राकेश दुबे।
स्वयंभू बाबा आसाराम को सुनाई गई सजा ने देश में चल रहे ‘बाबा-विवाद’ को और हवा दी है। अब तो इन स्वयंभू बाबाओं पर खुलकर बातचीत और इनके कारनामों [अपराधों] पर नियंत्रण के लिए क़ानून की ज़रूरत है।
आसाराम दो आजीवन कारावास की सजा हुई है। समाज को आज अपने ग्रंथों को पुनरावलोकन करने और उसमें वर्णित संतों के लक्षणों पर विचार करना चाहिए।
संत को उसके स्वभाव, उसके लक्षण ,द्वारा पहचानना पड़ता है। क्योंकि संत कभी अपने आप को स्वता प्रकट नहीं करते ।
वे अपने आप को छिपाने का ही प्रयास करते हैं। अतः हमें अपने गुणों के द्वारा ही अपनी बुद्धि कौशल से उन्हें पहचानना पड़ता है।
संत ,ज्ञानी ,भक्त भगवान की कृपा की मूर्ति होता है ,भगवान का स्वरूप होता है और दुखों की स्तिथि को भी प्रसन्नता पूर्वक ही लेता है, और प्रसन्न रहता है संत के मन में कभी भी पाप वासना नहीं रहती।
वह सत्य पर अडिग रहता है। संत समदर्शी होता है, और सब का भला सोचने और करने वाला होता है। उसकी बुद्धि कभी भी कामनाओं के चक्कर में नहीं फंसती और वह सदैव प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति होता है।
संत स्वभाव का ही नाम होता है ।संत संयमी मधुर स्वभाव वाले ,और पवित्र होते हैं ।संत सदैव संग्रह और परिग्रह से बचने की कोशिश करते हैं ।
वे किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करते।वे सरल भोजन करके, शांत रहते हैं। उनकी बुद्धि काम, क्रोध लोभ, मोह से से हटकर होती है।
भगवत कृपा से जब संत जीवन में आते हैं तब स्वत ही सत्संग में रुचि बढ़ जाती है, सत्कार्य होने लगता है सत चिंतन बढ़ जाता है, और हमारे जीवन की चमक बढ़ने लगती है।
संत सिर्फ अदृश्य शक्तियों को ही मानने वाले होते हैं वह अन्य किसी पर विश्वास नहीं करते वे अनुभव से सिर्फ और सिर्फ उस परम सत्ता पर ही विश्वास करते हैं और उनके परम भक्त होते हैं।
संतो को कथा सुनने में और ध्यान करने में काफी रुचि रहती है। वे सदैव प्रभु का ही ध्यान करते हैं ,उनके दिव्य जन्म और कर्म की चर्चा करते हैं। उनके पर्व जैसे रामनवमी और जन्माष्टमी को बहुत धूमधाम से संगीत , केसाथ नाच कर गाजे बाजे के साथ उनके मंदिरों में इन उत्सव को धूमधाम से आयोजन करते हैं।
उनकी प्रसन्नता लिए वार्षिक त्योहारों के दिन संत जुलूस निकालते हैं, और विविध उपहारों के द्वारा अदृश्य शक्तियों की पूजा करते हैं ,मंदिरों में मूर्तियों की स्थापना में भी उनकी श्रद्धा होती है और वे उनके व्रतों का भी पालन करते हैं।
संत अदृश्य शक्तियों की सेवा के लिए पुष्प वाटिका, बगीचे ,खेलने के स्थान ,और मंदिर का निर्माण कराते हैं, जिसका लाभ जनमानस को मिलता है। वहीं मंदिरों की झाड़ू और आदि करने में भी वे हिचकीचाहत नहीं करते ,और कुछ करते भी हैं तो उसका वे प्रचार नहीं करते।
संत ,सूर्य ,अग्नि ,रामायण, वैष्णव ,आकाश, जल, पृथ्वी, आत्मा, और समस्त प्राणियों को उनकी पूजा का स्थान मानते हैं उनका ही रूप मानते हैं।ऋग्वेद ,यजुर्वेद, सामवेद, के मंत्रों के द्वारा सूर्य में पूजा में बहुत विश्वास रखते हैं।
संत सभी प्राणियों में आत्मा के रूप में उन परम शक्तियों का ही दर्शन करते हैं और उनका सम्मान करते हैं।संत ,सत्संग ,और भक्ति योग के महत्व को जानते हैं और वह यह बात भी जानते हैं कि संसार से पार होने के लिए इसके अलावा कोई उपाय नहीं है ।वे यह जानते हैं भगवान के नाम का जप और सत्संग ही इस संसार से कल्याण करा सकता है।
संत पुरुष को कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती ,उनका चित् सदेव उन अदृश्य शक्तियों में या ब्रह्म, में लगा रहता है ,और उन्हें उनका उन पर ही पूरा भरोसा होता है विश्वास होता है।
जिस विषय से आज संतों पर इतना विश्लेषण किया क्या आसाराम और जेल में निरुद्ध तथाकथित बाबा इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं?
प्रश्न महत्वपूर्ण ही नहीं विश्व में भारत की पहचान है। समाज को तय करना चाहिए वे देश की कैसी पहचान बनाना चाहते हैं।
संविधान से चलने वाली और संविधान से डरने वाली सरकार से इस विषयक स्पष्ट नीति की दरकार है।
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