अभिषेक श्रीवास्तव।
सूखा पड़े या बाढ़, सियासत है कि खत्म नहीं होती। बुंदेलखंड में भुखमरी से हो रही मौतें क्या अपने आप में संवेदना पैदा करने लायक त्रासदी नहीं है कि उसमें अलग से देह व्यापार आदि का कोण जोड़ दिया जाए? बुंदेलखंड के गांवों और आदिवासियों को इस तरह से बदनाम कर के किसी को क्या हासिल होगा? कौन हैं वे लोग जो मजबूरन किए गए बाल विवाह को लड़की बेचे जाने के रूप में प्रचारित करते हैं और उसके आधार पर भ्रामक निष्कर्ष निकाल कर भुखमरी के सवाल को सनसनी की शक्ल दे देते हैं?
मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले टीकमगढ़ के मोहनपुरा गांव की एक गरीब आदिवासी विधवा है काशीबाई उर्फ कस्सू। उसके सात बच्चे हैं। दो बड़े लड़के शादीशुदा हैं। कस्सू ने तीसरी संतान भागवती की शादी 29 अप्रैल को सागर जिले के एक कुर्मी परिवार में धर्मदास (पिता जयराम) नामक लड़के से की। कस्सू के पास न खाने को पर्याप्त दाने हैं न बच्चों को पहनाने को कपड़े। गरीबी के इस आलम में उसकी बस एक ख्वाहिश थी कि किसी तरह उसकी लड़की ठीक तरह से ब्याह जाए। एक रिश्तेदारी के माध्यम से उसे बिरादरी से बाहर यह परिवार मिला, जो शादी का सारा खर्च उठाने को तैयार था।
शादी बेशक हुई, लेकिन चार दिन भी नहीं टिकी। कस्सू के भाई गणेश को बुरा लग गया कि मामा के रहते हुए लड़की की मां ने बिरादरी से बाहर लड़की ब्याह दी। नशाखोर गणेश के असंतोष को गांव के कुछ लोगों ने अपने निजी हित में हवा दी। पहले खबर उड़ाई गई कि काशीबाई ने पैसे लेकर लड़की को बेच दिया है। फिर इसमें यादव बिरादरी से आने वाली सरपंच का नाम भी जोड़ा गया कि उसने भी इस सौदे में पैसे खाए हैं।
पहली बार 2 मई, 2016 को यानी शादी के चौथे दिन सभी प्रमुख अखबारों और स्थानीय टीवी चैनलों में बड़े-बड़े हर्फों में खबर चलाई गई कि ''एक आदिवासी महिला ने एक लाख रुपये में अपनी लड़की बेच दी।'' खबर पर पुलिस-प्रशासन हरकत में आया। महिला सशक्तीकरण प्रकोष्ठ की टीम ने गांव का दौरा किया। आनन-फानन में टीम सागर भेजी गई।
लड़की को ससुराल से बरामद कर के वापस मायके लाया गया, लेकिन जांच में बेचे जाने की खबर झूठी निकली। कुल मिलाकर मामला बाल विवाह का निकला, जिसकी एफआइआर 3 मई की तारीख में थाना टीकमगढ़ देहात में दर्ज है।
विडंबना है कि घटना को दो हफ्ते होने को आ रहे हैं, लेकिन लड़की बेचे जाने की खबर चलाने वाले तमाम अखबारों और चैनलों ने माफी मांगना तो दूर, इस खबर का फॉलो-अप तक नहीं किया है। मोहनपुरा गांव टीकमगढ़ शहर से कुछ दूरी पर स्थित है, जहां पहुंचने के लिए काफी दूर तक कच्चे रास्ते पर चलना होता है। हम यहां पहुंचे तो आदिवासी बस्ती से काफी पहले ही हमें रोक लिया गया।
यह गांव का एक यादव परिवार था। पूछताछ में उन्हें अपनी मंशा बताने पर साठ साल के स्थानीय बुजुर्ग सियाराम यादव बोले, ''साहब, पहले ही गांव काफी बदनाम हो चुका है। कस्सू बहुत गरीब औरत है। उसके सात-सात छोटे बच्चे हैं। उसे बख्श दो। उसके साथ न्याय करिएगा।'' फिर एक आदिवासी महिला को उन्होंने हिदायत दी कि वह हमें कस्सू के घर तक ले जाए।
मोहनपुरा में बमुश्किल तीसेक परिवारों की इस आदिवासी बस्ती में केवल औरतें और बच्चे मौजूद थे। एकाध नौजवान भी दिखे। गरीबी मुंह बाए बिलकुल सामने दिख रही थी। न बच्चों के तन पर ढंग के कपड़े थे, न घरों में खास सामान। काशीबाई की बातचीत में आत्मविश्वास झलक रहा था। उसका साफ़ कहना था कि उसके पास खाने तक को नहीं है और किसी तरह उसने अपनी बेटी का रिश्ता जोड़ा, लेकिन लोगों ने शिकायत कर दी।
''किसने शिकायत की है आपकी'', इसके जवाब में वे कहती हैं, ''पता नहीं साहब, हम तो इतना पढ़े-लिखे हैं नहीं।'' वे अंत तक अपने भाई का या किसी और का नाम नहीं लेती हैं। काशीबाई बताती हैं कि 3 तारीख को उन्हें थाने पर तलब किया गया था और सवाल-जवाब किया गया। उसके बाद से पुलिस यहां नहीं आई है।
