जिंदगी घोषणापत्रों में आसान लगती है, पर एक छोटे अखबार वाले की मौत किन पन्नों में लिखें

मीडिया            Apr 09, 2017


डॉ.रजनीश जैन।

सरकार छोटे मंझोले अखबारों को खत्म करने पर तुली हुई है। कॉपरपोरेट समर्थक इस दौर में स्वतंत्र काम करने वाले पत्रकारों की राहें आसान नहीं रह गई हैं। 800 से ज्यादा समाचार पत्र—पत्रिकायें बंद कर दी गई हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश के सागर के एक साप्ताहिक के छोटेलाल भारतीय की जिन हालातों में सड़क पर मौत हुई वह पत्रकार जगत के लिए हिलाने वाली है उन लोगों के लिए जिनमें संवेदनायें बाकी हैं। इस कड़वी सच्चाई को बहुत करीब से महसूसा डॉ. रजनीश जैन ने। कुल एक थैला संपत्ति वाले इस वरिष्ठ और अब स्वर्गीय हो चुके पत्रकार के बहाने यह हकीकत सामने आई। जिंदगी घोषणापत्रों में आसान लगती है, पर एक छोटे अखबार वाले की मौत किन पन्नों में लिखें विस्तार से पढ़ें:

पत्रकारों के सम्मान और पत्रकारिता पर व्याख्यानों की नियमित श्रंखला के इस नृशंस दौर में वाट्सएप पर पत्रकारों के एक ग्रुप में तफरी कर रहा था कि तीन तस्वीरें एक साथ सरकीं। पत्रकारनुमा भाजपा कार्यकर्ता ने अपने इलाके सागर के भूतेश्वर रोड से वे तस्वीरें दो लाइन के मैसेज के साथ पोस्ट की थीं। 'एक वृद्ध को सड़क किनारे लावारिस पड़े पाया गया,108 बुला कर उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया।उनकी जेब से ये कागजात मिले हैं।'दो कागज थे ,एक आधार कार्ड और दूसरा साप्ताहिक अखबार का परिचय पत्र जिसे देखकर मैं ठिठक गया था। वे छोटेलाल भारतीय थे, 'सैनिक गर्जना' अखबार के संपादक।

इस मैसेज पर दिनभर और कोई डीटेल नहीं आया।अगले दिन के अखबारों में भी इस बाबत कुछ नहीं था। मैंने पोस्ट डालने वाले भाजपा कार्यकर्ता को संपर्क किया कि उन बुजुर्ग के बारे में कोई अपडेट है क्या? उसने बताया कि उनकी हालत गंभीर थी कुछ ही घंटे जीवित रहे।उनके परिवार का पता चल गया , वे लोग लाश लेने पहुँच गये थे।

कुछ साप्ताहिक अखबार वालों को मैंने जब यह खबर दी तो वे उनकी मौत पर दुखी तो हुए लेकिन लावारिस पड़े मिलने पर उन्हें कोई हैरत न थी। एक ने कहा हम लोगों की हालत अब यही है, गनीमत है कि उनका परिवार पहुँच गया था, यहां तो यह उम्मीद भी खत्म है। खामोश कथन था लेकिन हजार सवालों से भरा हुआ। लेकिन मैं चुप नहीं रह सकता।छोटेलाल भारतीय पर लिख रहा हूँ यह जानते हुए कि इस लेख को पाठक नहीं मिलेंगे ,...तो क्या सिर्फ इस वजह से मुझे भी खामोश रह जाना चाहिए। वह भी तब जब मुझे इल्म है कि यह सिर्फ साप्ताहिक वाले छोटेलाल की लावारिस मौत नहीं है बल्कि अखबारी दुनिया की एक दुर्धुष विधा की सोची समझी हत्या है जिसमें हमारी सरकारें और समाज शामिल है।

छोटेलाल दलित थे ,'भारतीय' सरनेम लिखते थे।लेकिन इस निष्ठुर देश में नाम बदलने भर से जाति का फंदा काटा नहीं जा सकता। 1975 की एमरजेंसी के दमनकारी वक्त में जब अखबार और अखबार वाले बंद किए जा रहे थे, छोटेलाल अखबार निकालने की जिद पर काम कर रहे थे। लगातार निकालने पर 1976 में उनके अखबार को आरएनआई नंबर भी मिल गया। सागर,भोपाल और दिल्ली के गलियारों में वे कांग्रेस नेताओं के यहाँ सागर के ग्रामीण दलित समाज की समस्याएं ले जाते थे, समस्याओं के हल कराते समय ही सरकारी विज्ञापन भी लिखा लेते थे जिससे उनका और उनके अखबार का खर्च चलता था। पचास साल की उम्र तक शादी नहीं की।बाद में समाज की ही एक विवाहिता को उसकी संतानों सहित अपना मान लिया। एक दशक तक यही उनका परिवार था। वह परिवार बर्बादी जिसके मुखिया का इंतजार कर रही थी।

मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह को अपने परवर्ती काल में साप्ताहिकों की घातकता और व्यर्थता का बोध हुआ और उन्होंने साप्ताहिकों को मिलने वाले सरकारी विज्ञापनों पर सख्ती शुरु कर दी। अभी तक जिलों और कस्बों से सैकड़ों की तादाद में निकल रहे टेबलायड साइज के छोटे छोटे साप्ताहिकों को सरकारी विज्ञापनों की कुल राशि के 40 प्रतिशत एड दिए जाते थे। इसी वित्तीय आधार पर साप्ताहिकों की काली, सफेद, नीली, लाल, पीली दुनिया चलती थी। इनमें विभिन्न क्षेत्रीय और छोटी विचारधाराओं को भी खाद पानी मिलता था। दूरस्थ और गुमनाम इलाकों के भ्रष्टाचार और समस्याएं उजागर होती थीं। बिजली, पानी, सड़़कों की बढ़ती समस्याएं छाप रहे इन सैकड़ों इदारों पर नियंत्रण में असफल होता देख दिग्गी राजा ने इनका गला घोंटने की ठानी और बड़े अखबारी संस्थानों की तरफ फण्ड का प्रवाह बढ़ा दिया। राजा की गौरमेंट भी साप्ताहिकों के साथ ही रसातल में चली गयी।

भाजपा आई तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चमक में खो गयी। दिग्विजय की विज्ञापननीति को भाजपा नेतृत्व ने और कड़ाई से लागू किया।उधर केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने सन 77 में आडवाणी द्वारा लागू की गई विज्ञापननीति को बदलते हुए साप्ताहिक अखबारनवीसी को सूली पर चढ़ा दिया। यहां से साप्ताहिकों की उम्मीद का आखिरी चिराग बुझ गया। तकनीक के मंहगे दौर में जब बड़े संस्थानों के साप्ताहिक काल के गाल में समा गये तो छोटेलाल भारतीय की 'सैनिक गर्जना' कब तक गरजती।

आखिरी बार चार पाँच साल पहले 'सैनिक गर्जना' का अंक लिए छोटेलाल भारतीय को सागर सर्किट हाऊस में ठहरे पीडब्ल्यूडी के चीफ इंजीनियर से मिलते देखा गया।वे अखबार की कापी देने आए थे। इस अंक में उन्होंने एक लेख छापा जिसमें पीडब्ल्यूडी विभाग द्वारा पत्रकारों को दी जाने वाली मंथली पर तीक्ष्ण रिपोर्ट छपी थी। विभाग ने यह रसद रोक दी।कुछ स्थानीय पत्रकार लंबे समय तक छोटेलाल को कोसते रहे।

पर किसी ने यह मालूम करने की कोशिश नहीं की कि परिवार के भरणपोषण में नाकाम भारतीय को अपना घर छोड़ देना पड़ा था। दस साल से वे अकेले शहर के एक रेस्टोरेंट के बाजू की छपरी में सो रहे थे और बचा खुचा खा रहे थे। कभी कभी उनके कोई शिष्य उनकी बौद्धिक मदद लेने के बहाने ठीकठाक खिला देते थे। शहर में वृद्धों के मुफ्त भोजन के ठिकाने सीताराम रसोई भी वे चले जाते थे। अपने मौसरे भाई के पास नजदीक के गांव कुड़ारी में भी कुछ दिन काट लेते थे। गांव में अब भी लोग उनसे सरकारी योजनाओं के आवेदन भरवाते और शहर भिजवा देते थे। बीमारी में कई कई दिन अस्पताल में कटे।एक थैला उनकी कुल संपत्ति था। जेब में हमेशा की तरह खुद के अखबार का ,खुद के हस्ताक्षर से , खुद को जारी आईडेंटिटी कार्ड और आधारकार्ड की फोटोकापी रहती थी। पर यह सब अब निराधार है। लावारिस ही सही,74 साल की पकी उम्र में वे चले गये हैं।

अच्छा ही हुआ। छोटेलाल भारतीय विकास की राजनीति का ये दौर शायद ही बर्दाश्त कर पाते जिसके पैकेज में गरीब को 5 रु की थाली से लेकर सबको घर, कर्जामाफी, मुफ्त शिक्षा स्वास्थ्य तीर्थयात्राएं हैं। सचमुच जिंदगी घोषणापत्रों में कितनी आसान लगती है।...पर हम प्रदेश का पहला दैनिक निकालने वाले मास्टर बल्देवप्रसाद के शहर के लोग एक छोटे से अखबार वाले की मौत किस पन्ने पर लिखें।...कौन छापता है ऐसी मौतों को। शीर्षक की दूसरी पंक्ति दुष्यंत के शब्दों में कुछ यूं है,जोड़ कर पढ़ लें
...घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।'



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