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फिल्म समीक्षा: जॉली एलएलबी 3 : हंसो, सोचो, लड़ो और जस्टिस मांगो

पेज-थ्री            Sep 20, 2025


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

जॉली एलएलबी 3 दर्शकों को कोर्टरूम में ले जाकर हंसाती है, सोचने पर मज़बूर कराती है, व्यवस्था की पोल खोलती है, आगाह कराती है और न्याय पाने लिए प्रेरित कराती है।

कोर्टरूम का सस्पेंस और तनाव मिटाने के लिए दो वकीलों को जमूरा बना दिया गया और जज को कॉमेडी सर्कस का एक्टर।  न्यायालय के बहाने यह सब दिखाना मुश्किल भी होता है और रिस्की भी।

जैसे तीखी चाट खाने पर जुबान पर तो चटखारा लगता है, लेकिन आंखों में आंसू आ जाते हैं। नतीजा बाद में पता चलता है।

इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक मुस्कराते हुए हॉल में घुसता है, और अंत आते आते व्यवस्था की असलियत जानकार सोचने लगता है कि असली खलनायक कौन है?

फिल्म उन खलनायकों को बेनकाब करती है, जिनकी सेवा में हमारे नेता और ब्यूरोक्रेट लगे हुए हैं।

फिल्म में दो दो-जॉली हैं। एक जॉली है जगदीश्वर मिश्रा, एलएलबी,  कानपुरिया।

दूजा जॉली है जगदीश त्यागी,  एलएलबी,  दिल्ली का जुगाड़ू।

दोनों की 'वकालत की दुकान' मंदी है। दोनों  ऐसे एडवोकेट हैं जिनके पास क्लाइंट्स का टोटा है। वे एक दूसरे के क्लाइंट को जॉली नाम से भरमाते हैं।

एक जॉली का क्लाइंट दूसरा जॉली उड़ा ले जाता है। दोनों में अदावत ऐसी है कि कोर्ट के परिसर में मारपीट करते हैं। दोनों को मोटे  क्लाइंट चाहिए, लेकिन उनके गले पड़ते हैं भट्टा परसौल गाँवों के साधनहीन छोटे किसान, जिनकी जमीन को प्रशासन ने 'बीकानेर टू बोस्टन' प्रोजेक्ट में अधिगृहीत कर लिया है।

दोनों के खाते में सभ्य, सुशील और सुन्दर बीवियां  हैं जो उनका साथ देती हैं। एक की बीवी फैशन डिजाइनर है दूसरे की एनजीओ  वाली।

अब फिल्म में यही ट्विस्ट है कि आमने-सामने लड़नेवाले दोनों एडवोकेट अचनाक एक साथ हो जाते हैं, क्योंकि उनकी कानूनी लड़ाई है हजारों करोड़ की प्रॉपर्टी वाले खेतान सेठ से।

सेठ ने अपने प्रोजेक्ट के लिए सैकड़ों किसानों की जमीन खरीद ली है और कुछ की जमीन फर्जी कागजातों के सहारे हड़प रखी है। 

फिल्म के डायलॉग ऐसे पंच मरते हैं कि हंसी भी आती है और न्याय व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा और रोना भी आता है। कोर्टरूम न्यायालय का कक्ष होते हुए भी कॉमेडी शो जैसा बन जाता है जहाँ हंसी का बेम, व्यंग्य का ग्रेनेड और इमोशन का रॉकेट दागा जाता है।

जज साहब भले ही हंसी मजाक करते हों, वे कानून के शब्दों के पीछे के भाव को समझते हैं। कोई दबाव उन पर नहीं चलता और यही इस फिल्म की खूबी है कि नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के लालच और दबाव के बाद भी किसान परिवारों  को मिलता है।

फिल्म के असल हीरो हैं जज बने सौरभ शुक्ला। वे कोर्ट में बैठकर ऐसे लगते हैं, जैसे चित्रगुप्त मज़ाक के मूड में हों! उनके बिना यह फिल्म बिना खटास की चटनी बन जाती।

कोर्ट में जो ड्रामा वे होने देते हैं वही फिल्म की जान है। विकास के नाम पर किसानों की जमीं हड़पने का प्लान बेनकाब होता है। बड़े उद्योगपति का चेहरा बेनकाब होता है और नेता तथा डीएम की असलियत सामने आती है।

 उद्योगपति खेतान के रूप में  गजराज राव का विलेन का रूप इतना रियल है कि लगे कि यह काइयां किसी न्यूज़ डिबेट से निकलकर स्क्रीन पर आ गया।

भट्टा पारसौल का दर्द हंसी के ज़रिए बयां होता है, और वो भी बिना 'प्रवचन' दिए! एक जॉली कोर्ट में कह जाता है कि हमारे बच्चों को स्कूल में सिखाओ कि अनाज उगाना कितना मुश्किल है... सुपरमार्केट से नहीं आता।

 


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