इंदौर प्रेस क्लब चुनाव:पैसे और रूतबे के खेल में पत्रकारों-पत्रकारिता का भला होगा कहना मुश्किल
मीडिया
Aug 06, 2016
मल्हार मीडिया।
मध्यप्रदेश की राजधानी भले ही भोपाल हो, पर धड़कन तो इंदौर ही है। अफसरों और नेताओं का दिल तो इंदौर में ही लगता है। यही स्थिति पत्रकारिता की भी है। देश की हिंदी पत्रकारिता की राजधानी तो कल भी इंदौर था और आज भी है। ऐसे में यहाँ के पत्रकारों भी अपना दम क्यों न दिखाएँ? जब पत्रकार दम दिखाते हैं तो ही अफसर और नेता दबते भी हैं। दबाव से सत्ता और नौकरशाही पर राज करने का एक संगठन है 'इंदौर प्रेस क्लब' जो इन दिनों अपने चुनाव को लेकर जमकर चर्चा में है। वैसे तो प्रेस क्लब पिछले करीब 6 महीने से खबरों में छाया हुआ है।
इस क्लब के अध्यक्ष तत्कालीन प्रवीण खारीवाल ने एक जमीन घोटालेबाज को पुलिस कार्रवाई से बचाने के लिए कथित रूप से 12 लाख रुपए लिए थे। ख़ास बात ये कि ये पैसे पुलिस अधिकारियों के नाम से लिया गया। बाद में पोल खुली तो पुलिस ने पैसे और पैसों से खरीदा गया घर का सामान तक जब्त कर लिया। खारीवाल जेल भी हो आए और अब जमानत पर छूटकर उपाध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। फिर एक लंबा विवाद नकली पत्रकारों को प्रेस क्लब की सदस्यता से निकालने और फिर शामिल करने का चला। मामला हाई कोर्ट तक गया, पर करीब 350 सदस्यों की सदस्यता बरक़रार रही।
इस बार 7 अगस्त को होने वाला इंदौर प्रेस क्लब का चुनाव कई मामलों में ख़ास है। क्योंकि, इस बार कोई भी गंभीर और वास्तविक पत्रकार उम्मीदवार के रूप में मैदान में नजर नहीं आ रहा। एक तरफ 'दबंग दुनिया' के मालिक और गुटखा किंग किशोर वाधवानी अध्यक्ष पद के उम्मीदवार और पैनल के सर्वेसर्वा हैं। दूसरी तरफ प्रेस क्लब के पूर्व महासचिव अरविन्द तिवारी हैं। दोनों ही पैनलों के नाम 'सरस्वती समूह' हैं।
तीन महीने में तीन बार चुनाव की तारीख टलने से पैनलों में भी फेरबदल हो गया अमित सोनी जो पहले अध्यक्ष पद के उम्मीदवार अरविन्द तिवारी की पैनल में महासचिव पद के उम्मीदवार थे, वो पलटा खाकर किशोर वाधवानी की पैनल में आ गए। नवनीत शुक्ला जो पहले वाधवानी के साथ महासचिव पद का चुनाव लड़ रहे थे, वो बिदककर महासचिव पद के स्वतंत्र उम्मीदवार हो गए। इस तरह के कई फेरबदल इस बीच गए।
मुद्दे की बात तो ये है कि किशोर वाधवानी ने खुद की जीत के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। अनुमान है कि वाधवानी ने करीब 4 करोड़ रुपए खर्च कर दिए। पिछले 10-15 दिनों में इंदौर की बड़ी होटलों में 25 से ज्यादा पार्टियाँ आयोजित की गई। इन पार्टियों में 'सबकुछ' परोसा गया। एक-एक वोट का इतना ध्यान रखा गया कि मुस्लिम पत्रकारों, महिला पत्रकारों, खाने-पीने वाले पत्रकारों, दाल-बाफले के शौकीनों तक के लिए अलग-अलग पार्टियाँ की गईं। इसके अलावा गिफ्ट और पैसे तक बांटे गए। ऐसा पहली बार हुआ कि प्रेस क्लब चुनावों के उम्मीदवारों के शहर में होर्डिंग लगे हों। इस बार वो भी हुआ। राजनीतिक चुनाव की तरह इस बार ज्योतिरादित्य सिंधिया, आश्विन जोशी से लगाकर कई बड़े नेताओं ने भी फोन लगाकर अपने लोगों के लिए समर्थन माँगा है।
