डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
पुलित्जर पुरस्कार विजेता जेन वेनगार्टन ने सन 2006 में वाशिंगटन पोस्ट में बच्चों के लिए एक बड़ी मजेदार पोस्ट लिखी थी। यह कहानी एक जादूगर के बारे में थी और उसका शीर्षक था- ‘द पीकाबू पेराडाक्स’। वह पूरी पोस्ट करीब नौ हजार शब्दों की थी, जिसमें लेखक ने पूरी स्टोरी के तथ्य एक-एक करके पेश किए थे। पूरा पोस्ट बहुत धीरे-धीरे रोचकता से शुरू हुआ था और उसे पढ़ने वाले जितने भी लोग थे, वे उसका प्रभाव बहुत धीमा सा महसूस कर रहे थे। 2014 में हफिंग्टन पोस्ट ने अपने पैरेंट्स ब्लॉग कैटेगरी में उसी स्टोरी को प्रस्तुत किया।हफिंग्टन पोस्ट की वह स्टोरी केवल 700 शब्दों में थी, लेकिन उसने कमाल कर दिखाया। बड़ी संख्या में लोगों ने उसे पढ़ा और पसंद किया। वास्तव में उस पूरी स्टोरी को फन फेक्टस की तरह प्रस्तुत किया था। वास्तव में हफिंग्टन पोस्ट ने उस स्टोरी को जिस तरह से अपने यहां प्रकाशित किया, वह बेहद रोचक तरीका था और कोई भी पाठक उसे पढ़े बिना नहीं रह पाया। हफिंग्टन पोस्ट वालों को इस बात का एहसास था कि इंटरनेट पर सामग्री को पढ़ने वाले लोग किस तरह के आलेख पसंद करते हैं।
जब भी आप इंटरनेट पर कोई भी आर्टिकल पढ़ते हैं, तब उसके साथ दर्जनों ऐसे आर्टिकल भी होते हैं, जो केवल एक क्लिक की दूरी पर होते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हर लेख में कई लेख छुपे हुए हैं, हर लेख के आगे और पीछे कई लेख हैं। हर लेख का अपना संदर्भ है। यह भी बात सच है और डिजिटल मीडिया के संपादक इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं और वे अपने पाठकों को यह सूचना देने में कभी कोताही नहीं बरतते। वास्तव में प्रिंट के संपादक को कोई भी आलेख प्रकाशित करने के लिए ज्यादा समय, पैसा और मेहनत की जरूरत पड़ती है। छपी हुई पत्रिका में अगर कोई शीर्षक आकर्षित नहीं करता, तो पाठक पन्ने पलटने में देरी नहीं करता। डिजिटल मीडिया में अगर कोई आलेख पसंद न आए, तब भी पाठक के सामने बहुत सारे विकल्प रहते हैं।
सूचना के स्त्रोतों का बाहुल्य
सूचना के स्त्रोत तो लगभग सभी के पास बराबर हैं, लेकिन प्रिंट मीडिया उन सभी स्त्रोतों का उपयोग नहीं कर सकता। वह जो भी स्त्रोत उपयोग में लाता है, उसकी अपनी सीमाएं होती हैं। डिजिटल मीडिया के साथ ऐसी कोई सीमा नहीं है। डिजिटल मीडिया अपने हाइपर लिंक के कारण कंटेंट को और प्रभावी बना देता है। विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए प्रिंट मीडिया के पास बहुत कम विकल्प हैं। उसे अपने कंटेंट को प्रभावी बनाने के लिए सही स्त्रोतों की जरूरत ज्यादा होती है। डिजिटल मीडिया में अनेक लोग ऐसे भी लिखते हैं मानो उन्हें लिखने का कोई अनुभव नहीं है और न ही वे मामले के एक्सपर्ट हैं, लेकिन फिर भी लोग उनकी बातों को पढ़ना पसंद करते हैं।
विश्वसनीयता का सवाल
