ममता यादव।
मीडिया वाले पत्रकार बनकर जाने और पत्रकार होने में फर्क है। वहां पत्रकार या मीडिया वाले नहीं गए थे। मुझे यकीन है ये जो मीडिया वाले बनकर गए थे ये उसी बिरादरी के लोग होंगे जो कार्ड ब्लॉ ब्लॉ दिखावे के लिये मरे जाते हैं।
अतीक को निपटाना ही था तो मीडिया वाला बनाकर क्यों भेजा निपटाऊ गैंग को? पुलिस तो काफी थी। अब लोग बिना पूरी जानकारी लिये शुरू हो गए हैं। वैसे अतीक ने किसी विधायक को सुना है दौड़ा-दौड़ाकर मारा था।
ऐसी ही ठाएँ-ठाएँ खुलेआम करके कई निर्दोषों की जानें लेता रहा। सजा मिली ठीक है तरीका गलत था यह भी सवाल ठीक है। पर जिस तरह की हमारी न्याग व्यवस्था है वह अपराधियों, आतंकियों को पालने पोसने ऐश करने के पूरे मौके देती है।
खैर जैसी करनी वैसी भरनी के सिद्धांत को मानें तो न्याय हो गया। मगर तेजी से बढ़ती बुलडोजर सँस्कृति और तुरंत निपटाओ न्याय की ज्यादा परंपरा अगर चल पड़ी तो यह ठीक नहीं होगा।
कुलमिलाकर यह कि अब न्यायिक व्यवस्था अपने तरीके और समय बदले। अपराधियों के हौसले रेपिस्टों की हिम्मत इसलिए बढ़ी रहती है क्योंकि वह जानते हैं कि विक्टिम्स की चप्पल घिस जाएगी तारीख पर तारीख जाते हुए।
अपराधी को जेल हो भी गई तो वह उसके लिये ऐशगाह साबित होती है। सारे पहलु देख-समझकर,, सोच-विचारकर ही प्रतिक्रिया देनी चाहिए।
अतीक ने कितने परिवार उजाड़े? और टीवी मीडिया यह मूर्खता बंद करे कि मुस्लिमों के मुंह मे माईक ठूंसकर पूछ रहे हैं कि एनकाउंटर सही हुआ या गलत। पहले ही बहुत बेइज्जती करवा ली है।
टीवी मीडिया का यह नि:वस्त्र नाच पिछले एक महीने से चल रहा है। अतीक के पीछे दौड़ते उसकी दैनिक क्रियाएं दिखाते आदि आदि तमाशे रोज के थे अभीऔर चलेंगे।
अतीक-अशरफ हत्याकांड को जिस तरह अंजाम दिया गया मीडिया को एक टूल की तरह उपयोग करके उससे सबसे बुरा हुआ यह है कि अब पत्रकार हर जगह शक के घेरे में रहेंगे।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सुरक्षा सबसे पहले बढ़ाई गई और निर्देश जारी कर दिए गए कि उनसे बाईट लेने आने वाले मीडिया कर्मियों की सख्त जांच होगी।
आज उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी सुरक्षा बढ़ा दी गई।
सवाल यह है कि शब्दों की हेराफेरी और नकली पत्रकार बनकर हत्या करने वालों के बीच के फर्क की रेखा को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है।
कुछ पत्रकार सदैव पार्टी मोड में रहते हैं और वे बिना कुछ सोचे-समझे पत्रकारिता का ज्ञान देने लगते हैं। कल से यही हो रहा है नकली पत्रकार नहीं अब असल पत्रकार शक और जांच के दायरे में हैं।
एक वक्त था कि पत्रकारों के हर सरकारी विभाग, हर राजनीतिक कार्यालय में विश्वसनीय सूत्र हुआ करते थे। विश्वसनीय इसलिए कि पत्रकार और उस सूत्र के बीच इतना घनिष्ठ विश्वास हुआ करता था कि वह बेधड़क पत्रकार से जानकारियां साझा कर दिया करता था। मजाल है कि पत्रकार कभी गलती से भी जिक्र कर दे।
प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से रूबरू हो या टेलीफोनिक चर्चा में नेता-अधिकारी कभी हिचके नहीं। फिर टीवी मीडिया की चमक-दमक ने प्रिंट को थोड़ा पीछे कर दिया।
तमाम यूट्यूबर्स की माईक आईडी वाली भीड़ ही अब पत्रकार वार्ताओं और बाईट आदि के लिए प्रमुखता और प्राथमिकता पाने लगी है। इसी भीड़ को देखकर बाईट प्रदाता के चेहरे की चमक दोगुनी हो जाती है।
नतीजा टीवी मीडिया खुद को बहुत खास समझने मानने लगा है। खुमारी का आलम यह है कि प्रिंट या डिजिटल का कोई पत्रकार यदि किसी नेता से चर्चा कर रहा हो तो भाईसाहब बीच में आएंगे और कहेंगे हटिए-हटिए बाईट लेनी है। ये यूट्यूबर्स हैं जो एकदम से पत्रकार बन गए हैं।
यह खुमारी और बढ़ती, सर चढ़कर और ज्यादा बोलती उससे पहले ही अतीक-अशरफ हत्याकांड ने इस वाक्य को पुख्ता ही कर दिया।
जो इस तरह लिखा जाता था कि मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट आ रहा है। अब तो मीडिया की विश्वसनीयता में हमलावर की शंका भी शामिल हो गई।
स्वआंकलन की बहुत जरूरत है। माईक आईडी जितनी जल्दी पत्रकार बनने की खुमारी चढ़ाता है असल खबर या घटनाक्रम के साने उतनी जल्दी ही वह सुरूर उतर भी जाता है।
तो कुलमिलाकर अब मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट छोटा वाक्य है अब तो मीडिया की विश्वसनीयता का संकट हमलावर होने की शंका में तब्दील हो चुका है।
आपकी टीआरपी की भूख के दिखावे के चक्कर में अब मीडिया संदिग्ध हमलावर के दायरे में आ गया।
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