ममता यादव।
पत्रकारिता की दुनिया में कुछ नियम अघोषित लेकिन अनिवार्य होते हैं। बहुत सारे नियम पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान पढ़ाए, समझाए भी जाते हैं।
उनमें सबसे पहला नियम होता है कि किसी भी दंगे की रिपोर्टिंग में समुदाय या व्यक्ति का नाम नहीं लिखा जाएगा क्योंकि इससे सामाजिक माहौल और ज्यादा खराब होने की संभावना रहती है।
दूसरा नियम जो कि मध्यप्रदेश के अखबार नवभारत से शुरू हुआ आगे चलकर कई अखबारों ने इसे अपनाया कि बलात्कार की खबरों में बलात्कार शब्द का उपयोग न किया जाए और इन खबरों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाए कि समाचार जनता तक पहुंच भी जाए और रेप पीड़िता या उसके परिवार को दोबार एक मानसिक प्रताड़ना, लांछन उपेक्षा का सामना न करना पड़े।
यह एक व्यवहारिक पक्ष है ओर इसके पीछे धारणा यह थी कि लड़की के साथ दुष्कर्म तो एक बार होता है लेकिन समाज, मीडिया और कोर्ट तक उसके साथ कई स्तरों पर यह अमानवीय व्यवहार किसी न किसी बहाने होता रहता है।
तीसरा नियम यह कि किसी भी अपराध की खबर में दुर्घटना या घटना के जिम्मेवार व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं लिखा जाना चाहिए जब तक कि उसपर अपराध सिद्ध न हो जाए आरोपी शब्द का उपयोगी किया जाए।
अगर बात करें संविधान द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों की तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा अधिकार है जिसके तहत भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है।
संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत लिखित और मौखिक रूप से अपना मत प्रकट करने हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान किया गया है।
किंतु अभियक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है इस पर युक्तियुक्त निर्बंधन हैं। भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता पर खतरे की स्थिति में, वैदेशिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव की स्थिति में, न्यायालय की अवमानना की स्थिति में इस अधिकार को बाधित किया जा सकता है।
लेकिन वर्तमान में अगर मीडिया के पत्रकारिय कार्यव्यवहार पर नजर डालें तो उक्त नियमों और मौलिक अधिकारों का हनन ओर उल्लंघन दोनों स्पष्ट रूप से होता दिखाई देता है। स्थिति यह हो गई है कि अब समय-समय पर देश की सर्वोच्च अदालत और उसके मुख्य न्यायाधीश भी इस पर सवाल उठा रहे हैं।
वर्ष 2022 के अगस्त और सितंबर के महीनों में ऐसी ही टिप्पणियां सामने आईं पहली 8 अगस्त 2022 को सुप्रीम कोर्ट के तत्काली चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने टिप्पणी की कि प्रिंट मीडिया जवाबदेह है, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया गैरजिम्मेदार। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने विभिन्न न्यूज चैनलों के मीडिया कवरेज को लेकर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा था कि इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं। मीडिया बिना जांचे-परखे 'कंगारू कोर्ट' चला रहा है। प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शून्य जवाबदेही है” वहीं सोशल मीडिया का हाल और बुरा है।
सुप्रीम कोर्ट की दूसरी टिप्पणी 22 सितंबर 2022 को आई कि जिसमें मीडिया में हेट स्पीच पर कड़ा रूख अपनाते हुए कहा गया कि टीवी चैनल पर डिबेट के दौरान एंकर की बड़ी जिम्मेदारी होती है। उसे हेट स्पीच रोकनी चाहिए। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि प्रेस स्वतंत्रता जरूरी है लेकिन उसे पता होना चाहिए कि सीमा रेखा कहां है।
इन दोनों ही टिप्पणियों में एक बात जो समान थी वह कि टीवी मीडिया के कार्यव्यवहार को इंगित कर सवाल उठाए गए, वह भी देश की शीर्ष अदालत और न्यायाधीशों द्वारा।
दरअसल उद्दंडता और स्वतंत्रता दो विपरीत शब्द और मानवीय जीवनशैली में बरते जाने वाले विपरीत कार्यव्यवहार हैं। पर इन दो व्यवहारों की यदि पत्रकारीय कार्यव्यवहार यानि मीडिया की कार्यशैली के संदर्भ में बात करें तो यहां उद्दंडता और स्वतंत्रता के बीच की रेखा बहुत बारीक है जिसके बारे में फर्क करना जरूरी है। जैसा कि जस्टिस जोसेफ का कहना था कि यह समझना बहुत जरूरी हे कि सीमा रेखा कहां है।
जिसके बारे में पत्रकारों को अंतर करना और समझना बहुत जरूरी है। स्वनियमन स्वअनुशासन के माध्यम से यह किया जा सकता है पर यह बहुत कम हो पा रहा है।
