अवधेश बजाज।
‘इम्तियाज नहीं तेरे सितम, मेरी जब्त में। तू हम पे, हम तुझ पे मुस्कुराये जाते हैं।’
प्रधानमंत्री को समर्पित विचारों का आरम्भ किसी शेर से होना अजीब लग सकता है। फिर मामला नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री का हो तो अजीब का विस्तार नागवारी तक होना संभव है। किंतु हम बेझिझक ऐसी इब्तिदा कर रहे हैं।
ताकि सिरे से स्पष्ट हो जाए कि मिजाज शायरी का है। उस नातिया मुशायरे वाला नहीं, जो मोदी के दीवाने-खास में चंद मीडियाकर्मी और मीडिया हाउस संचालित करते आ रहे हैं।
आधा दर्जन साल के कार्यकाल की आपकी अहम उपलब्धि ऐसे चारण और भाट के तौर पर भी दर्ज हो चुकी है। हमारी कलम में। कलम की कद्र करने वालों के जेहन में। आप के इन दरबारियों को देखकर मैं सहज व सटीक अनुमान लगा सकता हूं कि मलिक अयाज कैसा दिखता रहा होगा। उसने लिखा था,
‘एक ही सफ में खड़े हो गये महमूद-ओ-अयाज। ना कोई बंदा रहा, ना कोई बंदा-नवाज।
महमूद यानी गजनी से आया आक्रांता। जिसकी शान में अयाज ने यह कसीदा पढ़ा था। आपके बगलगीर मीडियाकर्मीनुमा दरबारियों में मुझे अयाज और आप में महमूद की छवि साफ नजर आती है। गजनी, जिसने सोमनाथ मंदिर पर लगातार हमले किए।
सोमनाथ यानी वह जगह, जो गुजरात में है। गुजरात यानी वह राज्य, जो आपकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चरम की आरम्भिक सीढ़ी बना था। सीढ़ी मंदिर ले जाती है और ले जाती है कोठेे तक भी। मामला अपने-अपने चयन का है।
हम तो मंदिर की सीढ़ी के मुरीद हैं। दूसरी सीढ़ी आपकी उन रक्कासाओं को मुबारक, जिनकी कलम से कभी सच उगलने वाली स्याही अब बीते छह साल में सूखकर किसी भी काम की नही रह गयी है।
गजनी ने सोमनाथ का वैभव उजाड़ा था और आप पत्रकारिता के सोमनाथ जैसे स्वरूप को श्रृंगार-विहीन करने पर उतारू हैं। कुल जमा मामला यह कि जो आपकी रक्कासा बना, उसके पैर में अब हीरे-जवाहरात जड़ी पायजेब है। जो स्वभावगत पुरुषार्थ के चलते ऐसा नहीं कर सका, उसके पैर में बेडिय़ां डाल दी गयी हैं। करीब-करीब 25 हजार छोटे और मंझौले अखबार आपके मंसूबों के मुताबिक बंद हो गये।
डीएवीपी में संशोधन के नाम पर आपकी नादिरशाही के चलते यह हुआ। क्या कसूर था उनका? यह कि उनका कद इतना छोटा था, कि उसमें आपकी और महत्वाकांक्षाओं के लिए सुराख लायक जगह भी नहीं बन पा रही थी! कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचल दिया गया उन्हें। बेवजह।
क्या छप्पन इंच का सीना इतना बड़ा है कि आपकी निगाह उससे नीचे नहीं जा पाती! यह नहीं देख पाती कि किस तरह आपके पैरों तले पचास लाख लोगों के रोजगार की रंगोली तहस-नहस कर दी गयी। नोटबंदी के नाम पर।
बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ वर्किंग इन इंडिया (एसडब्ल्यूआई) रिपोर्ट 2019 में यह जहरीला आंकड़ा बताया गया है। ये 25 हजार अखबार वाले और पचास लाख रोजगारशुदा लोग अपनी सोच की परछाई के स्तर से भी अंबानी या अडानी जैसी औकात तक नहीं पहुंच सकते थे। क्या इसीलिए इन्हें तबाही की ओर धकेल दिया गया!