प्रिंट मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता कायम करने के लिए कड़ी मेहनत की है। उसी मेहनत का नतीजा है कि आज प्रिंट मीडिया में लेखक के बजाय प्रकाशन ज्यादा महत्व रखता है। कौन-सा आलेख किस पत्र या पत्रिका में छपा है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय इसके कि उसे लिखने वाला कौन है और किस विषय पर लिखा गया। इसमें दोमत नहीं कि प्रिंट मीडिया में विश्वसनीयता के क्षेत्र में अपनी धाक बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत और बरसों की तपस्या की है। डिजिटल मीडिया की स्थिति इसके विपरीत है।
विषयवस्तु का आकार
प्रिंट में आज भी कई जगह बड़े-बड़े आलेखों को प्रकाशित करने का चलन जारी है। डिजिटल मीडिया में विषयवस्तु का आकार छोटा रखने पर ही बल दिया जाता है। पाठकों को यह सुविधा होती है कि वे कम शब्दों में ज्यादा और पूरी जानकारी प्राप्त कर लें। डिजिटल मीडिया में बड़े-बड़े आलेखों को पढ़ना मुश्किल होता है। ज्यादा बड़े आलेखों के लिए ई-बुक जैसे विकल्प खुले है। इसके बावजूद डिजिटल मीडिया में विविधता बरकरार है। हर उम्र, हर आय वर्ग और पसंद के लोगों के लिए अपने-अपने विकल्प मौजूद है। डिजिटल मीडिया में हजार से डेढ़ हजार शब्द तक पर्याप्त माने जाते है। इसके बाद हाइपर लिंक से काम चलाया जा सकता है।
प्रिंट मीडिया के दिग्गजों के लिए भी आज यह अनिवार्य हो गया है कि वे डिजिटल मीडिया का उपयोग सोर्स मीडिया के रूप में करे। एक मशहूर पत्रिका के अनुभवी संपादक ने मुझे यह बात कही कि आजकल किसी भी आर्टिकल को सबिंग के बाद सीधे प्रिंट के लिए देना संभव नहीं है। हम खुद घंटों मेहनत करते है इस बात के लिए कि हम जो भी सामग्री प्रकाशन के लिए दे रहे है, उसमें नया क्या-क्या जोड़ा जा सकता है और इसके लिए हमें डिजिटल माध्यम की मदद लेनी होती है।
डिजिटल मीडिया की मदद से ही प्रिंट मीडिया अपने कंटेंट को और धारदार तथा सामयिक बनाने के लिए प्रयत्न करता है। नए-नए आइडियाज के लिए भी प्रिंट मीडिया डिजिटल मीडिया का मुंह ताकता है। डिजिटल मीडिया की विविधता प्रिंट मीडिया के लिए चुनौती बनती जा रही है।
मुद्रण की तमाम सुविधाओं और परिवहन व्यवस्था में सुधार के बावजूद आज छोटी जगह से बड़े और प्रमुख प्रकाशनों का कार्य करना संभव नहीं बचा। छोटे-छोटे शहरों से प्रकाशित होने वाले लघु समाचार पत्र और पत्रिकाएं संकट के दौर में है। उनकी जगह संवाद प्रेषित करने की भूमिका अब वेबसाइट्स ने ले ली है। दूर से दूर इलाकों में भी अब इंटरनेट की पहुंच होती जा रही है और लोग वहां से अपनी बात कह रहे है।
भारत में जहां इंटरनेट की स्पीड लगातार बढ़ती जा रही है और डाटा की कीमतों में युक्तियुक्तकरण हो रहा है, उससे भी डिजिटल मीडिया के और सशक्त होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं। सूचनाओं का जो प्रवाह डिजिटल मीडिया प्रवाहित करता है, उसमें प्रिंट मीडिया का बहना स्वाभाविक ही है, क्योंकि अब हर व्यक्ति को जल्दी से जल्दी सूचनाएं प्राप्त करने की आदत बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही सूचनाओं के सभी पक्ष समझने की भूख भी बढ़ रही है। बाजारवाद के इस दौर में डिजिटल मीडिया की इस बढ़ती शक्ति को और बढ़ावा ही मिलने वाला है।
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