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पत्रकार और एंकर में अंतर होता है, एंकर को हर जगह सिर्फ स्टूडियो ही नज़र आती है

मीडिया            Jun 20, 2019


श्याम त्यागी।
सवाल उठ रहे हैं कि आईसीयू बेहद संवेदनशील जगह है वहां पत्रकारों को नहीं घुसना चाहिए था, वहां से रिपोर्टिंग नहीं करनी चाहिए थी। दिल्ली एनसीआर में बैठे लोगों की बातें अपनी जगह ठीक भी हैं क्योंकि जब भी हम अपने किसी मरीज को देखने दिल्ली एनसीआर के किसी हॉस्पिटल में जाते हैं तो वहां का सिक्योरिटी गार्ड निर्धारित समय से अलग समय में मरीज को देखने नहीं देता है। और निर्धारित समय पर भी सिर्फ 1-2 मिलने वालों को ही वार्ड में जाने की इजाजत होती है।

लेकिन ये बिहार के अस्पताल का कैसा आईसीयू है। यहां से जो भी तस्वीरें आ रही हैं उस तस्वीर में साफ—साफ नजर आ रहा है कि बीमार बच्चों के साथ साथ उनके मां बाप या रिस्तेदार को लगाकर 20-30-50 आदमी आईसीयू में बैठे हैं। होना तो यही चाहिए कि मरीज के साथ सिर्फ एक व्यक्ति आईसीयू में रहे। लेकिन लोग ज्यादा दिख रहे हैं। क्योंकि बच्चे ज्यादा हैं। एक बेड पर दो-दो बच्चे हैं। इसलिए परिवार के सदस्यों का वहां होना भी लाजिमी है।

अब मूल मुद्दा ये है कि जब आईसीयू में इतने लोग हो सकते हैं तो एक पत्रकार क्यों नहीं हो सकता? वो पत्रकार उस आईसीयू की स्थिति को मुहिम बनाकर सरकार को क्यों नहीं जगा सकता है? अगर उसके वहां होने से सिस्टम में हड़कंप मचा है तो वो वहां क्यों नहीं हो सकता है? अगर उसके होने से कुछ बच्चों को दवाईयां और इलाज जल्दी मिल सकता है तो उसे वहां क्यों नहीं होना चाहिए?

अजीत जी वहां यही कर रहे थे। वो डॉक्टर से सवाल भी कर रहे थे लेकिन उन्हें काम करने से नहीं रोक रहे थे। और सबसे बड़ी बात दिल्ली एनसीआर में बैठकर हम जैसे तमाम लोग यही सोच भी रहे थे कि ये मुद्दा अब मुहिम बन चुका है इसलिए शायद अब सरकार जागे और बच्चों को बेहतर इलाज मिले। सरकार जागी भी और मंत्रियों की परे भी वहां शुरू हो गई।

अजीत जी ने भी अपना बहुत कुछ खोया है। शायद इसलिए ही वो इस मुहिम को लेकर आगे बढ़े हों। उनके अंदर की संवेदनशीलता स्क्रीन पर साफ दिख भी रही थी। फिर भी पत्रकार इंसान ही होते है। बेहद सम्भलकर काम करते वक्त भी कुछ गलतियां हो जाती हैं। ऊंच नीच हो जाती है। आवाज कभी ज्यादा तो कभी कम हो जाती है, लेकिन इतना जरूर है कि बिहार को और उस अस्पताल को इस स्थिति से निकालने के लिए और बहरी सरकार के कान खोलने के लिए 'धमाके' की जरूरत ही थी।

लेकिन इस बेहद संवेदनशील माहौल में एक और तेज तर्रार एंकर कूद गयीं। उन्होंने अपनी इस रिपोर्टिंग से पूरे पत्रकारिता जगत को ही शर्मिंदा कर दिया। वो वहां अपने चिर परिचियत अंदाज में चिल्ला रही थीं। डॉक्टर को काम तक नहीं करने दे रही थीं। उन्हें देखकर यही लगा जैसे 'एंकरकारिता' को ही तुरन्त आईसीयू में भर्ती करने की जरूरत है। एक पत्रकार और एक एंकर में यही मूल अंतर भी होता है। एंकर को हर जगह सिर्फ स्टूडियो ही नज़र आती है और वहां मौजूद लोग गेस्ट। अब वो चाहे मरीज हो या उनके तीमारदार

खैर, इस सिस्टम को जगाने के लिए 'धमाके' की जरूरत थी। जो अजीत जी ने किया। उन्होंने सत्ता से भी सवाल पूछे, विपक्ष से भी सवाल पूछे। असर भी हुआ है। बिहार से लेकर दिल्ली तक मंत्री परेड़ कर रहे हैं। लेकिन महिला एंकर महोदया ने मुजफ्फरपुर के अस्पताल को 'पिपली लाइव' बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

 


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