाक सामग्री तक भी है और हमारे पास उन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं है।
दरअसल हमें इस मामले में बहुत ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। लेकिन यह तय है कि हम बच्चों से बहुत कुछ छुपा नहीं सकते। उनके देखने पर पाबंदी लगाकर हम अपने मन को ही खुश कर सकते हैं, पर इससे समाज को ज्यादा नुकसान होगा। सरकार को अगर करना ही था, तो वह इन विज्ञापनों की उस अश्लीलता को कम या खत्म कर सकती थी, जो उनके नैतिक मापदंडों के आड़े आ रही थी।
निस्संदेह कंडोम के विज्ञापन पोर्न फिल्मों से भी खतरनाक या समानता का भ्रम देने वाले नहीं लगने चाहिए, क्योंकि इसकी कोई जरूरत नहीं। ऐसे विज्ञापनों का मकसद देखने वालों को पोर्न का सुख देना या सेक्स की ओर आकर्षित करना नहीं, बल्कि कंडोम के प्रयोग को बढ़ावा देना है। उसके बारे में जागरूकता फैलाना है।
पूनम मुतरेजा इस बारे में एक अच्छा सुझाव देती हैं कि जिस तरह फिल्मों के ग्रेड होते हैं, उसी तरह कंटेंट के आधार पर इन विज्ञापनों के भी ग्रेड होने चाहिए और उन्हें अलग-अलग समय में दिखाया जाना चाहिए। जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापन दिन में भी दिखाए जा सकते हैं और अग्रेसिव यानी उत्तेजक विज्ञापनों के लिए रात दस बजे के बाद का समय निर्धारित किया जा सकता है।
भारत में दूसरी कई गंभीर समस्याओं के बीच ढोंग और पाखंड भी एक बहुत बड़ी समस्या है। हम अंदर से कुछ हैं, जबकि दुनिया को दिखाते कुछ और हैं। जो देश पोर्न देखने वालों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में तीसरे नंबर पर हो, उसी देश में सेक्स पर बात करना वर्जित है। जिस देश की जनसंख्या डेढ़ सौ करोड़ के आंकड़े की ओर तेजी से बढ़ रही है, वहीं अगर आप कंडोम खरीदते पाए जाते हैं, तो आपको घूर कर देखा जाता है।
एक ओर यहां न जाने कितनी देवियों की पूजा होती है और दूसरी ओर लड़कियों को भ्रूण से बाहर नहीं निकलने दिया जाता। इसलिए कोई हैरानी नहीं कि ऐसे देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को दिन में कंडोम के विज्ञापन दिखाया जाना रास न आ रहा हो। ऐसे मंत्रालय को कोई जाकर बताए कि लैंसेट ग्लोबल हेल्थ के लिए जो सर्वे किया गया था, उसमें यह पाया गया कि आधे लोगों को कंडोम के इस्तेमाल का तरीका ही नहीं पता था।
इस लिहाज से तो उन्हें और बेहतर ढंग से सिखाने की जरूरत है। हाल यह है कि भारत में साल भर में जितने गर्भ ठहरते हैं, उनमें से आधे मामलों में ऐसा पति-पत्नी की योजना के खिलाफ होता है। यानी अनचाहे हो जाता है क्योंकि वे यह मानकर चलते हैं कि अब अगर हो ही गया है तो गर्भपात क्या करवाना। ईश्वर की मर्जी ऐसी ही रही होगी। अब कैसे भी पाल लेंगे बच्चे को। इस तरह बिना मानसिक और दूसरी तैयारियों के बीच जो बच्चे पैदा होते हैं, उन्हें भी बाद में तकलीफों से गुजरना पड़ता है।
जरूरत इस बात की है कि हम कंडोम के इस्तेमाल और सेक्स संबंधी दूसरी अहम बातों को थोड़े संभ्रांत तरीके से सही, पर बच्चों तक जरूर पहुंचाएं। कंडोम के ऐड दिखाना बंद करके सिर्फ हम युद्ध के मैदान में मच्छरदानी के भीतर घुसने का काम कर रहे हैं, यह सोचते हुए कि जब इसमें मच्छर नहीं घुस सकता, तो गोली कैसे घुसेगी।
लेखक टाईम्स ग्रुप में सीनियर सब एडिटर के पद पर कार्यरत हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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