डा.रजनीश जैन।
बच्चों के एक ट्रैकिंग दल को जंगल में कुछ मिला, उन्होंनें न जाने कौन से पुरातत्ववेत्ताओं को कुछ तस्वीरें दिखाईं और वे पुरातत्ववेत्ता प्रसन्नता से पागल हो गये,...इतिहास बदलने पर आमादा हो गये। दैनिक भास्कर के रिपोर्टर ने दि. 16 मई, 2017 के जैकेट वाले पेज दो पर बड़ी खोजपरक रपट लिखी और अपना नाम भी 'इतिहास' में शामिल कर लिया। उसने जो खुलासा इस बाबत किया उसमें डा. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय के एन्शिएंट हिस्ट्री एंड आर्के्योलाजी विभाग के अध्यक्ष डा.नागेश दुबे और विभाग के ही शिक्षक डा. मशकूर अहमद कादरी ने तथ्यों की पुष्टि की है।
मैंने रिपोर्ट को पूरा पढ़ा और अपना सिर पीट लिया। रिपोर्टर संदीप तिवारी पर तो सिर्फ तरस आया लेकिन सागर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट के इन महारथियों पर क्रोध आ रहा है। इसी वजह से यह पोस्ट लिख रहा हूँ। यह वही विभाग है जिसे प्रो.केडी वाजपेयी, डा. विवेकदत्त झा ने पूरे अविभाजित मध्यप्रदेश में अपने ज्ञान और खोजों से फलक तक पहुँचाया था। आज इस संस्था के हेड और लेक्चरर का स्तर यह है कि उन्हें विभाग से 25 किमी. दूर का इतिहास पता नहीं। उनकी आँखें पुरातात्त्विक प्रमाणों का तथ्यपरक अवलोकन करने में असमर्थ हो गयी हैं और यहाँ तक कि उन्हें अपने ही विभाग का 20- 25 साल का इतिहास नहीं पता।
यदि पता होता तो गुमराह करने वाली यह रिपोर्ट आज दैनिक भास्कर में नहीं छप पाती।गनीमत रही कि ट्रैकिंग दल और भास्कर के खोजी रिपोर्टर को गौरीदांत पर्वत के पास फारस के राजा डेरायस का मशहूर अभिलेख, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति , भारत के संविधान की प्रस्तावना जैसी चीजें नहीं टकराईं। इन सहित सैकड़ों लेख गौरीदांत पहाड़, उसके सामने दिखने वाले पहाड़ और आसपास के जंगलों में चट्टानों पर उत्कीर्ण हैं।
यहाँ ध्यान दें कि सागर से 25 किमी नजदीक रहली रोड पर बरोदा के पास स्थित इस साईट पर एक ही स्थान पर सम्राट डेरायस का लेख खरोष्ठी लिपि में, प्रयाग प्रशस्ति गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में और संविधान की प्रस्तावना देवनागरी लिपि में पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। ...यह सब यहां कराने के लिए न डेरायस आया था , न समुद्रगुप्त और न ही भीमराव आंबेडकर। यह सब किया धरा बरोदा ग्राम के ही एक अनूठे इतिहासकार स्व केशरीसिंह आर्य का है।
विवि के हिस्ट्री और हिंदी विभाग के सभी शिक्षक केशरीसिंह के काम से भलीभांति परिचित थे। डा. सुरेश आचार्य भी उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भलीभांति परिचित हैं। केशरीसिंह इतिहासकार ही नहीं गुणी वैद्य भी थे और डा. आचार्य उनसे लगातार संपर्क में रहते थे।...केशरीसिंह आर्य पर खूब आर्टिकल लिखे गये। मैंने खुद जुलाई, 2002 में ईटीवी पर रिपोर्ट दिखाई थी। केशरीसिंह का कृतित्व और व्यक्तित्व इतना छोटा और पुराना नहीं कि विवि का हिस्ट्री डिपार्टमेंट उन्हें भूल सके।
इसके उलट यह भी एक तथ्य है कि यदि हिस्ट्री डिपार्टमेंट ने उनके किए गये कार्यों का अलग से मूल्यांकन कर केटलाग नहीं बनाया तो आगे चलकर इतिहास में ढेरों कन्फ्यूजन पैदा होंगे और यदि पुष्टि करने वाले आज के शिक्षकों जैसे ही रहे तो इतिहास ही बदलना पड़ जाऐगा। आखिर कोई कैसे जस्टिफाई करेगा कि डेरायस का ठीक वैसा ही अभिलेख ईरान के साथ साथ सागर जिले में कैसे मौजूद है? आइये केशरीसिंह आर्य के बारे में थोड़ा सा और जानते हैं।
