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ये गुस्सा हर पत्रकार को आना चाहिए,क्यों नहीं आता

मीडिया            Feb 17, 2022


ममता मल्हार।
T कुमार अभी दो दिन पहले सोशल मीडिया से पता चला कि आप देश की प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी यूनीवार्ता में वरिष्ठ फ़ोटो पत्रकार के तौर पर 1989 से काम कर रहे थे। आपका 60 महीने यानि 5 साल से वेतन नहीं मिला था इसलिए आपने यूएनआई के दफ्तर में ही पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली।
उसी दिन से बहुत सारी बातें मेरे दिल दिमाग को झकझोर रही हैं। जब भी कोई पत्रकार गुरबत की मौत मरता है तो मुझे दुःख के साथ गुस्सा भी आता है।

लोग बस एक कमेंट लिखकर फारिग हो जाते हैं दुखद शर्मनाक और ज्यादा हुआ तो व्यवस्था को कोस लेते हैं। और ज्यादा हुआ तो पत्रकार संगठनों को संस्थान को सिस्टम को डरते-डराते कोस लेते हैं।

टी कुमार मेरे सवाल बहुत अलग हैं। आपको क्या लगा कि आपके मरने से आपके परिवार का भला हो जाएगा या आपके इस तरह दुनिया से जाने से आपकी 60 महीने में पैदा हुई समस्यायें खत्म हो गईं? आपको क्या लगा कि एक्सीडेंट में शारिरिक रूप से टूटी आपकी पत्नी आपके जाने के बाद मन मस्तिष्क से और ज्यादा नहीं टूटी होंगी? या फिर आपकी बेटी की सगाई अब हो जायेगी?

5 साल तक वेतन न मिलने का मतलब है कि शतप्रतिशत आप कर्जों और अहसानों से भी लद गए होंगे? तो क्या आपकी रुखसती से आपका परिवार इनसे मुक्त हो जाएगा ? इन सब सवालों का जवाब है अब आपका परिवार दया का पात्र होगा। कोई सस्य जीवटता वाला होगा तो फिर सम्हल जाएगा।

खैर टी कुमार ये तो हुई आपकी बात। पर आप जैसे और भी कई पत्रकारों को गुरबत में मरते और फिर उनकी देह को कफ़न-दफन के लिये तरसते देखा है। चंदे होते हैं पहले कफ़न-दफन के लिए। परिवारों की सहायता के लिये कुछ लोग सक्रिय हो जाते हैं। कुछ को मिल जाती है कुछ को नहीं मिलती। मध्यप्रदेश में तो मैने देखा है कि पत्रकार बीमा का क्लेम दिलवाकर भी कई संगठन अपनी पीठ आप ठोक लेते हैं।

पत्रकार संगठन ये वो शब्द है जिसकी हकीकत सिर्फ पत्रकारिता से जुड़े लोग ही जानते हैं। ये तब सक्रिय होते हैं जब बन्दा दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह जाता है।

टी कुमार अब आपके बहाने फिर से वही पुराने बोरिंग से सवाल उठाने की हिमाकत कर रही हूं जो बार-बार करती रहती हूं।

1 दुनिया भर के अधिकारों की बात करने वाला,आवाज उठाने वाला पत्रकार खुद के अधिकारों के लिये खामोश क्यों रहता है?

2 क्यों वह एक शोषणकारी संस्थान का शोषण चुपचाप झेलता है?

3.क्यों ये ट्रेंड बन गया कि पत्रकार नौकरी तो मीडिया संस्थानों की करते हैं मगर इनको सारी सुविधाएं सरकार से चाहिय होती हैं?

4. जो लोग सबकुछ सरकार से ताल ठोंककर मांगते हैं वह खुद के मालिकों से कभी नहीं मांग पाते?

5. आपके अधिकार आपके हित के नाम बनने वाले संगठन सिर्फ खुद के हित साधते रहते हैं और आप खामोश रहते हैं?

6. क्यों जीतेजी एक विशुद्ध पत्रकार का जीने का सामान छीनने की कोशिश की जाती है या छीन लिया जाता है और उसके मरने के बाद मदद का अंबार लग जाता है?

7. क्यों नौकरी में बंधकर आप इतने मजबूर हो गए कि मजीठिया वेज बोर्ड के लिए लड़ने वाले पत्रकारों से दूर होते गए औऱ मजीठिया के म लिखने बोलने तक से परहेज किया करते हैं?

8. क्यों जब नई पीढ़ी के पत्रकारों को गालियां दी जाती हैं तो अपने से पुरानी पीढ़ियों से सवाल नहीं पूछा जाता कि अपने ऐसा क्या किया कि हमारे हिस्से सिर्फ गालियां आईं हैं सर?

9 क्यों नहीं पूछा जाता कि बहुत सारे पत्रकार दलाल गण बिकाऊ हैं मान लिया पर जो नहीं बिके अपने सिद्धांतों पर अड़े रहे जनता के लिये खड़े रहे उनको संरक्षित करने सुरक्षा देने की बात कोई क्यों नहीं करता?

10. क्यों नहीं सवाल उठाया जाता कि एक यही क्षेत्र बेगार मजदूरी करवाना सहयोग के नाम पर अपनी शान क्यों समझता है? और क्यों पत्रकार फ़्री सेवाएं देते हैं खासकर हिंदी पत्रकारिता के पत्रकार?

11. क्यों जबतक पत्रकार जीता है उसकी ही बिरादरी के लोग उसके खिलाफ होते हैं औऱ उसके मरने पर संवेदनाओं की बाढ़ आ जाती है?

12. सबसे बड़ा सवाल क्यों आपका उपयोग करके मीडिया मालिक अरबपति बन जाते हैं और आप वहीं के वहीं रहते हैं?

13.कहाँ से और कैसे शुरू हुआ ये ट्रेंड? की पत्रकारों को नेताओं की चौखट पर माथा झुकाना पड़े।

14. क्यों ज्यादातर लोग पार्टी पत्रकार बनकर रह गए? क्यों आप दलाल बिकाउ और वो मालिक बन गए?

15.कहाँ गया आपका आत्मसम्मान, स्वाभिमान,क्यों आप लेट जाते हैं अगर झुकने को बोला जाता है।

16. सबसे अहम सवाल, मंचों से जो ज्ञान की गंगा बहाई जाती है वो आपके खुद के जीवन में क्यों नहीं दिखाई देते? आपकी कथनी करन में इतना बड़ा अंतर?

ऐसे अनगिनत सवाल हैं जो मेरे मन मस्तिष्क को 24 घण्टे 7 दिन मथते हैं और मुझे गुस्सा दिलाते हैं। लोग पूछते हैं तुम इतने गुस्से में क्यों रहती हो?
मैं पूछती हूँ ये गुस्सा आपको क्यों नहीं आता?

आखिर में बस ये लाइनें
क्यों जीते जी हाल नहीं पूछते हैं
मरने पर हमदर्दी की भीड़ लगाने वाले।
जीते जी जीने का सामान छीन लेंगे
मरने पर परिवार को अहसान से लाद देंगे।
ये बन गया है पत्रकारिता के सिस्टम का चरित्र
    
    
    

 



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