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ये समाचार की दुनिया के ओहदेदारों के लिए तमाचा है

मीडिया            Mar 22, 2023


 विभव देव शुक्ला।

 एक पत्रकार ने पोहे का ठेला लगाया है, शुरू किया है.

स्टार्टअप है, बिज़नेस मॉडल है, रोजगार का नवीन उपक्रम है.

कल को सफल होगा, चर्चा होगी, ख्यातिलब्ध होगा, एक बड़ा वेंचर बनेगा, धनार्जन के शिखर पर होगा.

क्या बात है, गर्व की बात है, वाह, अद्भुत, स्वावलंबी भारत, मेक इन इन्डिया का आत्मनिर्भर भारत, आत्मनिर्भर भारत का आत्मनिर्भर पत्रकार.

नशे में हो क्या या सारा बोध, चेतना, तर्क और अर्थ चाट गए हो क्या? गर्व छोड़ो यह प्रसन्नता की बात भी कैसे हो सकती है? प्रसन्नता छोड़ो इस उपक्रम की सराहना करने भर की हया कहाँ से लाते हो?

कल से देख और पढ़ रहा, पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी न जाने किस मद में चूर है.

सब यह सिद्ध करने में लगे हैं कि कितनी क्रांतिकारी शुरुआत हुई है कि एक पत्रकार ने पोहे का ठेला शुरू किया है.

एक इंसान, देश के उत्कृष्टतम पत्रकारिता संस्थानों में एक संस्थान से पत्रकारिता की शिक्षा लेता है. देश के प्रतिष्ठित और उच्चतम संस्थानों में सेवाएं देता है,

हर सम्भव जिम्मेदारी निभाता है जिसका सपना हर wanna be (young) journalist देखता है. इसके बावजूद पोहे का ठेला लगाता है.

ये पूरी की पूरी इंडस्ट्री की मिथ्या से भरी वास्तविकता की असली तस्वीर खींचती है कि 500 करोड़ की 10 इमारतों में एक कुर्सी की जगह नहीं बन पाई.

एक पत्रकार, पत्रकार नहीं बन पाया पर पोहे वाला ज़रूर बन गया.

और कोई कृपया "स्वेच्छा से किया है या कोई काम छोटा नहीं का ज्ञान" न दें. जिस पत्रकार ने इतना बड़ा कदम उठाया है उसका आत्मबल बड़ा हो सकता है, वो साहसी हो सकता है पर बड़े संस्थानों के सम्पादक नहीं.

ये समाचार की दुनिया के ओहदेदारों के लिए तमाचा है. आपके बनाए इको सिस्टम में, आप के बनाए दफ्तर और दफ्तर के माहौल में एक इंसान फिट नहीं हो सकता या फिट नहीं हो पाएगा.

आप जैसे लोगों के चलते एक पत्रकार, सब कुछ करने को तैयार होगा सिवाय पत्रकारिता के. पोहे का ठेला लगाने की प्रशंसा हो सकती है, होनी ही चाहिए.

इतनी अलहदा मानसिकता के क्रियान्वन की चर्चा होनी चाहिए पर पत्रकार किस लिहाज़ से तारीफ के अखाड़े में उतर रहे हैं.

आप लाख डिफेंड कर लीजिए, कोई हवाला दे दीजिए, बताते रहिए की कितना अनुपम कार्य हुआ है पर सच्चाई यही है कि बड़े बड़ों की असफलता, लापरवाही, नकारात्मकता, जड़ता ऐसी ही नजर आती है.

ये सम्पादकों और आलाकमानों के लिए रियलिटी चेक है कि वो किन दुष्परिणामों की वजह बन रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए कितनी बुरी स्थिति पैदा कर रहे हैं.

ये ठेला देखना, पत्रकार बनने का सपना देखने वाले लड़के के लिए बेहद निराशाजनक होने वाला है. लेकिन सब पोहे की कमाई देखने को आतुर हैं पर युवाओं के मन में ठेले से उपजने वाली हताशा नहीं.

आप लाख तारीफ करें पर यथार्थ यही है कि पत्रकार पोहे का ठेला लगाने के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं करता. आने वाले समय में कोई किस मन से कहेगा कि वो यही बनना चाहता है.

ये पूरी पत्रकार लॉबी और मीडिया इंडस्ट्री के लिए कितनी शर्म की बात है, फिल्म सिटी की बड़ी एक बिल्डिंग में काम करने वाला एक पत्रकार, उसी बिल्डिंग के सामने पोहे का ठेला लगाएगा.

थोड़ा शर्म बची हो तो, महिमामंडन प्रकल्प से बाहर आइए, ज़मीन में 4 फीट धंसी उदासीनता और अहंकार की गर्दन बाहर खींच कर देखिए कितना कुछ बिगड़ चुका है.

अपनी नाकामी को एक आत्मबली इंसान के साहस से ढकिए मत. स्वीकार कीजिए कि आप बतौर 'साहब' बतौर 'सर' कितने असफल हैं.

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