उस वक्त उनके दोनों बड़े लड़के मजदूरी करने गए हुए थे। यहां के अधिकतर पुरुष पास की एक खदान में पत्थर तोड़ने का काम करते हैं। खदान होने के कारण फेफड़े की बीमारियां यहां आम हैं। उनके पति की मौत पांचेक साल पहले इसी बीमारी से हुई है। औरतें लकड़ी काट कर शहर में बेचती हैं जिससे उनका ग़ुज़ारा चलता है वरना तीन किलो गेहूं और दो किलो चावल का सरकारी कोटा दसेक लोगों के परिवार का पेट भरने में सदा से नाकाम रहा है। यहां ज़मीन किसी के पास नहीं है। खेती कोई नहीं करता।
पति की मौत के बाद काशीबाई के पास कोई सहारा नहीं रहा। अपने दोनों बड़े बेटों की शादी में उन्होंने सरपंच से 14000 रुपये का उधार लिया था। थाना देहात के टीआइ मधुरेश पचौरी बताते हैं, ''काशीबाई मानती है कि उसने न तो कभी यह उधार लौटाया और न ही सरपंच ने कभी तगादा किया। इसी तथ्य का लाभ उठाकर कुछ लोगों ने बात उड़ा दी कि सरपंच के कर्ज के बोझ तले उसने अपनी लड़की को बेच दिया। यह बात सरासर गलत है।''
थाना टीकमगढ़ देहात में बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम की धारा 9, 10 और 11 के अंतर्गत काशीबाई, लड़की के पति धर्मदास, उसके पतिा जयराम, शादी कराने वाले पंडित और नाई के खिलाफ एफआइआर की गई है। इसमें लड़की की उम्र 15 साल डेढ़ महीना बताई गई है। पुलिस अधीक्षक निमिष अग्रवाल का साफ कहना है, ''मीडिया के कुछ लोगों ने इस घटना को उछाला। एक ने चलाया तो दूसरे भी चलाने लगे।''
टीआइ पचौरी कहते हैं, ''एक चैनल का कैमरामैन जब काशीबाई के घर के भीतर घुस कर क्लोज शॉट बनाने लगा, तो उसने आपत्ति की कि बाहर बदनामी हो जाएगी। काशीबाई ने उससे कहा कि जो चाहे सेवा ले लो, लेकिन घर की तस्वीर बाहर मत दिखाओ। इसका आशय चैनल वालों ने यह लगाया कि वह लेनदेन की बात कर रही है और उसने ज़रूर लड़की बेचकर पैसे खाए हैं।''
लड़की भागवती को मायके आए हफ्ता भर हो चुका है लेकिन अब तक किसी भी मीडिया ने उसका बयान दर्ज करने की ज़रूरत नहीं समझी। उसके काफी संकोच करने के बावजूद हमने उससे बात की। कैचन्यूज़ के पास भागवती का एक्सक्लूसिव और पहला बयान है।
लड़की खुश थी। उसने साफ कहा कि उसके पति अच्छे हैं, सास-ससुर अच्छे हैं और वह वहां वापस जाना चाहती है। उसके पैरों में नया बिछुआ और हाथों में कंगन थे, जिसके बारे में उसकी मां मानती है कि लडके वालों ने ही बनवाए क्योंकि उसके पास तो देने के लिए कुछ था ही नहीं।
पचौरी कहते हैं, ''ये लोग इतने गरीब हैं कि जेसीबी चलाने वाला पति मिलना इनके लिए सौभाग्य है। कम से कम दस हजार रुपये महीने वह कमाता होगा। लड़की खुश क्यों नहीं होगी। हर माता-पिता चाहता है कि अपने बच्चों की वह ठीक से शादी करे। बस, मामला बाल विवाह का निकल गया वरना पुलिस को इसमें पड़ने की जरूरत ही नहीं थी। हमने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के अनुसार उसकी मां को 3 तारीख की हिरासत के बाद नोटिस देकर छोड़ दिया है।''
इस घटना को जिस तरीके से टीकमगढ़ से लेकर भोपाल तक के अखबारों और चैनलों ने बिना पड़ताल किए उछाला, उसमें स्थानीय समुदायों के कुछ प्रच्छन्न हित भी काम कर रहे थे। गांव के बुजुर्ग सियाराम यादव कहते हैं, ''यह सब विरोधियों की चाल है।'' विरोधी मतलब? वे जवाब देते हैं, ''साहब, यहां लंबे समय से यादव ही सरपंच चुना जाता रहा है। पंडित हमेशा यादवों के खिलाफ कोई न कोई मामला बनाते रहते हैं। दो समुदायों की लड़ाई में बेचारा गरीब आदिवासी हमेशा मोहरा बन जाता है। इस बार औरत के शराबी भाई को आड़ बनाकर उन्होंने बदनामी की, वरना लड़की बेचने जैसी घटनाएं यहां न कभी हुई हैं और न होंगी। आदमी चाहे कितना ही गरीब हो, अपनी बेटी का सौदा नहीं कर सकता।''
अभिषेक श्रीवास्तव स्वतंत्र पत्रकार हैं। लंबे समय से देशभर में चल रही ज़मीन की लड़ाइयों पर करीबी निगाह रखे हुए हैं। दस साल तक कई मीडिया प्रतिष्ठानों में नौकरी करने के बाद बीते चार साल से संकटग्रस्तइलाकों से स्वतंत्र फील्डरिपोर्टिंग कर रहे हैं।
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