वीरेंद्र भाटिया।
एक अखबार के संपादक की हत्या हो गई थी! शहर में मातम पसरा था! दुसरे दिन अख़बार का कार्यालय विशेष रूप से खोला गया गया ताकि कातिल ये भ्रम न पाल लें कि उन्होंने कलम की हत्या कर दी है!
उप संपादक ने कार्य की जिम्मेदारी संभाली और स्टाफ को भरी आँखों से भरे गले से निर्देशित करता रहा!
स्टाफ भी ग़मगीन था लेकिन मरहूम संपादक की कलम की जिजीविषा को समझते हुए वह काम करने के लिए प्रतिबद्ध खड़ा मिला !
अख़बार के कार्यालय में एक प्रतिष्ठित लेखक ने प्रवेश किया जिसकी बीसियों किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं !
लेखक ने संपादक की हत्या पर औपचारिक दुःख जताया और कहा, कि कल जो लघुकथा आपके समाचार पत्र में छपी थी, वह मेरी थी।
उसके नीचे किसी और का नाम लिखा था! संवेदना भरी मेरी यह लघुकथा तो बहुत चर्चित है, आपने किसी और का नाम कैसे लिख दिया !
उप संपादक ने हैरानी से लेखक की ओर देखा! उसने मन ही मन सोचा कि ये कौन सा मौका है ऐसी बात करने का ! ये कैसी संवेदना है !
उप-संपादक ने बुरा सा मुंह बनाया जैसे कि मुंह के पान की पीक अभी लेखक के मुंह पर थूक देगा !
लेकिन उसने संयत होते हुए कहा, कल फिर से आपके नाम से प्रकाशित कर देंगे सर!
हाँ, कल छाप देना याद से, लेखक ने जाते-जाते बात पूरी की !
उप संपादक ने स्टाफ को निर्देशित किया, इस हरामी की अब कोई रचना अखबार में मत छापना! और साथ ही लेखक के नाम दस-बीस गालियां उच्चार दीं!
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