दयानंद पांडेय।
रामनाथ गोयनका जब प्रभाष जोशी को संपादक बनाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में उन से मिलने के लिए अचानक पहुंचे तो प्रभाष जी के पास गोयनका जी को बैठाने के लिए सही सलामत कुर्सी भी नहीं थी ।
एक ही कुर्सी थी जिसका एक पैर टूटा हुआ था और उसे किसी तरह ईंटा जोड़ कर टिका रखा था । जोशी जी ने सकुचाते हुए गोयनका जी को उसी पर बैठाया था ।
बाद के दिनों में जब जनसत्ता अपने उरुज पर था तब गोयनका जी जोशी जी का वेतन कुछ ज़्यादा ही बढ़ाना चाहते थे लेकिन जोशी जी ने एक शर्त रख दी कि अगर जनसत्ता के सभी सहयोगियों का वेतन बढ़ा दिया जाए उनके साथ तभी उनका वेतन बढ़ाया जाए । गोयनका जी चुप हो गए ।
बी जी वर्गीज को जब रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस का चीफ़ एडीटर बनाने का प्रस्ताव रखा साथ ही तब के समय में बीस हज़ार रुपए महीने वेतन का प्रस्ताव रखा ।
वर्गीज साहब ने गोयनका से कहा, यह तो बहुत ज़्यादा है । ज़्यादा से ज़्यादा दस हज़ार रुपए दे दीजिए ।
लेकिन गोयनका जी ने कहा कि हमारे यहां संपादकों का वेतन तो बीस हज़ार रुपए महीना ही है ।
उस समय तक वर्गीज साहब हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके थे ।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार भी रह चुके थे ।
थोड़ा और पीछे चलते हैं, पंडित मदन मोहन मालवीय को राजा साहब कालाकांकर ने भारत का संपादक बनाया , वेतन दिया दो सौ रुपया महीना ।
जो बहुत नहीं तो आज के दस लाख रुपए के बराबर समझ लीजिए । यह ब्रिटिश पीरियड की बात है ।
मालवीय जी ने राजा साहब से सिर्फ़ एक शर्त रखी और कहा कि आप जब कभी शराब पिए हुए हों तो मुझे भूल कर भी अपने पास नहीं बुलाएं , न मुझ से बात करें ।
जिस दिन आप ने यह शर्त तोड़ी , मैं अख़बार छोड़ दूंगा । राजा साहब ने सहर्ष यह शर्त स्वीकार ली ।
अखबार चल निकला । राजा साहब बहुत समय तक इस शर्त को निभाते रहे ।
एक रात उन्होंने मालवीय जी को बुलाया, राजा साहब शराब पिए हुए थे , मालवीय जी उलटे पांव लौटे और इस्तीफ़ा भेज दिया ।
समय बीतता रहा, बहुत समय बाद एक सार्वजनिक कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हुई तो मालवीय जी ने राजा साहब से कहा कि मैंने आप के अख़बार से संपादक का दायित्व तो कब का त्याग दिया लेकिन आप मुझे वेतन नियमित क्यों भेजते जा रहे हैं।
राजा साहब ने हाथ जोड़ कर मालवीय जी से कहा, मैं तब भी आप को वेतन नहीं भेजता था , न अब भेज रहा हूं ।
आप को संपादक का दायित्व दिया था , कर्मचारी नहीं बनाया था , बाक़ी मेरी ख़ुशी है, इसे बने रहने दें और मालवीय जी को दो सौ रुपए महीना पूर्ववत भेजते रहे ।
अरविंद कुमार सरिता, मुक्ता, कैरवा वाले दिल्ली प्रेस में सहायक संपादक थे । सभी पत्रिकाओं के प्रभारी संपादक ।
दिल्ली प्रेस के स्वामी, प्रकाशक विश्वनाथ जी अरविंद जी के रिश्तेदार भी थे । अरविंद जी विश्वनाथ जी को अपना गुरु भी मानते हैं ।
इस दिल्ली प्रेस में अरविंद कुमार ने बाल श्रमिक के तौर पर कम्पोजीटर से भी नीचे बतौर डिस्ट्रीव्यूटर काम शुरू किया था और इस मुकाम तक पहुंचे थे ।
लेकिन एक बार किसी बात पर विश्वनाथ जी उनसे नाराज हो गए , उनके कमरे से कुर्सी निकलवा कर स्टूल रखवा दिया ।
