श्रीकांत सक्सेना।
शासक का सुशिक्षित होना आवश्यक नहीं है। मानव की युगयात्रा में वही शासक अधिक सफल रहे हैं जो प्रायः अशिक्षित थे।
शासन दृष्टाओं और मनस्वियों की भूमि नहीं है। भारत में दो शासकों को ‘महान’ कहा जाता है।
अशोक और अकबर,दोनों ही लगभग निरक्षर थे।
दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसे ही उदाहरण मिलते हैं। शासकों का, कवियों या दार्शनिकों के समान संवेदनशील होना आवश्यक नहीं है।
सम्प्रभुता को अक्षुण्ण रखने,राज्य विस्तार करने,पड़ोसी राज्यों को शक्तिहीन बनाने,अपने राज्य में चल रहे निरंतर षड्यंत्रों और भीतरघात से निपटने के लिए,राज्य में स्थान-स्थान पर हो रहे विद्रोहों के दमन को लिए शासक कभी शांति से सो तक नहीं पाता।
सैकड़ों सुरक्षा कर्मियों के बीच शासक हमेशा असुरक्षित रहता है, सदैव असुरक्षा में जीने वाला भयभीत व्यक्ति न अच्छा पति हो सकता है ,न अच्छा पिता,न अच्छा प्रेमी,न अच्छा नागरिक।
संयोग नहीं कि अतीत में अधिकांश ‘महान’ शासक नपुसंक हुए हैं।
यद्यपि उनके हरम और अस्तबल असंख्य सुंदर युवतियों और श्रेष्ठ अश्वों से भरे रहे हैं।यदि निजी कार्यों में उनके सेवकों का 'योगदान' न रहता तो अनेक शासकों की वंशबेल ही आगे न बढ़ पाती।
शासक के स्कूल सर्टीफिकेट्स पर बहस करना भी फ़िज़ूल है।
बड़ी बात यह है कि एकछत्र शासक होते हुए भी विनम्रतावश शासक स्वयं को चायवाला और चौकीदार या कभी कभी प्रधानसेवक कह सकता है।
अधिकांश भारतीयों को चाय और सुरक्षा दोनों ही चाहिए।शासक की या उसके सहयोगियों की डिग्रियों का भी लोककल्याण से कोई सहसंबंध नहीं है।
प्रतिपक्ष के जो दावेदार हैं उनमें भी ज़्यादातर ऐंवई डिग्री होल्डर हैं।यूपी के एक दावेदार आस्ट्रेलिया से ले आए वैसे आजकल तो भारत में ही डिग्रियां थोक के भाव खरीदी जा सकती हैं, फिर भी इंपोर्टेड डिग्री की बात ही कुछ और है।
(वैसे योगी आदित्यनाथ की बी.एससी की डिग्री निश्चित मेहनत की है क्योंकि उस समय वे न संन्यासी थे न राजनेता और साधारण लोगों को बी.एससी की डिग्री बिना पढ़े नहीं मिलती) अब खुले बाज़ार की नीतियों के परिणामस्वरूप हर चीज़ बिकाऊ है और जेब में पैसे हों तो कुछ भी खरीदा जा सकता है।
शांति, सामाजिक स्थिरता और जीवन को यथावत चलाए रखने के लिए सिर्फ़ आम के गूदे पर ध्यान देना ज़रूरी है, गुठलियाँ नज़रअंदाज़ की जा सकती हैं।
लोकतंत्र इस धारणा पर आधारित व्यवस्था है कि लोगों में अपने लिए बेहतर नेतृत्व चुनने और बेहतर व्यवस्थाओं के निर्माण का विवेक और क्षमता है।
ये तर्ज़े हुकूमत हिंदुस्तान के मौसम में सूख जाती है, इसके लिए हर नागरिक की सतत निगरानी और दख़ल अनिवार्य है।
जिसके लिए धर्मनिष्ठ भारतीयों पर समय ही कहां है ?
अपने-अपने गिरेबाँ में झाँककर देख सकते हैं अपने आस-पड़ोस पर नज़र डाल सकते हैं कि जब लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त किया जा रहा था,और आपका पड़ोसी अपमानित हो रहा था तो उत्पीड़ित और शोषित व्यक्ति के पक्ष मे कितने लोग संघर्ष करने सड़क पर निकले।
आपकी चेतना का स्तर आपके अनुरूप समाज और शासन का निर्माण करेगा।
फ़िलहाल सम्पूर्ण वैयक्तिक स्वतंत्रता,मानवाधिकार और लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमज़ोरी का झंडा उठाने वालों में वह दलाल वर्ग अधिक सक्रिय नज़र आता है जो इन नारों की आड़ में अपनी लूट की निरंतरता की गारंटी चाहता है।
जो भी हो निराशा का कोई कारण नहीं,आम हिंदुस्तानी की अस्तेय,अपरिग्रह और जाहि विधि राखे राम वाली जीवन दृष्टि कम से कम यथास्थिति को तो बनाए रखेगी।
गालब्रेथ भले ही इसे कामचलाऊ अराजकता कहता रहे हम जानते हैं हमारा देश स्वर्ग है,हमारा आत्माभिमान स्वर्गिक,हमारे देश को स्वयं परमपिता परमेश्वर चला रहा है।
कभी सीधे-सीधे तो कभी अपने दलालों के ज़रिए।
हमें तो सिर्फ़ समर्पण भाव रखते हुए सुबह-शाम दोहराते रहना है-जाहि विधि राखे राम,ताहि विधि रहिए। शुभमस्तु।
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