आपके दूसरे कार्यकाल के पहले बजट ने और गजब किया। निर्मला सीतारमण ने कहने को तो पोटली खोली, किंतु वह उस पिटारे की तरह निकली, जिसके भीतर जहरीले सांप रखे जाते हैं। वह सांप, जिसकी एक फुंफकार ने कई बड़े अखबारों के मर जाने का बंदोबस्त कर दिया। अखबारी कागज पर 10 प्रतिशत कस्टम ड्यूटी क्या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव में दीमक भरने जैसा जतन नहीं है?
क्योंकि इसके जरिये आपने अखबार मालिकों के लिए छंटनी अभियान का रास्ता साफ कर दिया है। फिर मारे जाएंगे छोटे-मोटे खबरनवीस। मेज पर काम करने वाले।
यह सैडिस्ट जैसा आचरण किसलिए! क्या यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि हिटलर होने के लिए छोटी मूंछ होना जरूरी नहीं है! यह काम सफेदी से चमचमाती दाढ़ी-मूंछें रखकर भी किया जा सकता है!
या आप यह सिद्ध करने के प्रयास में हैं कि आपातकाल की विधिवत घोषणा करना पुराना चलन हो चुका है! लेटेस्ट ट्रेंड यह है कि इसे बगैर कहे नाना तरीकों से लागू कर दो। कहीं आपका जतन यह स्थापित करने का तो नहीं है
कि नीरो होने के लिए बांसुरी बजाना आवश्यक नहीं है! वह रोम के जलने से बेखबर होकर बांसुरी बजा रहा था। आप देश के रोम-रोम के जलने से आंख मूंदकर मन की बात सुनाने/लादने में मसरूफ हैं।
मीडिया को कुचलने की रौ में आप निर्दोष मानव वध के नाम पर सदोष मानव वध को अंजाम दिये जा रहे हैं। यह कलियुग की रामायण है। जिसमें सब कुछ उलट गया है। आप रावण हैं या नहीं, यह खुद ईमानदारी से आंक लीजिएगा। किंतु रवीश कुमार वह राम दिख रहे हैं, जिसकी नाभि में कोई अमृत छिपा हुआ है।
जिस तक आपके जहर बुझे तीर नहीं पहुंच पा रहे। वरना तो विनोद दुआ और पुण्य प्रसून बाजपेयी की तरह कुमार भी अब तक आपके रास्ते से हटा दिये गये होते। लेकिन पत्रकारों की पूरी कौम रवीश कुमार नहीं है।
वह आपसे भयाक्रांत है। अपने अस्तित्व की चिंता कर रही है। आपके काटे का कोई इलाज उसे नहीं मिल पा रहा। तो आप ही बताइए कि यह बची-खुची आबादी क्या करे?
हम भाजपा की सदस्यता ले लें? मॉब लिंचिंग गिरोह का संचालन करने लगें? वंदेमातरम गैग की अगुआई कर लें या जय श्रीराम वाले तालिबान के भारतीय संस्करण वाले दस्ते का नेतृत्व करने लगें? हालांकि सवाल पूछना बेमानी है। आपको जवाब देना पसंद नहीं है।
आपकी रुचि हिसाब चुकता करने वाली है। आपकी फितरत सवाल को लाश में तब्दील कर देने की है। इसके आगे हम असहाय है। हां, हम कमजोर नहीं हैं। पैर में पड़ी बेड़ियों के बावजूद घिसट-घिसटकर मंजिल की ओर जाना हमें आता है।
जुबां पर लगाए जा रहे तालों के बाद भी हमें घुटी-सी आह में भी चीखने की ताब पैदा करने का हुनर मालूम है। कलम की स्याही छिन जाने के उपरांत भी हम उसमें अपना लहू भरकर क्रांति का संदेश लिख देने की क्षमता से च्युत नहीं हुए हैं। इन्हीं जज्बात और जुनून के साथ इसी खून से उपसंहार करते हुए लिख रहा हूं,
‘तरदामनी पे हमारी न शेख जाइयो। दामन निचोड़ दें, तो फरिश्ते वजू करें।’
-लेखक बिच्छू डॉट कॉम के संस्थापक संपादक हैं।
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