जबकि, खर्च के मामले में सामने वाली (अरविंद तिवारी) की पैनल कमजोर निकली। लेकिन, पाक साफ़ दामन तिवारी का भी नहीं है। प्रेस क्लब के नाम पर अफसरों से वसूली। प्रेस क्लब भवन का दुरूपयोग। भाई को प्रेस क्लब के एक बड़े हिस्से के निर्माण का काम देकर अफरातफरी करने जैसे कई छींटे तिवारी के दामन पर लगे हैं और यही कारस्तानियां अब उन पर भारी पड़ रही है।
उधर किशोर वाधवानी के दामन पर भी कई छींटे हैं। प्रसिद्द माणिकचंद गुटके के मालिक को धोखा देकर डुप्लीकेट माणिकचंद बिकवाना। जिसमें उनके खिलाफ मुकदमा भी कायम हुआ और कार्रवाई हुई। वाधवानी पर सेंट्रल एक्साइज का करीब 300 करोड़ रुपए बकाया है और मामला चल रहा है। कहा जाता है कि इससे बचने के लिए ही 'दबंग दुनिया' अखबार निकाला है। 'दबंग दुनिया' की आड़ में ही नेताओं और अधिकारियों पर दबाव बनाया जाता है।
प्रेस क्लब में घुसपैठ के पीछे भी असल मकसद अपनी दुकान चलाना ही है। इसका मकसद प्रेस क्लब की व्यवस्था सुधारने और पत्रकारों का भला करना नहीं है। 'दबंग दुनिया' को भी किशोर वाधवानी गुटखे की फैक्ट्री की तरह चला रहे हैं। प्रेस कानूनों और श्रम कानूनों का बिल्कुल भी पालन नहीं हो रहा। किसी भी स्टॉफ को, यहाँ तक कि संपादक को भी नियुक्ति पत्र नहीं दिया जाता। वेतन, भत्ते, छुट्टी, ग्रेच्यूटी का तो कोई प्रावधान ही नहीं है।
किसी भी स्टॉफ को कभी भी निकल देना, वेतन रोक लेना सामान्य बात है। एक स्टाफर के पिता का निधन होने पर उसे दफ्तर आने के लिए मजबूर किया गया। इकलौता बेटा होने के कारण नहीं आया तो उसे निकाल दिया। एक संपादकीय साथी की पत्नी की करंट लगने से मृत्यु हो गई तो उसे भी दफ्तर आने को कहा गया। अभी तक किसी भी स्टाफर के यहाँ गमी होने पर किशोर वाधवानी उसके घर नहीं गये। इसी पैनल के अमित सोनी और उसके पिता जीतू सोनी जो 'संझा लोकस्वामी' निकालते हैं। इनके कारनामों से पूरा शहर परिचित है।
ऐसे में कोई भी चुनाव जीते, दावा नहीं किया जा सकता कि वो प्रेस क्लब का भला करेगा ही। सबसे पहले तो वो अपनी दुकान सजाएगा। जहाँ तक हार-जीत का सवाल है तो इस बार कोई भी एक पैनल अपना दबदबा नहीं बना सकेगी, ये तो तय है। उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि ही उन्हें जिताएगी। किशोर वाधवानी ने जिस तरह से पैसा खर्च किया और पत्रकारों को सपने दिखाए हैं,उससे उनका पलड़ा भारी है। जबकि, इसी पैनल के प्रवीण खारीवाल और अमित सोनी फिसल सकते हैं। उधर स्वतंत्र उम्मीदवार होते हुए नवनीत शुक्ला जीत जाएँ, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
मल्हार मीडिया को मिले एक पत्र पर आधारित
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