26 नवंबर1923 को जन्मे केशरीसिंह आर्य ढाना और रहली के मध्य स्थित बरोदा के निवासी थे। सिर्फ पाँचवी तक पढ़े आर्य कुशल वैद्य आयुर्वेद रत्न थे। हिंदी अंग्रेजी संस्कृत उर्दू फारसी भाषाओं और कई लिपियों के जानकार अध्येता थे। इतिहास के प्रति उनकी नैसर्गिक जन्मजात दीवानगी थी, उन्होंने स्वप्रेरणा से इतिहास को करीने से पढ़ा। प्रागैतिहासिक टूल्स और मूर्तिशिल्प के बारे में जाना, प्राचीन भारतीय लिपियों को समझा।
मुझे लगता है इस सब की ललक उन्हें गौरीदांत पहाड़ के समृद्ध गुहाचित्रों और शैलचित्रों को देखकर लगी होगी। उन्होंने इस पहाड़ में गुफामानवों के कई कंकाल, रहवास खोजे और उनके उपयोग की वस्तुएं इकट्ठा कीं। खुद ही जाकर प्रसिद्ध इतिहास कार वाकणकर को बताया और उन्हें गौरीदांत पहाड़ तक खींच लाये। दोनों ने मिलकर वहाँ ढेरों शैलाश्रयों को तलाशा और दुर्लभ पाषाण कालीन मानव निर्मित वस्तुओं का संग्रह किया। बौद्धकालीन इतिहास का विशेष अध्ययन उन्हें था और अशोक के शिलालेखों से वे चमत्कृत रहते थे।
केशरीसिंह ने न जाने कहाँ जाकर मूर्ति शिल्प का प्रशिक्षण लिया और खुद ही गांव के कई युवकों को मूर्तियां बनाने तथा पत्थरों पर अभिलेख लिखने का प्रशिक्षण देने लगे।प्राचीन अभिलेखों की पुस्तकों का उनके पास संग्रह था। बाद में इन स्वनिर्मित शिल्पकारों की टीम लेकर अविभाजित मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र आदि कई राज्यों के जंगलों में वे गये और अशोक के शिलालेखों की प्रतिकृतियां उत्कीर्ण कराने लगे। यह काम उन्होंने सन् 1975 से 1995 तक किया।मूर्तियां बनाने की वर्कशॉप उन्होंने गांव में ही खोल रखी थी।
ट्रैकिंग दल को जो स्तूप और बुद्ध की मूर्ति पहाड़ पर मिली है उसकी भी एक मर्मस्पर्शी कहानी है। इतिहास के दीवाने केशरीसिंह स्वयं भी इतिहास बन जाना चाहते थे। वे 1995 के बाद अपने घर परिवार को छोड़कर कई कई दिनों के लिए गौरीदांत पहाड़ पर ही रहने लगे थे। उस समय घने जंगलों के बीच यह जगह ध्यान और अलौकिकता का रहस्य अपने में समेटे थी। यह वहाँ जाकर आज भी महसूस किया जा सकता है। सन्2000 में केशरीसिंह ने यहाँ एक स्तूप बनवाना शुरू कर दिया। उस पर अपने ही शिल्पकारों से अभिलेख खुदवाऐ। अपने परिवार को इकट्ठा कर केशरीसिंह ने अपनी अंतिम इच्छा जिसे आप वसीयत कह सकते हैं , सबको बताई। उन्होंने कहा कि मरने के बाद उनका शव जलाया न जाये, बल्कि उनके अपने हाथों से बनाए स्तूप में गौरीदांत पहाड़ पर रखकर स्तूप को चुन दिया जाऐ।
24 जून ,2002 को केशरीसिंह ने अंतिम सांस ली। वे जीवन अपनी जिद पर जिए थे।उनकी अंतिम इच्छा को टालने की क्षमता किसी की नहीं थी। परिवार की सहमति से उनके ज्येष्ठ पुत्र विक्रम सिंह अपने पिता की देह को गौरीदांत पर्वत पर ले गये और उनका शव स्तूप में रखकर सीमेंट के गारे से स्तूप बंद कर दिया।
मेरी और केशरीसिंह जी की आखिरी मुलाकात उनके निधन के लगभग तीन महीने पहले हुई थी। वे सागर विवि के हिस्ट्री विभाग के सेमीनारों में श्रोता के रूप में आते थे, पीछे की सीट पर बैठकर सब सुनते, कभीकभार सवाल करते और चले जाते थे। उनके अजीबोगरीब काम को लेकर वरिष्ठ प्रोफेसरों में चर्चा होती थी, लेकिन एक इतिहासकार के रूप में उन्हें कभी मान्यता नहीं दी। उनके दुर्लभ कलेक्शन की कई चीजें वे दिल्ली और भोपाल के म्यूजियम में भेंट कर गये। केशरीसिंह जी के खोजे हुए इतिहास पर कई प्रोफेसर ख्याति लब्ध इतिहासकार बन गये। पर वे स्वयं बुद्ध की भांति जिए और मरे।...
संयोग से भास्कर में छपे लेख के संदर्भ से जुड़े ट्रैकर, रिपोर्टर और पुरातत्वविद सभी अपेक्षाकृत नये हैं। युवा ही कह सकते हैं। ट्रैकर और रिपोर्टर को गैरजानकार होने का लाभ दिया जा सकता है...लेकिन सागर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के एंशिएंट हिस्ट्री डिपार्टमेंट से यह उम्मीद नहीं थी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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