प्रकाश् भटनागर।
कुदरती शहद की एक्सपायरी डेट नहीं होती। मध्यप्रदेश की मधुमक्खियों वाला शहद भी 'प्रकृति' की देन ही है। इसलिए उससे जुड़े किसी भी घटनाक्रम को कालबाधित नहीं माना जा सकता। इस शहद की मिठास से खिंचने के बाद उसमें चिपककर फड़फड़ाने वाले कई दिग्गजों के हाल तो बयान हो ही रहे हैं। लेकिन
वह कई कलाकार अब भी सार्वजनिक रूप से नंगे नहीं किये जा सके हैं, जो इस न्यूडिटी के जन्मदाता, पालक तथा पोषक हैं। बात उन लोगों की हो रही है, जिन्होंने यह सारा जाल बुना और जो मीडिया जगत से संबद्ध हैं। सभी की प्रगति यात्रा हमेशा से रहस्य का विषय रही है।
मसलन, अखबार के हाकर भी अगर आज धडल्ले से किसी न्यूज चैनल के सर्वेसर्वा हैं और लिखना पढ़ना न जानते हुए भी जो कथित सरस्वती पुत्र प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकारों में जगह बनाने में कामयाब ही नहीं हुए बल्कि चैनल मालिक कहे जाने लगे हो तो आज लोकतंत्र के इस मजबूत स्तंभ पर संदेह का वातावरण पैदा हो रहा है तो अचरज कैसा?
एक दौर में अपने वरिष्ठों के लिए भोजन के डिब्बों का इंतजाम करने वाले एक अन्य वर्तमान के सीनियर पत्रकार भी इस कांड की मजबूत कड़ी के मुख्य पात्र के तौर पर उभरकर सामने आये हैं। बता दें कि फिलहाल इन चेहरों पर पंचक की छाया साफ देखी जा सकती है। क्योंकि पुलिस के एक आला अफसर ऐसे कुछ लोगों से शुरूआती पूछताछ कर चुके हैं।
पूरी उम्मीद है कि यह सिलसिला एक बार फिर शुरू हो जाएगा। यही वजह है कि कुछ वरिष्ठ पत्रकार अपने इन हमपेशाओं को बचाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका तक में सामने आ गये हैं। जाहिर है कि मामला सहयोग का नहीं, बल्कि खुद की किसी कमजोर रग का ही है। कैलाश विजयवर्गीय अगर कह रहे हैं कि कुछ पत्रकार इस कांड में शामिल हैं और कुछ मध्यस्थता कराने की कोशिश कर रहे हैं तो विजयवर्गीय के रसूख को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि वे कोई गलत बात कर रहे हैं।
अब अगले चरण की बात करें। इस सारे ताने-बाने की शुरूआत की तरफ जाएं। राज्य का सबसे बड़ा सैक्स स्कैंडल खुलने की शुरूआत वल्लभ भवन से हुई। बात जरा पुरानी है। उसका कालखंड जानना है तो वह तारीख निकाल लाइए, जब यह आदेश दिया गया था कि शाम साढ़े पांच बजे के बाद मंत्रालय में किसी भी पत्रकार को प्रवेश करने नहीं दिया जाएगा।
दरअसल, ऐसा उन अफसरों की सहूलियत की खातिर किया गया, जो दिन भर काम निपटाने के बाद वल्लभ भवन के अपने कक्ष में ही 'थकान उतारने' लगे थे। इन्हीं दिनों कुछ ऐसा हुआ कि एक अफसर का थकान उतारने का वीडियो वायरल हो गया।
मामला भारतीय प्रशासनिक सेवा वाले बड़े बाबुओं का था। लिहाजा इस बिरादरी के सबसे बड़े चेहरे ने इस अफसर को जमकर लताड़ लगायी। लेकिन मातहत भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था। उसने अपने आला अफसर को बता दिया कि वह दोनों एक ही हमाम में कपड़ो से वीतराग के लिहाज से एक जैसे ही हैं।
अब बातचीत आगे बढ़ी तो समझ आ गया कि हनी का ट्रैप वल्लभ भवन के कई कमरों में करामात दिखा चुका है। यह भी सामने आ गया कि मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों और दर्जनों विधायक भी इस मधुमक्खी के डंक का दंश झेल रहे हैं। इस तरह जब यह साफ हो गया कि बड़ी संख्या में 'अपने वाले' ही 'बेचारों' की श्रेणी में आ चुके हैं तो फिर इस डंक का इलाज ढूंढने की कवायद शुरू की गयी। पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लेकर आमने-सामने आए प्रशासनिक और पुलिस सेवा के दिग्गजों को इस मामले ने एक कर दिया। फंसे हुए में दोनों की बिरादरी के लोग जो थे।
इसके बाद हुआ यह कि जो शिकार हो चुके थे, उन्होंने अपने शिकारियों की जो जानकारी दी, उसके बाद करीब दो महीने तक तमाम नेताओं, अफसरों और ब्लैकमेलिंग के संदिग्धों के फोन कॉल रिकॉर्ड किये गये। इसमें एटीएस की मदद ली गयी। जल्दी ही समझ आ गया कि तमाम दिग्गजों में इंदौर में हरभजन सिंह सबसे कमजोर कड़ी हैं।
