विष्णु नागर।
जिसके पीछे सत्ता की पूरी ताक़त हो बल्कि जिस खेल को पीछे से सत्ता खेल रही हो, उस खेल को बिगाड़ने की ताकत एनडीटीवी के प्रणव राय और राधिका राय में नहीं है।
अडानी के धन की ताकत के आगे लगभग सारी सरकारें नतमस्तक हैं,वे कांग्रेस की हों या केरल की वामपंथी सरकार।
ऊपर से मोदी सरकार जिसकी सबसे बड़ी प्रमोटर हो,उससे अपने चैनल को बचा पाना प्रायः असंभव सा है। चमत्कार शायद कभी हुआ करते होंगे, अब नहीं होते।
इंडियन एक्सप्रेस की आज की खबर आदि का भी संकेत यही है कि इस खेल में अडाणी की जीत अब पक्की है।
किसी प्रभावशाली राजनीतिक दल को परवाह भी नहीं है कि एनडीटीवी का भविष्य क्या होता है।
उसकी स्वायत्तता बचे या डूबे!
तो और किसी को भी क्यों परवाह हो!
वैसे भी जिस तरफ अकूत धन और अकूत सत्ता है, न्याय भी अक्सर उसी तरफ होता है।
यही आज की सबसे बड़ी सच्चाई है।फिर जब राजनीतिक संकल्प यह है कि असहमति की हर प्रभावशाली आवाज को किसी न किसी तरह दबाना है, कुचलना जरूरी है तो फिर बात पानी की तरह एकदम साफ़ है।
दुर्भाग्य से अडाणी के इस खेल को अंजाम देने का काम एक भूतपूर्व पत्रकार को दिया गया है,जो दिल्ली के एक बड़े अखबार में पत्रकारिता के अपने आरंभिक दिनों से इस खेल में दीक्षा प्राप्त है।
अब जो हल निकलेंगे, जनसंघर्षों से ही निकलेंगे।
जनसमूहों की संगठित ताकत से ही निकलेंगे और इसलिए जल्दी नहीं निकलनेवाले।अब रात नौ बजे अपने ड्राइंग रूम में बैठकर सत्ता- विरोध की आवाज़ को सुनने का शौक पालने वालों के दिन जल्दी ही लदने वाले हैं।
कुछ दिन या कुछ महीने शायद और इसका सुख और ले लीजिए।फिर गाइएगा,सुख भरे दिन बीते रे भैया..
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