सहयोगियों को उनसे मिलने पर पाबंदी लगा दी, तरह-तरह से उन्हें तंग किया गया । इसी बीच टाइम्स आफ़ इंडिया ग्रुप की मालकिन रमा जैन ने उन्हें बुलाया और हिंदी फ़िल्मी पत्रिका माधुरी का संपादक बनने का प्रस्ताव दे दिया ।
अरविंद कुमार ने ज्वाइन करने के लिए थोड़ा समय मांग लिया और इस विपरीत हालात में भी दिल्ली प्रेस नियमित जाते रहे ।
अंततः विश्वनाथ जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अरविंद जी से इस बात को स्वीकार करते हुए उन्हें उनका रुतबा वापस दे दिया ।
तब जा कर अरविंद जी ने अपना इस्तीफ़ा देते हुए उनसे माधुरी जाने के लिए विदा मांगी ।
विश्वनाथ जी हतप्रभ रह गए यह जान कर कि टाइम्स आफ इंडिया के प्रस्ताव के बावजूद अरविंद जी विपरीत स्थितियों में भी दिल्ली प्रेस में बने रहे।
खैर अरविंद जी मुम्बई गए और एक शानदार पत्रिका माधुरी निकाली।
चौदह बरस बाद थिसारस पर काम करने के लिए माधुरी छोड़ दिया । पर यह प्रत्यक्ष कारण था , यह बात सब लोग जानते हैं ।
अरविंद जी ख़ुद भी यही बताते हैं, पर बहुत कम लोग जानते हैं कि अरविंद कुमार के माधुरी छोड़ने के पीछे एक अप्रत्यक्ष कारण भी था ।
यह कारण था कि तब के दिनों नवभारत टाइम्स से अक्षय कुमार जैन रिटायर होने वाले थे और प्रबंधन ने अरविंद कुमार को नवभारत टाइम्स का संपादक बनने का प्रस्ताव रखा था जिस पर अरविंद कुमार ने सहमति दे दी थी ।
लेकिन अक्षय जी रिटायर हुए तो अज्ञेय जी नवभारत टाइम्स के संपादक हो गए।
अरविंद जी ने बिना कुछ इधर-उधर कहे-सुने माधुरी से चुपचाप इस्तीफ़ा दे कर थिसारस का काम शुरू कर दिया ।
यह एक पत्रकार, एक संपादक के स्वाभिमान का प्रश्न था, जिसे अरविंद कुमार ने ख़ामोशी से निभाया ।
किस्से और भी बहुतेरे हैं पत्रकारों, संपादकों और उनके स्वाभिमान के । उनकी आन, बान और शान के ।
और आज के पत्रकारों के ?
आप ने देखा ही होगा कि आज लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता खड़गे ने ए बी पी न्यूज़ चैनल में मालिकाना हक बदलने के चलते चैनल से बाहर हुए दो एंकर सहित तीन लोगों का मामला बड़े जोर-शोर से उठाया ।
एनडीटीवी समेत तमाम चैनलों से, अख़बारों से हज़ारों लोग इधर निकाले गए हैं।
कांग्रेस सहित किसी भी पार्टी ने यह मामला कभी संसद में क्यों नहीं उठाया ।
लाखों, करोड़ो के पैकेज पर काम कर रहे इन चैनलों के लोगों की आवाज़ संसद से सोशल मीडिया तक चौतरफा सुनाई दे गई ।
पर इन्हीं चैनलों और अख़बारों में बेचारे अल्प वेतन भोगी पत्रकारों की बात लोकसभा में कभी किसी ने उठाई क्या ?
इन्हीं मीडिया संस्थानों में दिल्ली, मुम्बई, लखनऊ, पटना, भोपाल, चेन्नई, बेंगलूर आदि जगहों पर दिहाड़ी मजदूरों से भी कम पैसे तीन हज़ार, पांच हज़ार, दस हज़ार रुपए में हज़ारों लोग काम कर रहे हैं , किसी ने कोई सुधि क्यों नहीं ली ?
मजीठिया आयोग की सिफारिशें किसी मीडिया हाऊस ने क्यों नहीं अभी तक लागू किया ?
सुप्रीम कोर्ट में सैकड़ों लोग इस बाबत लड़ रहे हैं, लेबर कोर्टों में लड़ रहे हैं।
क्या संसद के लोग नहीं जानते ?
नहीं जानते कि मीडिया हाऊसों ने सारे लेबर कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक खरीद लिए हैं?
लेकिन इस गूंगी, बहरी संसद को तब पता ज़रूर चलता है जब करोड़ों रुपए के पैकेज पर उनकी कुत्तागिरी करने वालों के हितों को चोट पहुंचती है ?
धूमिल ने ठीक ही लिखा है :
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद शुक्ला की फेसबुक वॉल से
Comments