डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
मैं, शाहिद मि़र्जा और अमितप्रकाश सिंह नईदुनिया के पहली खेप के ट्रेनी जर्नलिस्ट थे। बाबा यानी राहुल बारपुते नईदुनिया के प्रधान सम्पादक हुआ करते थे, रज्जू बाबू यानी राजेन्द्र माथुर सम्पादक थे। अभय छजलानी का नाम नईदुनिया में रोज नहीं छपता था। कायदे के अनुसार वे किसी पद पर नहीं थे, लेकिन काम सभी पदों का करते थे।
वे नईदुनिया के चीफ प्रूफ रीडर भी थे, चीफ फोटो एडिटर भी, चीफ रिपोर्टर भी और चीफ लेआउट आर्टिस्ट भी। इसके अलावा अखबार के प्रॉड्क्शन, डिस्पैच और डिस्ट्रीब्यूशन के शिखर पुरुष भी वे ही थे। वे तब नईदुनिया के परिसर में ही रहते थे, गोया वे 24 घंटों के मुलाजिम तो थे ही, रात-बिरात कभी संकट होता तो अभयजी को ही हम संकटमोचक मानते और तमाम समस्याओें का हल भी वे ही करते थे।
अभयजी का एक आग्रह हमारे गले की घंटी बना रहता था। वह यह कि खबरों की 100 प्रतिशत पुष्टि का आग्रह। खबरों के सभी तथ्य, आंकड़े, नाम आदि की पुष्टि और पुन:-पुन: पुष्टि के बाद ही वे खबरों को ओके करते थे। उनका यह आग्रह सभी पत्रकारों से आज भी रहता है कि जो सच नहीं, वह खबर नही! वह अफवाह या अनुमान है और उसके लिए हमारे पास कोई जगह नहीं है।
आज विरले ही ऐसे सम्पादक होंगे जो खबरों की सच्चाई के प्रति इतना आग्रह रखते होंगे।
भाषा की दृष्टि से किसी भी व्यक्ति के नाम से पहले ‘श्री’ और बाद में ‘जी’ दोनों ही लिखना भले ही गलत हो, ‘श्री अभय जी’ के लिए यह गलत नहीं था। वे अक्सर अपने से वरिष्ठों के आगे श्री और पीछे जी लगाना नहीं भूलते थे। वे कहते थे कि मेरे मन में भावनायें इतनी मजबूत है कि वे व्याकरण के नियम भी झुठलाने लगती है। शिष्टता और सहजता का यह गुण उनके लेखन में तो है ही, उनके व्यवहार में भी है। यहां तक कि अपने बेटे को भी नाम के बाद वे जी लगाकर ही सम्बोधित करते हैं। उनके मुंह से किसी के लिए तू शब्द शायद ही कभी निकला हो।
एक घटना है। मैं नईदुनिया में डाक एडिशन में डेस्क पर कार्यरत था, अभयजी ने मुझे बुलाया और कहा कि मैं आपको एक बहुत महत्वपूर्ण आदमी से मिलाने के लिए लेकर चल रहा हूं। उन्होंने मुझे अपने बजाज वेस्पा स्कूटर पर पीछे की सीट पर बैठने को कहा और स्वूâटर स्टार्ट करके रेसीडेंसी कोठी लेकर गए। वहां जाकर पता चला कि वे मेरा परिचय जिन सज्जन से करा रहे हैं, वे मध्यप्रदेश के चीफ सेक्रेटरी हैं। वहां उन्होंने मेरा परिचय कराया ‘‘मीट माय कुलीग प्रकाश हिन्दुस्तानी’’।
चीफ सेक्रेटरी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से मेरे जैसे नौसिखिया पत्रकार का परिचय सहकर्मी के रूप में कराना उनका शुद्ध बड़प्पन ही था, वर्ना स्टाफ, रिपोर्टर, असिस्टेंट जैसे शब्द भी तो हैं!
शाहिद मि़र्जा और मैं सुदामा नगर में एक रूम किराए पर लेकर रहते थे। बारिश के दिनों में हमारे कमरे में पानी भरने लगा, हम घबराए और अभयजी को अपनी समस्याएं बतलाईं। अभयजी ने हमें नईदुनिया परिसर में ही पहली मंजिल पर लाइब्रेरी के सामने गेस्ट रूम दे दिया। हम दोनों वहीं हफ्तों रहे। रोज सुबह अभयजी के घर चाय और नाश्ते के लिए जाते। अभिभावक के रूप में उन्होंने और उनकी धर्मपत्नी पुष्पा छजलानी ने हमारी लगभग हर जरूरत का ध्यान रखा।
दो दशकों बाद अभयजी के निर्देश पर मैंने वेब दुनिया में कंटेंट एडिटर के रूप में काम शुरू किया। वेब दुनिया के सर्च इंजन की लांच पार्टी मुंबई की मशहूर ताज होटल में रखी गई थी। प्रेस कांफ्रेंस भी वहीं थी। हम सुबह की फ्लाइट से मुंबई गए और कार्यक्रम के बाद फ्लाइट से ही वापस लौटे। वहां जाते या आते वक्त अभयजी कभी भी हमसे पहले गाड़ी में नहीं बैठे। जब हम गाड़ी में बैठ जाते, तभी वे अपनी गाड़ी की ओर रवाना होते। इतने सौजन्य की हम कभी भी किसी से अपेक्षा नहीं कर सकते।
हममें से कभी भी कोई बिल लेकर अभयजी के पास जाता तो उनकी खूबी होती कि वे बिल राशि देखे बिना उस पर दस्तखत करते। रिपोर्टिंग के दौरान जो बिल कभी भी बनाए, उनमें से एक पैसा भी कभी भी नहीं काटा गया। वे मानते थे कि उनका सहकर्मी कभी भी गलत बिल बना ही नहीं सकता। हम उनकी तुलना में बहुत ही जूनियर थे, कभी-कभी बहस भी कर लेते, वाद-विवाद भी होता। लोग कहते कि हम उनके मुंंहलगे हैं, वे दिल पर नहीं लेते। नईदुनिया में रहते हुए हम थॉमसन इंस्टीट्यूट और इलना, आईएनएस और प्रेस कॉउंसिल के बारे में कम ही समझ पाए थे, लेकिन इतना पता था कि यह बड़ी संस्थाएं हैं और अभयजी वास्तव में कितने बड़े व्यक्ति हैं, यह बात मुझे नईदुनिया छोड़ने के बाद मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में काम करते समय पता चली।
हमें बाद में पता चला कि हम उन्हें ‘अभयजी’ कहकर सम्बोधित करते थे, वह गलत था। वास्तव में वे हमारे बॉस थे, सर थे, लेकिन औरों के साथ वे हमारे लिए भी अभयजी ही रहे। आज भी सभी उन्हें अभयजी कहते हैं, लेकिन हम अभी इस लायक नहीं हुए हैं। उन्हें अभयजी कहकर अपना कद बढ़ाना चाहते थे। बस।
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