आमतौर पर देखने में यह आता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बहाने मीडिया उद्दंडता और स्वतंत्रता के बीच की महीन रेखा को लांघ ही नहीं चुका है बल्कि उसे लगभग खत्म करने पर आ चुका है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात तो बहुत होती है पर इसे समझने की कोशिश बहुत कम होती है। अनुच्छेद 19 की ही बात करें तो प्रेस ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वाधिकार सुरक्षित मानकर इसका उपयोग करना शुरू कर दिया है।
इसका परिणाम यह हो रहा है कि कई बार पत्रकार सामने वाले के स्वतंत्रता और निजता के अधिकारों का हनन जाने-अनजाने कर रहे होते हैं। यही पत्रकारीय कार्यव्यवहार पत्रकारिता की गरिमा को तो कम कर ही रहा है साथ ही उसे अविश्वनीय भी करता जा रहा है।
यही कारण है कि समाज के एक बड़े वर्ग का पत्रकारिता के इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से मोहभंग होने लगा है। समाज का प्रबुद्ध वर्ग का एक तबका तो टीवी मीडिया से पहले ही दूरी बना चुका है लेकिन इस पर चर्चा ज्यादा गंभीरता से अब इसलिए होने लगी है क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालतों की तरफ से भी इस कार्यव्यवहार पर सवाल उठने लगे हैं।
जवाबदेही और गैरजिम्मेदारी अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वह भी पत्रकारीय कार्यव्यवहार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इनका सीधा संबंध इसलिए है, क्योंकि जब एक पत्रकार चाहे वह किसी भी माध्यम का हो, जब सूचना या विचार प्रचारित-प्रसारित करने की जिम्मेदारी लेता है तो उसकी जवाबदेही भी उसी की होती है। उससे पूरा समाज प्रभावित होता है।
अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी के आलोक में ही बात करें तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रिंट माध्यम ने घोषित-अघोषित तरीके से अपने दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं और ये उसके कर्ताधर्ताओं के गुणसूत्र में बस गये हैं। जिससे उनका अवचेतन लगातार सक्रिय रहता है, प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही बाकी है।
इसके विपरीत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कोई जवाबदेही नहीं है और सोशल मीडिया पर कुछ भी टिप्पणी करना सही नहीं है। सोशल मीडिया तो ज्यादा बेलगाम और अशिष्ट होता जा रहा है।
फेक न्यूज, भ्रामक जानकारी के साथ ही तोड़े-मरोड़े तथ्यों को प्रस्तुत करने से ही सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की मांग होती रही है। सोशल मीडिया पर लगाम की किंचित कोशिशें भी हो रही हैं, लेकिन पारंपरिक मीडिया के विस्तार के तौर पर स्थापित इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर रोक लगाने की सीधी कोशिश के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं।
इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है उदाहरण के लिए कहीं दंगे हुए तो यह हमेशा से एक तय गाईडलाईन थी कि खबरों प्रसारित करते समय समुदाय का नाम उपयोग नहीं किया जाएगा पर अब यह किया जा रहा है। बकायदा समुदायों का बल्कि व्यक्तियों के नाम भी लिख दिए जाते हैं। इतना ही नहीं टीवी डिबेट्स में यह सब आम होता जा रहा है।
सिर्फ हेट स्पीच ही नहीं निजता के अधिकार का हनन भी जाने-अनजाने मीडिया द्वारा किया जा रहा है। किसी भी विषय या विवाद के सारे पहलू, तथ्य, पक्ष जाने बिना मीडिया ट्रायल जैसा माहौल बना दिया जाता है। यही ट्रेंड फिर सोशल मीडिया पर आकर संबंधित व्यक्ति के लिए मानसिक प्रताड़ना, सामाजिक अवहेलना या अपमान का कारण बनने लगता है।
दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण है दुष्कर्म की घटनाओं के बाद पीड़िता की पहचान उजागर कर देना अब आम होता जा रहा है। कभी परिवार के लोगों को इंटरव्यू, कभी पड़ोसियों का यह पहचान वालों से लाईव बातचीत भी दिखा दी जाती है।
ऐसा करके मीडिया द्वारा उस रेप पीड़िता के बतौर इंसान सम्मान और निजता के अधिकार का हनन तो होता ही है एक अघोषित प्रताड़ना भी उसके हिस्से आती है, जिससे उसकी मानिसक शांति और भावनाओं को आघात पहुंचता है।
परंतु अपने संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की जानकारी के अभाव में वह यह भी नहीं कह पाती कि आप यह सब मेरे साथ गलत कर रहे हैं।
तीसरा सबसे बड़ा उदाहण है मुंबई के ताज होटल पर हुए हमले के दौरान मीडिया द्वारा अपने कार्यव्यवहार में बरता गया अतिउत्साही और लापरवाह रवैया। बालाकोट हमले के दौरान भी यही हुआ।
पत्रकारिता में यह वह गैरजिम्मेदाराना कार्यव्यवहार था जिससे देश की अस्मिता पर तो खतरा बढ़ा ही साथ ही उस समय आतंकवादियों से दो-दो हाथ कर रही हमारी सुरक्षा एजेंसियों के रास्ते भी मुश्किल भी हो गए।
अमानवीयता का एक चेहरा यह भी है कि मीडिया का कि किसी सैनिक के शहीद होने पर या अन्य किसी दुर्घटना में किसी इंसानी मौत पर उनके परिजनों से पूछा जाना आपको कैसा लग रहा है?
