प्रकाश भटनागर।
इस वाकये पर कोई ताली पीट रहा है, तो कोई माथा पीट रहा है। स्टूडियो के भीतर से लेकर न्यूयॉर्क की सड़कों तक कैमरे के सामने स्वयं को दैदीप्यमान समझने वाला एक चेहरा कुछ क्लांत हो गया। कुछ नहीं, बल्कि काफी। स्नेहा की तरफ से यदि कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ तो कम से कम वह स्नेह भी नहीं दिखा, जिसकी अगले पक्ष को आदत (लत) हो चुकी है।
एक वरिष्ठ अफसर के कमरे को बिहार के किसी अस्पताल का वार्ड समझने लेने की गुस्ताखी भारी बेइज्जती का सबब बन गयी। उच्च स्तरीय सेवा को निम्नस्तरीय दिखास या छपास समझ लेने का दुस्साहस आपको अपमानित कर गया। उस पर तुर्रा यह कि आप वैश्विक स्तर के ओहदे वाली किसी शख्सियत को छू कर उससे लिबर्टी लेने जैसी हिमाकत करती दिख रही हैं।
यकीनन खुद आपका भी कद कम नहीं है। लेकिन वह कद उनके आगे ही ऊंचा है, जो कुछ पैसे या नाम की खातिर स्टूडियो में बैठकर आपकी बदतमीजी भरी बातचीत और अक्सर शालीनता की सीमा से परे जाते व्यवहार के बाद भी खीसें निपोरते हुए केवल यह चिंता करते हैं कि कहीं उनका नाम और दाम वाला यह जमा-जमाया सिलसिला आपके गलत को गलत कहने से खत्म न हो जाए।
एक बहुत बड़े और जिम्मेदार पद की गरिमा के आगे आपकी स्टूडियो के भीतर और कैमरे के सामने वाली छवि बहुत बौनी है। यदि इस तथ्य को आपने समझ लिया होता तो वह न होता, जो हो गया।
इस समय भले ही टीआरपी का झगड़ा नहीं है लेकिन आदत तो उसके ही कारण गलाकाट स्पर्द्धा की है। जिसके चलते मीडिया के लिए पूरी बेशर्मी के साथ कहीं भी 'ठसना' उसकी पेशागत मजबूरी हो चुकी है। हां, वाकई खबर के लिए ठसना हो तो पत्रकार की किसी भी बेशर्मी से फर्क नहीं पड़ता।
पर स्नेहा को जो खबर बनानी थी, वो उन्होंने बना दी। फिर भी यदि स्नेहा से वांछित स्नेह मिल जाता तो आप की टीआरपी में जबरदस्त उछाल आना तय था। क्योंकि वही लोग, जो अभी आपका उपहास कर रहे हैं, वे खुद भी स्नेहा के उस वीडियो पर लट्टू हुए जा रहे हैं, जिसने सोशल मीडिया पर धूम मचा रखी है।
वे स्नेहा के इंटरव्यू को देखने के लिए भी उतावले हो जाते। ऐसा नहीं हुआ। विधि का विधान देखिये। दूसरों के अपमान तथा छीछालेदर से आप टीआरपी हासिल करते हैं और आज आपकी फजीहत से उन मामूली यूट्यूबर्स या सोशल मीडिया के अन्य लोगों के लिए लाइक्स या शेयर का अंबार लग चुका है, जो कद से लेकर पद तक किसी भी तरह आपके पासंग नहीं हैं।
मीडिया में ऐसा ही होता है, जैसा आपने किया। और वैसा भी होता है, जैसा आपके साथ शालीन तरीके से हुआ और कभी कुछ आपके हमपेशाओं के साथ ही कांशीराम के बंगले पर लात-घूंसे तथा अपशब्दों के साथ हुआ था। ये उसी दौर की बात है।
मध्यप्रदेश से एक पत्रकार यकायक एक पार्टी से जुड़कर चुनाव में प्रत्याशी बन गए। वह चुनाव हार गए। जब भोपाल लौटे तो किसी ने चुहल के अंदाज में पूछा, 'हार कैसे गए?' जवाब आया, 'नेता हों या जनता, पत्रकारों को तो सभी लात मार रहे हैं।'
गनीमत यह कि उन पराजित वरिष्ठ पत्रकार की यह बात बहुत अधिक उदाहरणों के रूप में सच होती नहीं चली गयी। खैर इसी बात को मान लिया जाए कि नेता और जनता नियम से हमें कूट नहीं रहे हैं। बाकी, हमने तो अपने साथ के बुरे व्यवहार को इस हद तक पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।
हमें किसी की मौत को भी सनसनी से लेकर सदमे तक की आंच पर रखकर भुनाना है।
एक कलाकार की निर्जीव देह चिता के समीप रखी हुई है, और हम यह आग सुलगाने में जुटे हुए हैं कि मृतक की प्रेयसी की बॉडी लैंग्वेज से लेकर उसके आंसुओं तक से हम किस तरह दर्शक को बहला सकते हैं। एक बड़ा उद्योगपति अंतिम सांसें गिन रहा है। उसका पूरा परिवार दु:ख से बेहाल है।
लेकिन आपका महान रिपोर्टर और स्टूडियो में बैठा महानतम एंकर यह निंदनीय बुद्धि-विलास कर रहे हैं कि उस शख्स के स्वर्गवास के बाद उसके दोनों बेटों के बीच की केमिस्ट्री किस तरह की रह जाएगी।
कोई महान गायक गले के कैंसर के चलते अपनी आवाज खो बैठा है और आपके चैनल का नुमाइंदा उसके बगल में बैठकर उसके जख्मों को कुरेदने की शैली में 'देखिये इस बेचारे को' वाले अंदाज में 'पीटूसी' करने पर पिल पड़ता है।
यह सब धत्कर्म ही तो प्राय: पीटने और पिटने के मार्ग खोलते हैं। तो आप पीटिए। टीआरपी पाइये। प्रसिद्धि पाइए। क्योंकि आज के मीडिया में बदनाम होने पर भी नाम मिलने की ग्यारंटी रहती है। इसलिए हिमाकत के बदले जलालत को भी एन्जॉय कीजिये। लेकिन कृपया, ऐसी नौबत न आने दीजिये कि आप अकेले या आप जैसे चंद लोगों की 'हरकतों' से समाज को समूचे मीडिया पर हंसने का मौका मिल जाए।
Comments