पंकज शुक्ला।
इन बच्चों के चेहरे पर जितनी मासूमियत है, उतने ही क्रूर तरीके से इन बच्चों की हत्या की गई है। दो मासूमों को पहले मारा और फिर जंजीर से बांधकर नदी में फेंक दिया। इतने ही क्रूर तरीके से मौत देने के पहले इनके साथ क्या कुछ न किया गया होगा, अपहरणकर्ता किस बेरहमी से पेश आए होंगे, यह समझा जा सकता है।
दो मासूमों की हत्या के पीछे कोई एक व्यक्ति या तंत्र नहीं बल्कि हम सब गुनहगार है। गुनहगार हैं कि ‘गैंग’ के हौंसले इतने बड़े कि वे स्कूल बस रोक कर बच्चों को अगुआ किया और पुलिस को छकाते हुए उनकी हत्या कर दी।
यह मप्र और उप्र की पुलिस, दो प्रदेश की सरकारों की लापरवाही का मामला ही नहीं बल्कि हम सब से जुड़ा मसला है कि पुलिस का खौफ किस कदर हवा हो गया है।
यह अपराधियों के मनोबल के बुलंद होने और उन पर नियंत्रण के इरादों के छोटा पड़ जाने का गुनाह है। यह राजनीतिक नियुक्तियों, पैसे देर कर पद पाने की जुगाड़ और मनचाहों को रेवडि़यां बांटने की व्यवस्था का परिणाम है।
मप्र शांति का टापू कहा जाता है। पिछली भाजपा सरकार दावा करती थी कि उप्र से सटे चित्रकूट वाले इलाकों में डकैत समस्या खत्म कर दी गई है। फिर भी पिछले कुछ माह से उस क्षेत्र में अपहरण की कुछ घटनाएं सामने आईं।
किसी व्यक्ति को अकेला पा कर उसे उठा ले जाने और स्कूल परिसर से बस रोक कर बंदूक की नोंक पर जुडवां भाइयों का अपहरण करने एक दो लोगों के बूते की बात नहीं है। यह अपराध सामूहिक इरादे से ही संभव होता है। हमारी प्रणाली की चूक यह है कि हमने अपराधियों को गैंग में एकजुट होने दिया, उन्हें अपराध करने जितना हौंसला दिया और यह हौंसला बिना राजनीतिक प्रश्रय से संभव नहीं है।
एक ओर तो राजनीतिक ताकत पा कर अपराधी बेखौफ हो रहे हैं तो दूसरी तरफ पुलिसकर्मी सिस्टम से परेशान हो रहे हैं। मनचाही नियुक्तियों के लिए पैस देने वाला व्यक्ति ईमानदारी से काम करेगा या दी गई रिश्वत को वसूलने में जुटेगा?
यह एक मामले के बाद का स्यापा नहीं है बल्कि हर मामले के बाद यह बात रेखांकित हो रहा है कि पुलिस का मैदानी नेटवर्क कमजोर हो रहा है। उसका सूचना तंत्र खत्म हो रहा है।
राज्यों की सीमाओं में बंटा प्रशासन-पुलिस और हर दम चुनाव के मोड में रहने वाली सरकारें अधिकांश समय दलीय भावना से काम करती।
शायद यही हुआ कि दो बच्चों का अपहरण का मामला भी उप्र और मप्र की भाजपा-कांग्रेस सरकारों और इस कारण पुलिस की कार्रवाई में लापरवाही का दंश ले कर आया।
हम कोसने के आदी हैं तो सिस्टम को कोस कर कुछ पल में सामान्य हो जाएंगे। राजनीतिक नूरा कुश्ती जारी रहेगी। लेकिन हर प्रकरण की तरह ही इस प्रकरण से भी उठा यह सवाल बकाया रहेगा कि क्या हमारा सिस्टम ऐसा ही रहेगा?
क्या ऐसे अपराधियों का मनोबल टूट जाएगा? क्या नारों, धरना-प्रदर्शन, निंदा, कड़ी भर्त्सना जैसी औपचारिकता से ऐसे अन्य मामले रूक जाएंगे?
सब चलता है कि तरह क्या हमारे लिए ऐसी घटनाओं को होना भी चलता है?
क्या हमें अपने मासूमों की फिक्र होती है या हम अब भी लंबी चादर ओढ़े सो सकते हैं? यह सवाल राजनेताओं से भी है?
लेखक सुबह सवेरे में कार्यकारी संपादक हैं। आलेख उनके फेसबुक वॉल से
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