ताजा उदाहरण गुजरात के बोरगी पुल टूटने के दौरान का है जहां पर एक टीवी पत्रकार का एक व्यक्ति से सवाल था कि जब पुल टूटा तो लोग कैसे चीख रहे थे।
कुलमिलाकर यह कि पत्रकारिय कार्यव्यवहार में मानवीय संवदेना, मौलिक अधिकारों का संरक्षण, देश के सम्मान सुरक्षा के प्रति सजगता पहली और अनिवार्य शर्त पत्रकार को खुद पर ही लागू करनी चाहिए। चिंतनीय विषय यह है कि प्रिंट मीडिया भी कुछ हद तक अब इस तरह से समाचार प्रकाशित करने लगा है।
भारत में मीडिया को लेकर जो बहस चल रही है, उसके मुख्य बिन्दुओं में टीवी पर होने वाली बहसें 'पक्षपाती', 'दुर्भावना से भरी' और 'एजेंडा चलित' हैं, जैसी राय उभर कर सामने आ रही है।
आज मीडिया भले ही तमाम रूपों में सूचनाओं और विचारों का प्रसार कर रहा है, लेकिन मौजूदा दौर में वर्चस्व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टीवी चैनलों का ही है। समाज में होने वाली किसी भी घटनं-दुर्घटना आदि का पैमाना आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उपस्थिति से तय हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में मसाला पत्रकारिता अब चरम दौर में है।
इसके विपरीत समाज का बौद्धिक और संजीदा वर्ग इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दूरी बनाकर रखने लगा है। ऐसे में सवाल उस आम जनता का है कि इस दौर में वह क्या करे, जो अब भी मीडिया साक्षरता से दूर है? आम जनता वितंडावादी दृश्यों को ही हकीकत मान लेती है। शायद यही कारण देश के सर्वोच्च न्यायाधीश तक को अब मीडिया पर टिप्पणी करनी पड़ी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्ताधर्ताओं को सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को समझना चाहिए।
आमतौर पर, न्यायपालिका किसी मुद्दे पर सार्वजनिक विचार व्यक्त करने से बचती है, परन्तु जब वह खुलकर बोलने लगे, तो समझना चाहिए कि वह उस मुद्दे को लेकर क्या सोच रही है? न्यायपालिका कुछ आगे करे, उससे पहले मीडिया को खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करनी चाहिए।
अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ''यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।
वर्तमान परिवेश में अगर सरकार और अखबार की जगह यह पूछा जाए कि आप मीडिया माध्यमों में से समाचार चैनल और अखबार में से किसी एक को चुनना है तो आप किसे चुनना पसंद करेंगे तो ज्यादातर जवाब यही आएंगे कि हम अखबार चुनना पसंद करेंगे।
इसके पीछे का जो मुख्य कारण समझ आता है वह यह कि कम से कम अखबारों के कंटेंट में इतनी विश्वसनियता तो बची ही है कि उसे संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
हालांकि इंटरनेट के दौर में यह भी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है, बावजूद इसके अगर पुख्ता संदर्भ सामग्री की आवश्यकता होती है तो व्यक्ति प्रिंट माध्यम पर ही भरोसा करता है।
प्रिंट मीडिया में खबरों को प्रस्तुत करने का सलीका आज भी तथ्यपूर्ण और मर्यादित और संवैधानिक मूल्यों का अनुसरण करते परिलक्षित होता है पर फटाफट के चक्कर में टीवी मीडिया ने सारी लक्ष्मण रेखाएं पार कर ली हैं।
इसी का नतीजा है कि सोशल मीडिया और टीवी मीडिया आज सवालों के घेरे में हैं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रिंट मीडिया पूरी तरह से कार्यव्यवहार में बरती गई लापरवाहियों से मुक्त है।
कई बार संदर्भ सामग्री की त्रुटियां, बिना परखे गलत समाचार देना यहां भी होता है लेकिन उसमें खंडन जारी करने, भूल सुधार जैसी गुंजाईश बची हुई है जो कि टीवी और सोशल मीडिया में न के बराबर है।
जितनी तेजी से ह्यूमर इन दोनों माध्यमों से फैलते हैं उतनी तेजी से उसकी हकीकत पता चलते बहुत देर हो जाती है।
इसीलिए एक शब्द उपयोग में अब ज्यादा आने लगा है फेक न्यूज और फेक न्यूज आई तो फैक्ट चैक भी आया।
कुलमिलाकर यह कि पत्रकारिय कार्यव्यवहार में मानवीय संवदेना, मानवीय अधिकारों का संरक्षण, देश के सम्मान सुरक्षा के प्रति सजगता पहली और अनिवार्य शर्त पत्रकार को खुद पर ही लागू करनी चाहिए।
दूसरे शब्दों में कहें तो पत्रकारिता का कर्तव्य निभाते हुए सतत सजगता इसकी पहली शर्त है। दूसरी शर्त है प्रेस का लोकप्रहरी होना। तीसरी शर्त है लोक शिक्षक होना और चौथी शर्त है पत्रकार न पक्ष हो न प्रतिपक्ष हो अपितु जनपक्ष हो।