आला अफसर ने इंदौर का रुख किया। मामला उस सिंह का था, जो इस आला अफसर के वहां कलेक्टर रहते हुए उनके खासे मुंह लगे थे। तीन दिन में आला अफसर ने सिंह को उसकी सुरक्षा का गणित दिया। मामला जेहादी हमले जैसा जुनून भरने वाला था। तरकीब कामयाब रही। अफसर भोपाल लौटे और उसी शाम सिंह ने इंदौर में खुद को ब्लैकमेल किए जाने की एफआईआर दर्ज करवा दी। भले ही जाल बुनकर आरती दयाल और मोनिका यादव को इंदौर में पकड़ा गया लेकिन बाकी शिकारी भी साथ में ही उठा लिए गए। हां, एक संदेह और व्यक्त कर दें। ऐसा होने से पहले उन तमाम अफसरान और नेताओं की अश्लील क्लिपिंग्स और वीडियो नष्ट किए जाने का संदेह हैं, जिन्हें बचाया जाना है। यानी अब जो होता दिख रहा है, वह यह कि मामले में पत्रकारों के पंचामृत सहित उन विषकन्याओं की मुसीबत बढ़ सकती है, जिन्होंने मिल-जुलकर इस कांड को कड़ी दर कड़ी अंजाम दिया और करोड़ों के वारे-न्यारे कर लिए। क्योंकि सारे के सारे हमाम वाले अपना-अपना चेहरा बचाने तथा ब्लैकमेलिंग की अपनी-अपनी खुन्नस निकालने के लिए इनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं। मामले बेहद प्रभावशाली लोगों के है, इसलिए यह लामबंदी कामयाब होने के पूरे आसार हैं। इस मामले में एसआईटी के गठन में जिस तरह की दुविधा सरकार ने दिखाई, वो भी कई संदेहों को जन्म दे रही है।
बहुत मजे की बात यह कि सत्तारूढ़ दल के एक ऐसे वरिष्ठ नेता इस मामले में मुखर हो उठे हैं, जो खुद भी इस तरह के हनीट्रैप के जीवन भर के लिए शिकार बने। बाकियों की बोलती बंद है। मौन में बहुत ताकत होती है।
यह ताकत फिलहाल उस गैंग को उलझाने के लिए खर्च की जा रही है, जिसमें ऊपर बताये गये पांच पत्रकारों सहित टीवी चैनल्स की कुछ खलनायिकाएं भी शामिल थीं।
इन सभी के बीच खलबली मची है, क्योंकि जाल बिछाने में जिनकी सेवाएं ली गयीं, वे सभी विषकन्याएं पुलिस के सामने इनका कच्चा चिट्ठा खोल चुकी हैं। यहां हम बता दें कि ब्लैकमेलिंग के स्तंभ को जिस प्रतिष्ठान में सहारा दिया गया, मामले की एक आरोपी के किसी समय वहां मजबूती से तार जुड़े थे।
इसी तरह से पत्रकारों और इन महिलाओं के बीच नैक्सस बना तथा लगातार मजबूत होता चला गया। परिणाम सामने है। राज्य की तमाम रसूखदार चेहरों पर दाग नजर आने लगे हैं। बहुत बुरा यह कि वल्लभ भवन के गलियारे अब इतने अपवित्र कर दिये गये हैं कि इस भवन के दोष निवारण की कोई सूरत अब नजर नहीं आ रही है।
सवाल यह है भी है कि 'शिकार' करने के अपराधी तो सामने आते जा रहे हैं लेकिन जो 'शिकार' हुए, उन पर क्या कम सवाल हैं? आखिर राजीखुशी से 'हनी के ट्रेप' में आने के पहले 'हनी को ट्रेप करने' की कीमतें भी तो चुकाई गई हैं। करोड़ों के ठेके, टैंडर, एनजीओ को पैसा, यह सब पैसा क्या इनके बाप का था, आखिर जनता की गाड़ी कमाई को अपनी एैयाशी पर लुटाने वालों की कोई सजा तो तय होना ही चाहिए।
अब जिस तरह इंदौर में हरभजन सिंह को जिस आधार पर निलंबित किया गया है, क्या वो आधार कोर्ट में चल पाएगा। और अगर पीडी मीणा को सिर्फ लूप लाइन में डाला गया तो हरभजन को निलंबित करने में दौहरा मापदंड किसलिए?
जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि अब तक हरभजन सिंह ने ब्लेक मैल की कीमत के तौर पर जो पैसा ब्लेकमैलर को चुकाया या जो फायदे पहुंचाएं, वो पैसा सरकारी वेतन पर चुकाने की उसकी क्षमता थी क्या? नहीं थी तो जांच होना चाहिए कि यह पैसा उसने या ब्लेकमैल हो रहे तमाम लोगों ने कैसे कमाया? कुल मिलाकर धोखा और ज्यादती सिर्फ जनता के साथ हो रही है। और क्या ताज्जुब हैं कि हम सिर्फ तमाशा देखने के लिए अभिशप्त हैं।
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