पत्रकार का मुख्य दायित्व होता है कि वह समाज तक सही सूचना, सही रूप में पहुंचाए। क्योंकि उसकी सूचना नागरिकों को वैचारिक स्तर पर तो समृद्ध बनाती ही है, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सजग भी करती है। सही सूचना सही रूप में देने से आशय कि समाचार की विषय-वस्तु को तोड़-मरोड़कर पेश न किया जाए। क्योंकि इससे समाज में विपरीत माहौल निर्मित हो सकता है। सामाजिक सरोकार, समाज में शांति, न्याय व्यवस्था और मानवीय संवदेना हर समय पत्रकार के मन और मस्तिष्क में जागृत रहें।
लेकिन अब आए दिन ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं कि सोशल मीडिया या टीवी पर चलने वाली सूचनाओं से प्रभावित होकर समाज में माहौल प्रभावित होता है।
आज से कुछ सालों पीछे देखें तो हम पाते हैं कि एक समय था जब पत्रकारिता का एक माध्यम प्रिंट पत्रकारिता इतना विश्वनीय हुआ करता था कि जो अखबार ने लिखा वही सच है। उससे इतर अगर मौखिक तौर पर कोई बात कोई तर्क दिया जा रहा है तो उसे सिरे से खारिज कर दिया जाता था। यह उस दौर के पत्रकारों का कार्यव्यवहार ही था जो कि जनता में इतना विश्वनीय था और कभी-कभी लोकमान्यताओं से उपर चला जाता था।
तब संभवत: उद्दंडता और स्वतंत्रता के बीच की महीन लक्ष्मणरेखा को पत्रकार न सिर्फ समझते थे बल्कि उस पर अमल करके अपने कार्यव्यवहार में बरतते भी थे।
आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की पहुंच और विश्वसनीयता कहीं अधिक है। प्रिंट मीडिया का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि आप छपी हुई बातों को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी निश्चित रूप से बढ़ जाती है।
मानवाधिकार की बात करें तो संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार मोटे तौर पर मानवाधिकार ही हैं। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार है चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग का क्यों न हो।
लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं।
पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं। परन्तु मानवधिकार मुख्यत: एक राजनैतिक अवधारणा है, जिसका विकास और निर्वहन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के अंतर्गत ही संभव है।
एक विकासशील देश में जहां मानवाधिकारों का दायरा व्यापक है, वहां मीडिया के सहयोग के बिना सामाजिक बोध जगाना लगभग असंभव है।
इसके लिए आवश्यक है कि पत्रकारों को आरंभ से ही मानवाधिकार मामलों की भी ट्रेनिंग दी जाए। उनके विषयों में भारतीय संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की पढ़ाई, कानून की समझ इत्यादि शामिल किए जाएं तथा कार्यक्षेत्र में भी उन्हें पुलिस बीट, लीगल बीट आदि पर भेजने से पहले कुछ ट्रेनिंग दी जाए।
आधी अधूरी तैयारी व सतही समझ से मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं और उनके समाधान की राह कठिन हो जाती है।
भारत में पूर्णत: स्वतंत्र प्रेस की परिकल्पना आरंभ से ही रही है। 1910 के प्रेस एक्ट के खिलाफ बोलते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि- “I would rather have a completely free press with all the dangers involved in the wrong use of the freedom than a suppressed or regulated press.” उन्होंने यह बात 1916 में कही थी। स्वतंत्रता पश्चात् प्रेस की स्वतंत्रता को समझते हुए संविधान में इसका प्रावधान किया गया। यहां यह उल्लेखित करना आवश्यक है कि प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व व्यवसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है।
विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार में असहमति का अधिकार भी आता है। कोई भी लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र बना रह सकता है। जब तक लोग अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करते रहेंगे। चाहे वह राज्य के शासन की कितनी ही तीखी आलोचना क्यों न हो?
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